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राहुल गांधी का ‘वोट चोरी का एटम बम’ कैसे चुनाव आयोग की साख बर्बाद कर सकता है?

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अपना वादा निभाते हुए 7 अगस्त को ‘एटम बम’ फोड़ा और बड़े पैमाने पर वोटर लिस्ट में गड़बड़ी का आरोप लगाया. ये सबूत कम से कम वोटर लिस्ट की फौरन सफाई की मांग करते हैं. और अगर मामला गंभीर है तो यह भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को योजनाबद्ध तरीके से कमजोर करने का इशारा भी है

Rahul Gandhi has made a serious allegation of vote theft against the Election Commission
राहुल गांधी ने चुनाव आयोग पर वोट चोरी का गंभीर आरोप लगाया है
अपडेटेड 8 अगस्त , 2025

एक हफ्ते से ज्यादा वक्त से कांग्रेस नेता और लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी भारत में चुनावी गड़बड़ी को लेकर एक ‘‘एटम बम’’ जैसे सबूत का वादा कर रहे थे. उन्होंने 7 अगस्त को, हिरोशिमा पर बम गिराए जाने की 80वीं बरसी के एक दिन बाद, दिल्ली में कांग्रेस मुख्यालय में सियासी धमाका किया. 

उन्होंने ऐसा दावा किया कि उनके पास वोटर लिस्ट में बड़े पैमाने पर गड़बड़ी के पक्के और ठोस सबूत हैं. राहुल ने कहा कि 40 लोगों की टीम ने छह महीने तक काम करके यह जानकारी जुटाई है. उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस में दावा किया कि भारत की वोटर लिस्ट में बड़े पैमाने पर हेरफेर किया गया है.

इसके लिए विपक्ष के नेता ने चुनाव आयोग और बीजेपी के बीच मिलीभगत का आरोप लगाया. यह रहीं राहुल गांधी की ‘‘विस्फोटक’’ प्रेस कॉन्फ्रेंस से जुड़ी पांच अहम बातेंः

पहली और शायद सबसे अहम बात यह है कि भारत की वोटर लिस्ट, जो उसके लोकतांत्रिक ढांचे की नींव है, या तो जानबूझकर छेड़छाड़ के लिए खुली है या फिर उसमें भारी प्रशासनिक लापरवाही है. दोनों ही बातें दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए चिंताजनक हैं.
 
गांधी की टीम ने कर्नाटक की बेंगलूरू सेंट्रल लोकसभा सीट के सिर्फ एक विधानसभा क्षेत्र, महादेवपुरा, के वोटर डेटा का छह महीने तक मैनुअल विश्लेषण किया. अगर उनके नतीजे सही हैं तो ये चौंकाने वाले हैं. इस सीट के कुल 6,50,000 वोटों में से उन्होंने 1,00,250 ऐसे नाम पहचाने जिन्हें उन्होंने फर्जी बताया. जांच में एक व्यवस्थित पैटर्न नजर आयाः 11,965 डुप्लिकेट वोटर, जो अलग-अलग बूथों पर कई बार दर्ज थे. 40,009 वोटर ऐसे पते पर दर्ज थे जो या तो नकली थे या अस्तित्व में ही नहीं थे (जैसे "हाउस नंबर जीरो" या पिता का नाम बेतरतीब अक्षरों का मेल जैसे “DFOIGOIDF”). 10,452 वोटरों में ढेरों लोग एक ही पते पर एक साथ दर्ज थे (जिनमें एक उदाहरण ऐसा था कि एक कमरे के घर में 80 लोग दर्ज थे). 4,132 वोटर के फोटो गलत या गायब थे और 33,692 मामले ऐसे थे जहां फॉर्म-6 का गलत इस्तेमाल हुआ, जिसमें 70-80 साल के लोगों को “नए वोटर” के तौर पर दर्ज किया गया था, जबकि ये श्रेणी 18-23 साल वालों के लिए होती है.

राहुल का कहना था कि यह कोई अलग-थलग गलती नहीं बल्कि एक व्यवस्थित चोरी है, “यह वोट जोड़ना नहीं है. यह वोट चोरी है.” महादेवपुरा में बीजेपी की 1,14,000 से ज्यादा की बढ़त ने बेंगलूरू सेंट्रल की बाकी छह विधानसभा सीटों पर कांग्रेस की बढ़त को खत्म कर दिया और लोकसभा सीट को महज 32,000 से थोड़े ज्यादा वोटों के अंतर से भगवा पार्टी के पक्ष में कर दिया. 

दिलचस्प बात यह है कि कांग्रेस ने महादेवपुरा को चुना, जो 2008 में बनी इस सीट पर बीजेपी का गढ़ रहा है. यहां बीजेपी का वोट शेयर लगातार 49 फीसद (2013) से 54 फीसद (2023 विधानसभा चुनाव) के बीच रहा है, जबकि कांग्रेस का वोट शेयर 46 फीसद (2013) से 41 फीसद (2023) के बीच रहा. 2013 में सबसे कम जीत का अंतर 6,149 वोट था और 2023 में सबसे ज्यादा 44,501 वोट. कहा जा रहा है कि यह अंतर सिर्फ एक साल में ही एक लाख से ज्यादा हो गया, जो हैरान करने वाला है, लेकिन इस सीट पर बीजेपी की पकड़ ऐतिहासिक है.

दूसरी बात यह कि ये गड़बड़ियां चाहे किसी बड़ी साजिश का नतीजा हों या भारी-भरकम प्रशासनिक नाकामी का, दोनों ही हालात हमारे चुनावी ढांचे में खतरनाक गिरावट दिखाते हैं. राहुल ने जो सबूत दिए, उन्होंने चुनाव आयोग की क्षमता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए. जिस देश में आधार के ज‌रिए डिजिटल पहचान और रियल-टाइम बैंक ट्रांसफर को बढ़ावा दिया जा रहा है, वहां वोटर लिस्ट में ऐसी भारी खामियां बर्दाश्त नहीं की जा सकतीं. 
       
कर्नाटक, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में एक ही वोटर का नाम होना, या किसी शराब फैक्ट्री में 68 वोटरों का पंजीकरण होना, यह या तो चौंकाने वाली नाकामी है या फिर जानबूझकर की गई गड़बड़ी. चुनाव आयोग का यह जवाब कि राहुल शपथ लेकर सबूत दें, बजाए इसके कि तुरंत जांच शुरू की जाए, इन आरोपों की गंभीरता को नजरअंदाज़ करने जैसा है. असली मुद्दा गांधी की विश्वसनीयता नहीं, बल्कि भारत के चुनावी सिस्टम की साख है. दिलचस्प बात यह है कि ये खुलासे उल्टा चुनाव आयोग के पक्ष में जा सकते हैं, क्योंकि इससे उन्हें वोटर लिस्ट की स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (एसआइआर) लागू करने का बहाना मिलेगा, जैसा वह बिहार में लिस्ट साफ करने के लिए कर रहा है.
       
तीसरी बात अगर हेरफेर सच में जान-बूझकर और बड़े पैमाने पर हुई है तो यह उल्टा विपक्षी पार्टियों की अपनी नाकामी दिखाती है. चुनाव से पहले वोटर लिस्ट सभी राजनैतिक दलों को जांच के लिए दी जाती है. फिर इतने साफ गड़बड़ियां—गायब पते, रहने की नामुमकिन व्यवस्था, डुप्लिकेट एंट्री- पहले क्यों नहीं पकड़ी गईं और उन्हें चुनौती क्यों नहीं दी गई? 
       
राहुल का कहना है कि महाराष्ट्र चुनाव से पहले कांग्रेस ने ECI को लिखा था. ये सही है, लेकिन शायद उन्होंने जीत का भरोसा होने पर इस मुद्दे को उतनी मजबूती से नहीं उठाया. और भी हैरानी की बात यह है कि जब ये कथित गड़बड़ियां वोटर लिस्ट में हुईं, उस वक्त कर्नाटक में कांग्रेस की ही सरकार थी. 
       
राज्य स्तर पर ECI का कामकाज उसी राज्य के अफसरों के हाथ में होता है. अगर इतनी बड़ी मिलीभगत बिना किसी लीक या व्हिसलब्लोअर के मुमकिन हुई तो या तो यह बेहद करीने तैयार की हुई साजिश थी या फिर ECI के साथ-साथ विपक्षी निगरानी तंत्र में भी सुस्ती और लापरवाही का गहरा असर था. या फिर शायद यह साजिश उतनी सोची-समझी और संगठित नहीं थी, जितना बताया जा रहा है.
       
चौथी बात, आलोचक सवाल उठाते हैं कि अगर चुनाव में हेरफेर करना इतना आसान है, तो 2024 में बीजेपी सिर्फ 240 लोकसभा सीटों तक ही क्यों पहुंची? वह पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु या यहां तक कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव क्यों नहीं जीत पाई? राहुल इसका दिलचस्प जवाब देते हैंः हेरफेर रणनीतिक तौर पर की जाती है. इतनी कि अहम सीटें बच जाएं, लेकिन इतनी नहीं कि शक सब जगह फैल जाए. लेकिन यह वजह अपने आप में नए सवाल खड़ी करती है. 
       
अगर बीजेपी नतीजे बदल सकती थी, तो फिर 240 पर क्यों रुक गई, कम से कम 272 का आरामदायक बहुमत क्यों नहीं लिया? ये ‘चुनिंदा इस्तेमाल’ वाला तर्क, भले अलग-अलग नतीजों को समझाने में सुविधाजनक लगे, लेकिन इतनी सटीक और सर्जरी जैसी चुनावी धोखाधड़ी भारत जैसे विविध और विकेंद्रीकृत चुनावी ढांचे में मुमकिन लगना मुश्किल है.
       
पांचवी बात, जब राहुल से कानूनी कार्रवाई पर सवाल किया गया तो उन्होंने साफ जवाब नहीं दिया. उनका कहना था कि “न्यायपालिका को इसमें आना होगा”, लेकिन यह नहीं बताया कि कांग्रेस अदालत का रुख करेगी या नहीं. उनकी मांग पहले जैसी ही हैः पिछले 10-15 साल का मशीन में पढ़ा जा सकने वाला वोटर डेटा और पोलिंग स्टेशन के सीसीटीवी फुटेज. 
       
वजह साफ है. सिर्फ महादेवपुरा का मामला कोर्ट में जीत के लिए काफी नहीं होगा. पूरे देश में गड़बड़ी का पैटर्न साबित करने के लिए कई चुनावों का बड़ा और आपस में जुड़ा हुआ डेटा चाहिए. मान लें पार्टी पूरे देश से वोटर लिस्ट की हार्ड कॉपी जुटा भी ले, तो उनमें गड़बड़ी ढूंढना बहुत मुश्किल काम होगा. गांधी की 40 लोगों की टीम को सिर्फ एक विधानसभा सीट की सात फुट ऊंची वोटर लिस्ट खंगालने में छह महीने लग गए. एक और बड़ी कानूनी चुनौती भी हैः मान लें राहुल ने यह साबित कर दिया कि वोटर लिस्ट में गड़बड़ी है, लेकिन यह साबित करना कि सारे फर्जी वोट सिर्फ बीजेपी के पक्ष में गए, पूरी तरह अलग बात है.
 
चाहे कोई राहुल की साजिश वाली थ्योरी माने या इन गड़बड़ियों को सरकारी लापरवाही, सबूत साफ कहते हैं कि इसकी गंभीर जांच होनी चाहिए. ECI के अपने डेटा से मिले यह सबूत दिखाते हैं कि कम से कम हमारी वोटर लिस्ट की तुरंत और पूरी तरह सफाई जरूरी है. और अगर मामला गहरा है, तो यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सुनियोजित तरीके से कमजोर करने की कोशिश की तरफ इशारा करता है. किसी भी हालत में देश इस पर चुप नहीं रह सकता. लोकतंत्र में जनता का भरोसा चुनावी प्रक्रिया की पवित्रता से आता है, और अगर इसमें गड़बड़ी का शक भी हो, तो भरोसा डगमगा जाता है. ECI को बचाव वाली मुद्रा छोड़कर इन आरोपों पर पारदर्शी और तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए.

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