20वीं सदी की शुरुआत में यूनाइटेड किंगडम (यूके) से आगे निकलकर अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया. अमेरिका आज भी पहले स्थान पर है.
इस घटना के करीब सौ साल बाद करोड़ों लोगों को गरीबी से बाहर निकालकर चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश बन गया. चीन ने जापान को पीछे छोड़कर यह मुकाम हासिल किया था.
आज भारत भी इसी मोड़ पर खड़ा है. देश पहले ही क्रय शक्ति समता (पीपीपी) के मामले में जापान को पीछे छोड़कर दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है.
दरअसल, क्रय शक्ति समता (PPP) एक आर्थिक सिद्धांत है जो बताता है कि विभिन्न देशों में समान वस्तुओं और सेवाओं की कीमतें समान होनी चाहिए. इसे ऐसे समझें कि दो देशों में किसी 'ए' वस्तु की कीमत करीब 5 डॉलर यानी सामान है तो यह माना जा सकता है कि उनकी क्रय शक्ति समता है.
हालांकि, भारत अब भी चीन और अमेरिका से पीछे है. हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) ने बताया है कि चालू वित्त वर्ष की दूसरी छमाही में भारत का सकल घरेलू उत्पाद (GDP) 4.19 ट्रिलियन डॉलर को पार कर सकता है. अगर ऐसा हुआ तो भारत GDP के मामले में भी जापान से आगे निकल जाएगा.
अगर ये रुझान जारी रहा तो संभवतः भारत अगले 18 महीने में जर्मनी से आगे निकल जाएगा, लेकिन यहीं से असली दौड़ शुरू होगी. चीन को पीछे कर दुनिया की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के लिए भारत को कई बड़े और खास बदलाव करने होंगे.
चीन की नॉमिनल GDP फिलहाल 17 ट्रिलियन डॉलर से अधिक है और अमेरिका की 27 ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा. चीन या अमेरिका के बराबर पहुंचने के लिए या उससे आगे निकलने के लिए भारत को वह करना होगा जो किसी भी लोकतंत्र ने कभी नहीं किया.
अगले 25 वर्षों तक हर साल 8-9 फीसद के दर से भारत को विकास करना होगा. सामाजिक रूप से एकजुट रहने के साथ ही भारत को पर्यावरण की दृष्टि से टिकाऊ और राजनीतिक रूप से स्थिर रहना होगा.
इसके लिए देश में कई बड़े सुधारों की जरूरत होगी. साथ ही इस मुकाम तक पहुंचने के लिए भारत के आर्थिक मॉडल, इसकी राज्य क्षमता, वैश्विक महत्वाकांक्षा और सामाजिक अनुबंध का पुनर्निमाण आवश्यक है.
फिलहाल भारत अच्छी स्थिति में है. यह दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ने वाली बड़ी अर्थव्यवस्था बनी हुई है, जिसकी हाल के वर्षों में औसत वास्तविक जीडीपी वृद्धि 7 फीसद से अधिक रही है.
इसका मैक्रोइकॉनॉमिक ढांचा स्थिर है. इसका मतलब ये है कि मुद्रास्फीति, आर्थिक विकास, राष्ट्रीय आय, सकल घरेलू उत्पाद (GDP) और बेरोजगारी समेत समग्र अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन बेहतर है.
देश में बढ़ता मध्यम वर्ग उपभोग को बढ़ावा दे रहा है. यहां के स्टार्ट-अप नया रूप ले रहे हैं. डिजिटल गवर्नेंस की वैश्विक स्तर पर सराहना हो रही है. लेकिन 4 ट्रिलियन डॉलर से 10 ट्रिलियन डॉलर और उससे आगे की छलांग भारत के लिए काफी मुश्किल नहीं तो आसान भी नहीं होगा. इसके लिए संरचना, रणनीति और शासन कला में साहसिक बदलाव की आवश्यकता होगी.
चीन के उदय ने वैश्विक कारखाने के लिए जगह बनाई. भारत को इस क्षेत्र में अब एक अलग कहानी लिखनी चाहिए. यह चीन या अमेरिका के रास्ते पर चलकर नहीं बल्कि एक नए आविष्कार के जरिए संभव होगा. उस नए आविष्कार का पहला स्तंभ वैश्विक उतार-चढ़ाव के क्षण का लाभ उठाने की भारत की क्षमता में निहित है.
चीन में बढ़ती मजदूरी, भू-राजनीतिक तनावों में वृद्धि और पश्चिम की 'चीन + 1' रणनीति ने एक अनूठा लेकिन सीमित अवसर पैदा किया है. बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपनी आपूर्ति श्रृंखलाओं में विविधता लाने की कोशिश कर रहे हैं और भारत स्पष्ट रूप से इसमें अहम भूमिका निभा सकता है.
हालांकि, भारत को इतना आगे बढ़ने के लिए सिर्फ बैक-अप विकल्प बनकर संतुष्ट नहीं रहना होगा. इसे एक नए नैरेटिव के साथ आगे बढ़ना होगा, जिसमें ‘भारत +’ यानी भारत के साथ कई देश इस मुहिम का हिस्सा होंगे.
इस रणनीति में भारत को न केवल लागत-प्रभावी विनिर्माण के लिए आधार बनकर उभरना है, बल्कि एक व्यापक आर्थिक पारिस्थितिकी तंत्र का भी आधार बनना है.
अफ्रीका, दक्षिण-पूर्व एशिया, पश्चिम एशिया और पूर्वी यूरोप के माध्यम से मूल्य श्रृंखलाओं को जोड़ता है. मूल्य श्रृंखला में किसी सामान की सोर्सिंग से लेकर उत्पादन, वितरण, विपणन, बिक्री और ग्राहक सेवा तक सब कुछ शामिल होता है.
भारत-मध्य पूर्व से लेकर यूरोप तक आर्थिक गलियारे बनाने की बात हो या फिर भारत-यूएई व्यापार समझौता. इन रणनीतिक पहलों के साथ भारत इस दृष्टिकोण के लिए बुनियादी ढांचा तैयार करना शुरू कर रहा है. हालांकि, इन सभी फैसलों को लागू करना सबसे महत्वपूर्ण होगा.
घरेलू स्तर पर इस बदलाव की शुरुआत उस क्षेत्र से होनी चाहिए जो भारत की अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ा विरोधाभास बना हुआ है. यह क्षेत्र है कृषि. देश की 43 फीसद से अधिक आबादी को रोजगार देने वाली, लेकिन सकल घरेलू उत्पाद में केवल 16 फीसद का योगदान देने वाली भारतीय कृषि सालाना 3-4 फीसद की मामूली दर से ही बढ़ पा रही है.
अगर भारत के ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले लोगों के क्रय शक्ति को बढ़ाना है. छिपी हुई बेरोजगारी को कम करना है और अपने असंतुलित विकास को फिर से संतुलित करना है, तो कृषि को बदलना होगा.
इसमें कई स्तर पर बड़े बदलाव करने होंगे. इनमें जरूरत से ज्यादा अनाज पैदा करना हो या उच्च मूल्य वाली फसलों को बढ़ावा देना हो. छोटे-छोटे जोतों में सुधार करना हो या डिजिटल सहकारी समितियों को लेकर बड़ा बदलाव करना हो.
साथ ही कृषि में सुधार के लिए सिंचाई, मिट्टी की गुणवत्ता, बाजार, अनाज को सुरक्षित रखने के लिए स्टोरेज की व्यवस्था, कृषि-लॉजिस्टिक्स में भारी निवेश करना होगा.
भारत को बड़े पैमाने पर किसान-उत्पादक संगठन बनाने चाहिए. भूमि अभिलेखों का डिजिटलीकरण करना चाहिए और छोटे किसानों को औपचारिक अर्थव्यवस्था में शामिल करना चाहिए. ई-नाम और पीएम-किसान जैसी योजनाएं एक शुरुआत हैं, लेकिन ग्रामीण क्षेत्र में रह रहे लोगों को आगे बढ़ाने के लिए बहुत कुछ करने की आवश्यकता है.
वित्त वर्ष 2025 में भारत की वास्तविक जीडीपी करीब 185 लाख करोड़ रुपए थी, जबकि नॉमिनल जीडीपी 324 लाख करोड़ रुपये है. यहां ये समझना होगा कि किसी देश की GDP दो तरह से तय की जाती है. एक नॉमिनल GDP और दूसरी रियल GDP.
रियल जीडीपी और नॉमिनल GDP में मुख्य अंतर यह है कि रियल जीडीपी में महंगाई को भी ध्यान रखा जाता है, जबकि नॉमिनल GDP में महंगाई शामिल नहीं होती.
उदाहरण के लिए मान लीजिए कि एक देश में एक साल पहले एक किलो सेब का मूल्य 50 रुपये था. इस साल एक किलो सेब का मूल्य 100 रुपये हो गया है. अगर नॉमिनल जीडीपी मापा जाए तो यह 100 रुपये होगा, लेकिन रियल जीडीपी अभी भी 50 रुपये होगा, क्योंकि यह आधार वर्ष की कीमतों का उपयोग करता है.
रियल GDP के 6.4 फीसद और नॉमिनल GDP के 9.7 फीसद की दर से बढ़ने का अनुमान है. यह अंतर आर्थिक तरक्की में मूल्य स्तर में बदलाव की भूमिका को उजागर करता है, जो मूल्य-संचालित विकास और मूल्य-संचालित विस्तार के बीच स्पष्ट अंतर दिखाता है.
यह भी संकेत देता है कि इस वृद्धि का एक महत्वपूर्ण हिस्सा उत्पादकता या उत्पादन में वृद्धि के बजाय बढ़ती कीमतों के कारण है. अगर महंगाई अनियंत्रित रूप से बढ़ती है तो यह लोगों के खरीदने की शक्ति को कम कर सकती है. ब्याज दरों को बढ़ा सकती है और लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जरूरी गतिविधियों को मुश्किल बना सकती है.
लंबे समय तक आर्थिक गति को बनाए रखने और दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की भारत की आकांक्षा को प्राप्त करने के लिए उत्पादकता बढ़ाने का प्रयास करना होगा. इसके साथ ही सार्वजनिक धन का इस्तेमाल बेहतर तरीके से करने के साथ ही आपूर्ति की बाधाओं को दूर करने पर ध्यान केंद्रित करना होगा.
अगर आंकड़ों को देखें तो प्रति व्यक्ति शहरी और ग्रामीण जीडीपी के बीच का अंतर अब 1:12.5 है. वर्तमान सरकार द्वारा ग्रामीण स्तर पर अभूतपूर्व पैसा खर्च किए जाने के बावजूद यह बढ़ता अंतर दिखाता है कि इस यहां असल में विकास करने के लिए नीति में बदलाव करने की जरूरत है.
ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को सीधे फायदा पहुंचाने के लिए डायरेक्ट बेनिफिट स्कीम चलाने से गरीबी को कम करने में मदद मिल सकती है, लेकिन इन क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था की संरचना में बदलाव करके उत्पादकता में वृद्धि करने से ही स्थायी समृद्धि सुनिश्चित हो सकता है.
ग्रामीण भारत को उत्पादन का केंद्र बनना चाहिए न कि केवल चीजों के उपभोग करने वाला. हालांकि, एक अच्छी बात ये है कि देश के छोटे शहरों में भी उद्यमियों के एक ऐसे नए समूह का उदय हुआ है, जो डिजिटल दुनिया में टेक्नोलॉजी की मदद से अपने बिजनेस को आगे बढ़ा रहे हैं. यह देश के लिए आशाजनक है.
अगर उनके लिए बुनियादी ढांचे के बेहतर कर उन्हें ऋण मुहैया कराया जाता है तो वे समावेशी विकास में उत्प्रेरक यानी कैटेलिस्ट की भूमिका निभा सकते हैं.
JAM ट्रिनिटी (जन धन-आधार-मोबाइल), ONDC (डिजिटल कॉमर्स के लिए ओपन नेटवर्क) और अकाउंट एग्रीगेटर फ्रेमवर्क इसमें अहम भूमिका निभा सकते हैं.
कृषि और ग्रामीण परिवर्तन आधारभूत हैं. भारत की आर्थिक विकास अंततः शहरी विनिर्माण, सेवा निर्यात, बुनियादी ढांचे, ऊर्जा सुरक्षा और नवाचार द्वारा संचालित होगी.
सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण की हिस्सेदारी को मौजूदा 14 प्रतिशत से बढ़ाकर कम से कम 25 फीसद करना होगा. इसके लिए सतत नीतिगत स्थिरता, पूंजी प्रवाह और गहन कौशल की आवश्यकता है. खास तौर पर स्वच्छ तकनीक, रक्षा विनिर्माण और फार्मास्यूटिकल्स के क्षेत्र में.
उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन (PLI) योजनाएं सही दिशा में उठाया गया कदम है, लेकिन भारत को उच्च-मूल्य वाले नवाचार की ओर बढ़ना चाहिए.
निर्यात प्रतिस्पर्धा केवल सब्सिडी पर निर्भर नहीं रह सकती. इसके लिए कंपनियों को आसानी से जमीन मुहैया कराने के साथ ही उनके लिए न्यायिक स्पष्टता और विश्व स्तरीय लॉजिस्टिक्स मुहैया कराने पर जोर देना होगा.
2035 तक भारत को 2 ट्रिलियन डॉलर की निर्यात अर्थव्यवस्था बनने की आकांक्षा रखनी चाहिए. न केवल वस्तुओं में, बल्कि सेवाओं, शिक्षा, स्वास्थ्य तकनीक और मनोरंजन में भी.
विकास के लिए ऊर्जा एक और महत्वपूर्ण क्षेत्र है. कोई भी बड़ी अर्थव्यवस्था ऊर्जा सुरक्षा के बिना विकसित नहीं हो सकती. भारत को सौर, पवन, हरित हाइड्रोजन, ईवी ऊर्जा के क्षेत्र में खुद को मजबूत बनाना होगा.
भारत को अपने मानव संसाधन पर भी काम करने की जरूरत है. भारत को शिक्षा पर खर्च को जीडीपी के कम से कम 6 फीसद तक बढ़ाना चाहिए. विशेष रूप से सरकारी स्कूलों में. व्यावसायिक प्रशिक्षण को बढ़ावा देने की जरूरत है. युवाओं को डिजिटल रूप से सक्षम बनाने की आवश्यकता है.
वित्तीय प्रणाली का विकास भी उतना ही महत्वपूर्ण है. निजी ऋण अभी भी जीडीपी के 60 फीसद से कम है और कॉर्पोरेट बॉन्ड बाजार अविकसित है. इसलिए भारत को अपनी वित्तीय प्रणाली को गति देनी की जरूरत है. एनबीएफसी (गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों) को सशक्त बनाकर, खुदरा भागीदारी का विस्तार करके और बड़े पैमाने पर पेंशन और बीमा के जरिए भारत वित्तीय प्रणाली को बेहतर बना सकता है.
भारत को आर्थिक ताकत बनाने के लिए इसे अपनी भू-राजनीतिक ताकत का इस्तेमाल करना होगा. इसे यूरोपीय संघ, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और पूर्वी एशियाई देशों के साथ निष्पक्ष व्यापार सौदे करने चाहिए.
साथ ही इसे अफ्रीका, पश्चिम एशिया और आसियान में अपनी उपस्थिति का विस्तार करना चाहिए. IPEF, BIMSTEC, BRICS, क्वाड और SCO जैसी संस्थाओं को सिर्फ बातचीत का प्लेटफॉर्म बनाने के बजाय इसे भू-आर्थिक प्रभाव का केंद्र बनना चाहिए.
इन सबके बावजूद भारत के लिए आगे की राह आसान नहीं है. यह काफी जोखिम भरी है. जोखिम वास्तविक और जटिल हैं. चीन या पाकिस्तान के साथ भू-राजनीतिक टकराव पूंजी प्रवाह को बाधित कर सकता है.
ऑपरेशन सिंदूर के बाद इस्लामाबाद के युद्ध विराम के अनुरोध को नई दिल्ली द्वारा स्वीकार करना भी इस दर्शन से प्रेरित था कि भारत पाकिस्तान को नियंत्रित रखने के साथ-साथ आर्थिक ताकत बनाने पर भी ध्यान केंद्रित करना चाहता है.
देश के लिए फिलहाल सबसे बड़ा जोखिम आत्मसंतुष्टि भी है. यह भ्रम कि ज्यादा आबादी और धीरे-धीरे होने वाला विकास किसी तरह भारत को आगे ले जाएगा. सच तो यह है कि भारत की आबादी यानी जनसांख्यिकी लाभ समयबद्ध है. 2040 तक देश बूढ़ा होना शुरू हो जाएगा. अगले 15 साल सिर्फ एक अवसर नहीं, बल्कि देश के लिए एक समय सीमा भी है.
भारत का उदय अमेरिका के उपभोक्ता पूंजीवाद जैसा नहीं होगा. यह चीन के राज्य-नेतृत्व वाले अधिनायकवाद (एक राजनीतिक शासन प्रणाली है जिसमें सत्ता एक व्यक्ति के हाथों में होती है) की भी नकल नहीं करेगा.
इसे अपना रास्ता खुद बनाना होगा. आत्मनिर्भरता, प्रतिस्पर्धी बाजारों, सशक्त नागरिकों और समावेशी स्वदेशी वैश्विकता पर आधारित. इसका मतलब है कि भारत को केवल विकास पर ध्यान देने के बजाय सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर काम करना होगा.
27 मई को गुजरात दौरे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वदेशी को बढ़ावा देने की बात कही. नागरिकों से विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने और स्थानीय रूप से निर्मित उत्पादों को अपनाने का आग्रह किया.
उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि 2047 तक विकसित भारत के निर्माण के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है. उन्होंने कहा, "हमें यह संकल्प लेना है कि हम किसी भी विदेशी वस्तु का उपयोग नहीं करेंगे." यह अपील उनकी सरकार की 'आत्मनिर्भर भारत' पहल के अनुरूप है, जिसका उद्देश्य आयात पर निर्भरता कम करना और घरेलू उद्योगों को बढ़ावा देना है.
प्रधानमंत्री का संदेश उपस्थित लोगों को पसंद आया, जिनमें से कई ने अपने समुदायों में 'मेड इन इंडिया' उत्पादों को बढ़ावा देने का संकल्प लिया. मोदी उसी दिशा की ओर इशारा कर रहे हैं.
यह कोई तेज दौड़ नहीं है. यह एक महामैराथन है, जिसे वैश्विक अस्थिरता और घरेलू जटिलता ने और भी कठिन बना दिया है. लेकिन अगर भारत सही दिशा में आगे बढ़ता है, तो इस सदी के मध्य तक दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकता है.