भारत जब 26 जनवरी, 1950 को गणतंत्र घोषित हुआ, तो इस नई व्यवस्था में कई सारे बदलाव हुए. संवैधानिक राजतंत्र की समाप्ति हुई, और भारत एक गणराज्य बना. ब्रिटिश शासन के प्रतीक रहे गवर्नर जनरल को अब देश के प्रथम नागरिक यानी राष्ट्रपति के लिए जगह खाली करनी थी.
भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद चुने गए. उन्हें भारत के अंतिम गवर्नर-जनरल सी राजगोपालाचारी ने शपथ दिलाई. बाहर से देखने पर राजेंद्र प्रसाद का बतौर राष्ट्रपति चुनाव सामान्य दिखता है, लेकिन क्या यह सब कुछ इतने सामान्य ढंग से हुआ था?
1949 के मध्य तक, संविधान निर्माण की प्रक्रिया अंतिम चरण में थी. नए गणतांत्रिक राष्ट्र के रूप में कार्य करने के लिए राष्ट्रपति की जरूरत सामने आ रही थी. इस पद के लिए राजाजी (राजगोपालाचारी) नेहरू की पहली पसंद थे. वे मद्रास के विद्वान राजनेता थे. साथ ही, वे उस समय गवर्नर जनरल भी थे. नेहरू को लगता था कि राजाजी चूंकि पहले से ही नियम-कायदों की बारीकियां समझते हैं, इसलिए राष्ट्रपति के पद पर काम करने में उन्हें कोई खास समस्या नहीं होगी, बनिस्बत इसके कि कोई नया आदमी पद पर आए.
हालांकि, बल्लभ भाई पटेल इससे सहमत नहीं थे. वे राजेंद्र प्रसाद को राष्ट्रपति बनते देखना चाहते थे. नेहरू और पटेल के बीच यह विभाजन कुछ हद तक विचारधारा से प्रेरित था. भारत को किस प्रकार की धर्मनिरपेक्षता का पालन करना चाहिए, इस सवाल पर जहां राजाजी और नेहरू की विचारधारा एक-दूसरे से खूब मेल खाती थी.
इसके अलावा कांग्रेस के एक धड़े में राजाजी को लेकर इस बात से भी नाराजगी थी कि जब 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ तो उन्होंने इसका विरोध किया था. जबकि राजेंद्र प्रसाद, पटेल की पसंद इसलिए थे कि ये दोनों सामाजिक परंपराओं के मामले में ज्यादा प्रतिबद्ध थे. 1955 में जब देश में हिंदू कोड बिल लागू किया जा रहा था तो राष्ट्रपति के रूप में प्रसाद ने इसका कड़ा विरोध किया. हिंदू कोड बिल ने महिलाओं को अधिक अधिकार प्रदान किए थे.
राष्ट्रपति रहते हुए ही राजेंद्र प्रसाद ने सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण में सहयोग किया था. लेकिन उनका नेहरू के साथ सबसे दिलचस्प टकराव रहा गणतंत्र दिवस की तारीख को लेकर. 26 जनवरी, 1930 को कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज का संकल्प लिया था. नेहरू चाहते थे कि 26 जनवरी की तारीख ही गणतंत्र दिवस के रूप में चुनी जाए. लेकिन राजेंद्र प्रसाद ने इस तारीख का विरोध किया. उन्हें लगा कि ज्योतिष के लिहाज से यह एक अशुभ दिन होगा. हालांकि नेहरू ने इन तर्कों को नजरअंदाज कर दिया था.
बहरहाल, वापस कहानी पर आते हैं. पूर्व खूफिया अधिकारी RNP सिंह अपनी किताब 'नेहरू ए ट्रबल्ड लेगेसी' में लिखते हैं कि जब नेहरू के पास यह खबर पहुंची कि राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति की उम्मीदवारी करेंगे तो उन्होंने 10 सितंबर, 1949 को सीधे प्रसाद को पत्र लिखा और राय जाहिर की कि राजाजी को राष्ट्रपति बनना चाहिए. लेकिन जवाब में राजेंद्र प्रसाद ने एक लंबा पत्र लिखा और मैदान छोड़ने से इनकार कर दिया. इन दोनों के बीच पत्राचार का जिक्र संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप और अभय कश्यप की किताब 'इंडियन प्रेजिडेंसी: कॉन्स्टिट्यूशन लॉ एंड प्रेक्टिस' में भी मिलता है. दूसरी तरफ राजेंद्र प्रसाद को पटेल का समर्थन हासिल था. इस बीच नेहरू और पटेल के बीच भी पत्राचार चल रहा था. हालांकि पटेल ने नेहरू के साथ पत्र-व्यवहार में यह जाहिर नहीं होने दिया कि वे राजेंद्र प्रसाद को राष्ट्रपति बनते देखना चाहते हैं.
इधर नेहरू, पटेल को पत्र लिखते और शिकायत करते कि यह मामला काफी बढ़ता जा रहा है और बहुसंख्यक लोग चाहते हैं कि राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति बनें. पटेल ने नेहरू को यह महसूस नहीं होने दिया कि इस मामले में वे राजेंद्र प्रसाद के साथ हैं. बल्कि नेहरू को उन्होंने यह आभास कराया कि वे इस मामले में उनके साथ हैं. 5 अक्टूबर को नेहरू ने इस मामले पर निर्णय लेने के लिए कांग्रेस सांसदों की एक बैठक बुलाई. जैसे ही उन्होंने राष्ट्रपति के लिए राजाजी का नाम प्रस्तावित किया, वहां मौजूद सांसदों ने इसका जोरदार विरोध किया.
नेहरू को यह उम्मीद नहीं थी. विरोध की तीव्रता से विचलित होकर नेहरू ने समर्थन के लिए पटेल की ओर रुख किया. लेकिन सरदार ने उनका समर्थन नहीं किया. नेहरू ने अपना भाषण रोक दिया. वे वहीं बैठ गए. इससे राजाजी के राष्ट्रपति बनने की सारी संभावनाएं खत्म हो गई. नेहरू को सार्वजनिक रूप से काफी शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा. मात खाए नेहरू ने राजेंद्र प्रसाद को प्रलोभन दिया- योजना आयोग का अध्यक्ष बन जाइए या फिर कांग्रेस का अध्यक्ष. लेकिन प्रसाद नहीं माने. वे देश के पहले राष्ट्रपति बने, और 1950 से लेकर 1962 तक उन्होंने राष्ट्रपति के रूप में देश की सेवा की.