"मैं नरेंद्र दामोदर दास मोदी, जो लोकसभा का सदस्य निर्वाचित हुआ हूं. ईश्वर की शपथ लेता हूं कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा. मैं भारत की प्रभुता और अखंडता अक्षुण्ण रखूंगा. तथा जिस पद को मैं ग्रहण करने वाला हूं उसके कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक निर्वहन करूंगा."
जून की 24 तारीख को 18वीं लोकसभा के शुरुआती सत्र में प्रोटेम स्पीकर भर्तृहरि महताब सभी निर्वाचित सांसदों को शपथ दिला रहे थे, तो उनमें से ज्यादातर ईश्वर के नाम पर शपथ ले रहे थे. ऐसे में यहां एक सवाल उठता है कि क्या सांसदों को ईश्वर के नाम पर शपथ लेना जरूरी है. क्या हो, अगर किसी सांसद को भगवान में भरोसा ही न हो?
ठीक ऐसी ही दुविधा तब भी सामने आई थी जब संविधान का मसौदा (ड्राफ्ट) तैयार हो रहा था. देश के पहले कानून मंत्री डॉ. भीमराव आंबेडकर की अध्यक्षता वाली ड्राफ्टिंग कमिटी ने तैयार किए मसौदे में किसी भी शपथ में ईश्वर का जिक्र नहीं किया था. तो फिर शपथ में ईश्वर का नाम जुड़ा कैसे? लेकिन यहां यह कहानी जानने से पहले थोड़ा ये समझते हैं कि एक सांसद के लिए शपथ का महत्व क्या है. क्या हो, अगर कोई सांसद शपथ ही नहीं ले?
दरअसल, एक सांसद का पंचवर्षीय कार्यकाल तभी शुरू हो जाता है जब केंद्रीय चुनाव आयोग (ईसीआई), जन प्रतिनिधित्व कानून, 1951 की धारा 73 के तहत नतीजे का ऐलान करता है. इसके बाद निर्वाचित सांसदगण कुछ अधिकारों के लिए पात्र हो जाते हैं. जैसे, अधिसूचना की तारीख से उन्हें अपना वेतन और भत्ता मिलना शुरू हो जाता है. इस बार ईसीआई ने आम चुनाव के नतीजे 6 जून को घोषित किए थे.
लेकिन जरा ठहरिए. चुनाव जीतने और कार्यकाल शुरू होने भर से ही किसी सांसद को सदन की कार्यवाही में भाग लेने की अनुमति नहीं मिल जाती. लोकसभा में बहस करने और मतदान करने के लिए किसी सांसद को पहले शपथ (जिसमें ईश्वर को साक्षी माना जाता है) या प्रतिज्ञा (यह एक तरह का वादा है) लेकर सदन में अपनी सीट निश्चित करनी होती है. सांसदों के लिए संविधान के अनुच्छेद-99 में शपथ और प्रतिज्ञा का विवरण निर्धारित किया गया है.
अगर कोई सांसद शपथ लिए बगैर सदन की कार्यवाही में भाग लेता है या मतदान करता है तो संविधान में उसके लिए 500 रुपये का दंड सुनिश्चित किया गया है. संविधान में उल्लिखित यह सांसदों के लिए एकमात्र वित्तीय दंड है जिसके बारे में अनुच्छेद 104 के तहत बताया गया है.
हालांकि इस नियम का एक अपवाद यह है कि कोई भी व्यक्ति संसद के लिए निर्वाचित हुए बिना भी मंत्री बन सकता है. इस बीच उसके पास लोकसभा या राज्यसभा में एक सीट सुरक्षित करने के लिए छह महीने का समय होता है. इस दौरान वह सदन की कार्यवाही में हिस्सा तो ले सकता है लेकिन मतदान नहीं कर सकता. बहरहाल, वापस उस कहानी पर आते हैं कि क्या सांसदों को ईश्वर के नाम पर शपथ लेना जरूरी है?
जैसा कि ऊपर जिक्र किया गया है कि संविधान की ड्राफ्टिंग कमिटी ने जो मसौदा तैयार किया था उसमें किसी भी शपथ में ईश्वर का उल्लेख नहीं किया गया. कमिटी का कहना था कि शपथ लेने वाला व्यक्ति पूरी निष्ठा और ईमानदारी से संविधान के प्रति सच्ची आस्था और निष्ठा रखने का वादा करता है. लेकिन जब संविधान सभा के सदस्य इस मसौदे पर चर्चा कर रहे थे तो उनके बीच एक सवाल उभर कर आया.
यह सवाल राष्ट्रपति की शपथ को लेकर था. इसके बाद के टी. शाह और महावीर त्यागी जैसे सदस्यों ने शपथ में ईश्वर को जोड़ने के लिए संशोधन पेश किया. शाह ने दलील दी, "जब मैंने संविधान का अध्ययन किया तो मुझे यह एहसास हुआ कि इसमें एक खालीपन है. मुझे नहीं पता क्यों, शायद हम इसमें ईश्वर की कृपा और आशीर्वाद का आह्वान करना भूल गए थे."
वहीं महावीर त्यागी ने कहा, "जो लोग ईश्वर में विश्वास करते हैं वे ईश्वर के नाम पर शपथ लेंगे. और उन अज्ञेयवादियों के लिए, जो ईश्वर में विश्वास नहीं करते हैं, वे केवल सत्यनिष्ठा से शपथ लेंगे. ताकि सभी के विश्वास के लिए स्वतंत्रता हो." हालांकि शपथ में ईश्वर का नाम जोड़ने पर भी कई लोगों ने असहमति जताई थी.
आंबेडकर ने ये संशोधन मान लिए. उनका कहना था कि "कुछ लोगों के लिए ईश्वर एक मंजूरी है. उन्हें लगता है कि ईश्वर ब्रह्मांड के साथ-साथ उनके व्यक्तिगत जीवन के लिए भी एक नियामक शक्ति है. और अगर वे ईश्वर के नाम पर शपथ लेते हैं, तो उनके नाम पर ली गई शपथ एक मंजूरी प्रदान करती है जो कर्तव्यों को पूरा करने के लिए जरूरी है और जो पूरी तरह से नैतिक है."
इसके बाद धर्मनिरपेक्ष प्रस्तावना के बावजूद संविधान की तीसरी अनुसूची में शपथ लेने वाले व्यक्ति की आस्था के आधार पर या तो "ईश्वर के नाम पर" शपथ लेने या "सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान" करने का विकल्प दिया गया है. हालांकि कई लोग इस बात की आलोचना करते हैं कि चूंकि संविधान का स्वरूप अपने-आप में धर्मनिरपेक्ष बताया जाता है तो फिर सांसदों या विधायक ईश्वर के नाम पर शपथ क्यों लेते हैं?