भारत को शायद अब तक का सबसे बड़ा मौका मिला है कि वो वैश्विक स्वच्छ प्रौद्योगिकी (क्लीन-टेक) क्षेत्र में एक बड़ा खिलाड़ी बन सके. और उसके पास यह मौका न तो किसी नई घरेलू नीति की वजह से आया है और न ही किसी अंतरराष्ट्रीय समझौते के कारण. बल्कि इसके पीछे वजह है अमेरिका का अपनी जलवायु प्रतिबद्धताओं (क्लाइमेट एंबिशन) से अचानक पीछे हट जाना.
हाल में अमेरिकी संसद (सीनेट) में एक तूफानी सत्र के दौरान सांसदों ने ऐतिहासिक जलवायु कानून 'इन्फ्लेशन रिडक्शन एक्ट (IRA)' को खत्म करने के पक्ष में वोट किया. कभी इस कानून को अमेरिका के सबसे साहसी क्लाइमेट लॉ के रूप में सराहा गया था, जो वहां स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए 370 अरब डॉलर से ज्यादा की सब्सिडी, टैक्स छूट और प्रोत्साहन योजनाएं लेकर आया था.
नया बजट बिल सीनेट से पास हो गया है, अब सिर्फ वहां की संसद के निचले सदन (हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स) की मंजूरी और राष्ट्रपति के हस्ताक्षर बाकी हैं. लेकिन इसके साथ ही पुराने सभी फायदे खत्म कर दिए गए हैं. 1 जुलाई की रात (अमेरिकी समयानुसार) को वोटिंग में बराबरी हो गई थी, इसके बाद इस बिल को अमेरिका के उपराष्ट्रपति जेडी वांस ने 'टाई ब्रेकिंग' वोट डाल कर पास कराया.
अब यह बिल अमेरिकी संसद के निचले सदन में जाएगा, जहां दो चीजें हो सकती हैं. पहला, या तो उसी रूप में पास कर दिया जाए, जैसे वो आया है. दूसरा, उसमें कुछ संशोधन भी हो सकता है. अगर संशोधन हुआ, तो यह फिर से सीनेट में वोटिंग के लिए जाएगा. अगर हाउस इसे मंजूरी दे देता है, तो यह आखिरी मंजूरी के लिए अमेरिका के राष्ट्रपति के पास जाएगा. 435 सदस्यों वाले इस सदन में रिपब्लिकन पार्टी का मामूली बहुमत है, जहां उनके पास 220 सांसद हैं.
दुनिया की 'जलवायु आधारित अर्थव्यवस्था', जिसमें भारत धीरे-धीरे शामिल हो रहा है, पहले से ही इस बदलाव के असर को महसूस कर रही है. लेकिन इस हलचल के बीच भारत उन कुछ देशों में है जो इससे फायदा उठा सकते हैं.
जलवायु आधारित अर्थव्यवस्था ऐसी अर्थव्यवस्था है, जो पर्यावरण को बचाने, प्रदूषण घटाने और हरित (ग्रीन) तकनीकों के जरिए विकास करने पर टिकी है. जैसे, अगर कोई देश सौर पैनल बनाकर दूसरे देशों को बेचता है, या ईवी बनाने वाली कंपनी में निवेश करता है, तो वह ग्लोबल क्लाइमेट इकॉनमी का हिस्सा है.
अमेरिका का अपनी क्लीन एनर्जी की प्रतिबद्धताओं से पीछे हटना दुनिया की सप्लाई चेन को एक नया आकार दे सकता है, सैकड़ों अरब डॉलर के हरित निवेश की दिशा मोड़ सकता है और क्लाइमेट एक्शन से जुड़ी वैश्विक शक्ति संतुलन को प्रभावित कर सकता है.
भारत के लिए, जो सौर ऊर्जा, इलेक्ट्रिक वाहनों, बैटरी स्टोरेज और ग्रीन हाइड्रोजन में लगातार भारी निवेश कर रहा है, यह अचानक बना खालीपन एक रणनीतिक मौका है कि वो खुद को एक उत्पादन केंद्र, इनोवेशन हब और निवेश का आकर्षण बना सके. लेकिन भारत इस मौके का कितना फायदा उठा पाएगा, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि केंद्र सरकार और उद्योग जगत कितनी तेजी और मजबूती से कदम उठाते हैं.
अमेरिका में जो बदलाव हुआ है, उसका दायरा व्यापक और चौंकाने वाला है. सीनेट ने जो नया बिल पास किया है, वह दिखने में तो टैक्स और इमिग्रेशन से जुड़ा है, लेकिन इसमें ऐसे नियम शामिल हैं जो पुराने जलवायु कानून IRA को लगभग बेकार बना देते हैं. जैसे, इस बिल के लागू होने पर क्लीन एनर्जी, ईवी, रूफटॉप सोलर, होम एफिशिएंसी और क्लीन मैन्यूफैक्चरिंग पर मिलने वाली टैक्स छूट खत्म हो जाएगी.
इसके अलावा, इलेक्ट्रिक गाड़ियां खरीदने पर मिलने वाला फायदा और बिजनेस के लिए टैक्स क्रेडिट भी अब बंद हो जाएगा. 2031 से क्लीन एनर्जी प्रोडक्शन पर मिलने वाली छूट भी धीरे-धीरे खत्म कर दी जाएगी.
इसके साथ ही, स्टील बनाने में इस्तेमाल होने वाले कोयले पर टैक्स छूट बढ़ा दी गई है और तेल-गैस प्लांट से होने वाले मीथेन गैस रिसाव पर जुर्माना लगाने की योजना 10 साल तक टाल दी गई है. सबसे आखिर में, पर्यावरण संरक्षण, लुप्तप्राय प्रजातियों की रक्षा और गरीब इलाकों में हरित विकास के लिए दी जा रही सरकारी मदद भी हटा दी जाएगी.
इस फैसले का असर जितना पर्यावरण पर पड़ेगा, उतना ही अर्थव्यवस्था पर भी होगा. अमेरिकी कांग्रेस की बजट ऑफिस का अनुमान है कि यह नया बिल अगले 10 साल में अमेरिका के घाटे में 3.9 ट्रिलियन डॉलर का इजाफा कर देगा. एनर्जी इनोवेशन (स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा देने वाला संगठन) के मुताबिक, 2035 तक बिजली उत्पादन क्षमता में 300 गीगावॉट की गिरावट आएगी. इससे अमेरिकी अर्थव्यवस्था को लगभग 960 अरब डॉलर का नुकसान होगा, और 5 लाख से ज्यादा नौकरियां खत्म हो जाएंगी.
कुछ जानकार इससे भी गंभीर नतीजों की चेतावनी दे रहे हैं. न्यूयॉर्क स्थित सेंटर फॉर पब्लिक एंटरप्राइज में ऊर्जा वित्त विशेषज्ञ अद्वैत अरुण कहते हैं, "अगर सीनेट का यह बिल पास हो गया, तो रिपब्लिकन पार्टी ने लगभग तय कर दिया है कि आने वाले वर्षों में अमेरिका में बिजली की कटौती और ग्रिड फेल होने जैसी समस्याएं होंगी. यह बिल देश की औद्योगिक ताकत को जबरन खत्म करता है और हमारे जीवन स्तर को बुरी तरह गिरा देगा."
दूसरी तरफ भारत के लिए, अमेरिका की क्लीन-टेक नीति से भरोसा उठने का यह मौका तीन बड़े रास्ते खोलता है:
1. जलवायु निवेश (क्लाइमेट कैपिटल) का भारत की ओर रुख
2. उत्पादन क्षमता (मैन्यूफैक्चरिंग कैपसिटी) का भारत की ओर स्थानांतरण
3. अंतरराष्ट्रीय हरित मंचों पर नेतृत्व की नई भूमिका
पहला मौका है - निवेश का. IRA के जरिए अमेरिका में 370 अरब डॉलर से ज्यादा की रकम क्लीन एनर्जी के लिए जुटाई गई थी. इसमें कई प्राइवेट कंपनियां, पेंशन फंड और पर्यावरण को ध्यान में रखने वाले बड़े निवेशक शामिल थे, जो अमेरिका की स्वच्छ ऊर्जा योजना से जुड़े हुए थे.
अब जब अमेरिका में टैक्स छूट हटा दी गई है और बिजली ग्रिड को आधुनिक बनाने की योजना टाल दी गई है, तो वो भारी निवेश अब किसी ऐसे देश की तलाश में हैं जिसकी नीतियां और शासन स्थिर हो.
भारत इस मामले में एक अच्छा विकल्प बन सकता है, क्योंकि उसके पास ग्रीन बॉन्ड की व्यवस्था, सरकारी जलवायु वित्त ढांचा, और लगातार बढ़ती PLI (प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव) योजनाएं हैं. बस शर्त ये है कि भारत इन निवेशों को सही तरीके से संभाल सके.
दूसरा मौका है - मैन्युफैक्चरिंग (उत्पादन). भारत का लक्ष्य है कि वह स्वच्छ तकनीक (क्लीन-टेक) में आत्मनिर्भर उत्पादन केंद्र बने. इस दिशा में भारत ने सोलर और बैटरियों के लिए 24,000 करोड़ रुपये की PLI योजना, ग्रीन हाइड्रोजन मिशन के लिए 19,744 करोड़ रुपये आवंटित और कई राज्यों में औद्योगिक पार्क (इंडस्ट्रियल पार्क) शुरू किए हैं. अब ये सारी पहलें दुनिया में पहले से कहीं ज्यादा प्रतिस्पर्धी दिखने लगी हैं.
'ग्रीन मैन्यूफैक्चरिंग चेन' (पर्यावरण के अनुकूल उत्पादन प्रणाली) में चीन की बढ़त को पहले से ही माना जाता रहा है. लेकिन भारत चुपचाप एक तेजी से उभरता हुआ खिलाड़ी बन गया है, खासकर इलेक्ट्रिक टू-व्हीलर, डिस्ट्रीब्यूटेड सोलर सिस्टम और इलेक्ट्रोलाइजर निर्माण जैसे क्षेत्रों में.
अब जब अमेरिका खुद ही पीछे हट गया है, तो भारत के पास यह मौका है कि वो ग्लोबल साउथ (यानी विकासशील देशों) के लिए सबसे पसंदीदा आपूर्तिकर्ता बन सकता है. और अब यूरोप, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे देश भी भारत की ओर देख रहे हैं, क्योंकि वे चीन के ग्रीन प्रोडक्ट्स का लोकतांत्रिक और विविध विकल्प चाहते हैं.
यही वह जगह है जहां चीन से तुलना करना बहुत जरूरी हो जाती है. आज चीन दुनिया की 80 फीसद से ज्यादा सोलर वेफर और सोलर मॉड्यूल का उत्पादन करता है. वो बैटरी की वैश्विक सप्लाई चेन पर भी पूरी तरह हावी है और इलेक्ट्रोलाइजर निर्माण में उसका स्तर बहुत बड़ा और बेजोड़ है. इसके अलावा, लिथियम, कोबाल्ट और रेयर अर्थ जैसे खनिजों को रिफाइन करने की चीन की व्यवस्था भी दुनिया में सबसे आगे है.
चीन की कंपनियों ने खनन से लेकर निर्माण और इस्तेमाल तक, पूरी प्रक्रिया को अपने नियंत्रण में ले लिया है. इसे वर्टिकल इंटीग्रेशन कहते हैं. इसी वजह से उन्हें कम लागत पर सामान बनाने का फायदा मिलता है, जिससे बाकी देशों के लिए मुकाबला करना मुश्किल हो जाता है. लेकिन चीन की यह बढ़त अब राजनीतिक चिंता का कारण बन गई है.
पश्चिमी देशों को डर है कि अगर किसी एक देश (जैसे चीन) पर ऊर्जा से जुड़े जरूरी सामानों के लिए ज्यादा निर्भर हो गए तो खतरा बढ़ सकता है. कोविड-19 के समय सप्लाई चेन में आई गड़बड़ियों और बढ़ते व्यापारिक तनावों ने इन चिंताओं को और भी ज्यादा बढ़ा दिया है.
इसके मुकाबले, भारत बड़े पैमाने पर उत्पादन के मामले में थोड़ा पीछे जरूर है, लेकिन वह एक विविध और लोकतांत्रिक विकल्प के रूप में खुद को बेहतर तरीके से पेश कर सकता है. भारत के पास चीन जैसी पूरी उत्पादन प्रक्रिया (वर्टिकल इंटीग्रेशन) तो नहीं है, लेकिन उसके पास पश्चिमी देशों से अच्छे राजनीतिक रिश्ते हैं, कम लागत वाली मेहनतकश श्रमिक शक्ति है और तेजी से सुधार हो रहा लॉजिस्टिक्स और मैन्युफैक्चरिंग सिस्टम है.
सबसे अहम बात यह है कि भारत को अभी तक एक दबदबा जमाने वाले देश के रूप में नहीं देखा जाता. इसलिए भारत खुद को एक सहयोगी के रूप में पेश कर सकता है, न कि किसी का विकल्प बनकर. वैश्विक ऊर्जा थिंक टैंक 'एंबर' के नीति और रणनीति निदेशक रिचर्ड ब्लैक इस बदलते हालात को अच्छी तरह समझाते हैं. उनके मुताबिक, "दुनिया भर में स्वच्छ ऊर्जा की मांग बढ़ती जा रही है, और उसे अभी भी चीन की फैक्टरी ही बनाएंगी. लेकिन भारतीय कंपनियां तेजी से पीछे-पीछे आ रही हैं. और जहां अमेरिका की सरकार ने अब तय कर लिया है कि वह ग्राहक नहीं बनेगी, वहीं उसने ये भी तय कर लिया है कि वह अब इस दौड़ में प्रतियोगी भी नहीं रहेगी."
तीसरा मौका कूटनीतिक है. G20 की अध्यक्षता के दौरान भारत की पहचान एक मजबूत क्लाइमेट लीडर के रूप में उभरी. भारत ने इंटरनेशनल सोलर अलायंस (ISA), कोएलिशन फॉर डिजास्टर रेजिलिएंट इंफ्रास्ट्रक्चर (CDRI) और नई बनी ग्लोबल बायोफ्यूल्स अलायंस का नेतृत्व करके यह दिखा दिया कि वो ऊर्जा और टिकाऊ विकास पर देशों को एकजुट कर सकता है.
अब जब अमेरिका पीछे हट रहा है, तो भारत एक समावेशी और न्यायपूर्ण ऊर्जा बदलाव का मुख्य पक्षधर बन सकता है. एक ऐसा बदलाव जो सिर्फ नेट जीरो लक्ष्यों पर नहीं, बल्कि सस्ती ऊर्जा, सबकी पहुंच और रोजगार को प्राथमिकता देता हो.
सवाल यह है कि क्या भारत इसके लिए तैयार है? इसके जवाब का कुछ हिस्सा हौसला बढ़ाने वाला है. भारत का क्लीन-टेक सिस्टम अब शुरुआती दौर में नहीं रहा. अदाणी ग्रीन, रीन्यू पावर और टाटा पावर सोलर दुनिया की सबसे बड़ी रेन्यूएबल एनर्जी कंपनियों में शामिल हैं. विक्रम सोलर और वॉरी एनर्जी ने सोलर मॉड्यूल के निर्यात को काफी बढ़ा दिया है. ओला इलेक्ट्रिक, महिंद्रा और टाटा मोटर्स जैसी कंपनियां अब टियर-2 और टियर-3 शहरों में भी इलेक्ट्रिक गाड़ियों को तेजी से अपना रही हैं.
रिलायंस न्यू एनर्जी और एलएंडटी (L&T) जैसी कंपनियां ग्रीन हाइड्रोजन और बैटरी स्टोरेज में अरबों रुपये का निवेश कर रही हैं. इंफोसिस, टीसीएस और ग्रिड एज जैसी नई कंपनियां AI आधारित स्मार्ट ग्रिड सॉल्यूशन्स और ऊर्जा प्रबंधन सिस्टम बना रही हैं, जिन्हें आगे चलकर अन्य विकासशील देशों को निर्यात भी किया जा सकता है.
लेकिन भारत अभी भी पूरी तरह से तैयार नहीं है. जरूरी खनिजों की आपूर्ति व्यवस्था अभी कमजोर है. इलेक्ट्रिक वाहनों की पहुंच देशभर में एक बराबर नहीं है. नई स्वच्छ तकनीकों से जुड़ी स्टार्टअप कंपनियों को चीन या अमेरिका के मुकाबले शुरुआती निवेश कम मिल रहा है. सौर ऊर्जा वाले राज्यों में बिजली को बाहर भेजने का ढांचा भी पीछे है.
इसके अलावा, इस अवसर को पूरी तरह भुनाने के लिए काफी बड़ी मात्रा में पूंजी की जरूरत है. उद्योग से जुड़े अनुमान बताते हैं कि अगले पांच वर्षों में भारत को लगभग 2.5 लाख करोड़ से 3 लाख करोड़ रुपये (करीब 30 से 35 अरब डॉलर) की पूंजी जुटानी होगी, ताकि उत्पादन बढ़ाया जा सके, निर्यात क्षेत्रों का विकास किया जा सके और नई तकनीकों में जोखिम उठाने की क्षमता बनाई जा सके.
इसमें से ज्यादातर निवेश वैश्विक हरित पूंजी से आएगा, जैसे कि विदेशी सरकारी फंड, मिश्रित वित्त योजनाएं और पर्यावरण, सामाजिक और सुशासन पर केंद्रित इंफ्रास्ट्रक्चर ट्रस्ट.
यहीं पर अब सरकार की नीति को आगे आने की जरूरत है. अगर IREDA, NIIF, SBI और REC जैसे संस्थानों को मिलाकर एक नया ग्रीन इन्वेस्टमेंट प्लेटफॉर्म बनाया जाए, तो यह उन निवेशकों के लिए एक सिंगल विंडो (एक ही जगह पूरी सुविधा) बन सकता है, जो भारत के जलवायु से जुड़े ढांचे में भरोसे के साथ निवेश करना चाहते हैं.
इसके साथ ही PLI 2.0 योजना शुरू की जानी चाहिए, जिसमें ऊर्जा सॉफ्टवेयर, स्मार्ट ग्रिड, कार्बन ट्रैकिंग सिस्टम और AI आधारित ऊर्जा प्रबंधन जैसे क्षेत्र शामिल हों. ये वे क्षेत्र हैं जहां भारत को खासतौर पर बढ़त मिल सकती है.
गुजरात, तमिलनाडु, ओडिशा और महाराष्ट्र में ऐसे ग्रीन स्पेशल इकोनॉमिक जोन (Green SEZs) बनाए जा सकते हैं, जहां मंजूरी की प्रक्रिया तेज हो और निर्यात के लिए अलग कॉरिडोर भी हों.
इसके अलावा, एक 'क्लीन इनोवेशन माइग्रेशन वीजा' शुरू किया जा सकता है, ताकि अमेरिका से हटाए गए स्वच्छ तकनीक के उद्यमियों, इंजीनियरों और रिसर्चरों को भारत में आने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके. वे हैदराबाद, पुणे और बेंगलुरु जैसे भारत के इनोवेशन क्लस्टर में आकर अपना काम शुरू कर सकते हैं.
यह महज कल्पना नहीं है, बल्कि खुद अमेरिकी विशेषज्ञ मान रहे हैं कि इस बिल ने कितना बड़ी असर डाला है. 'सेंटर फॉर अमेरिकन प्रोग्रेस' नामक स्वतंत्र नीति संस्था के माइक विलियम्स ने कहा, "यह बिल अमेरिका की मौजूदा और भविष्य की मैन्युफैक्चरिंग को छोड़ देने जैसा है. इसने उन स्वच्छ उद्योगों में हो रहे निवेश को खत्म कर दिया है, जो देश के औद्योगिक विकास को आगे बढ़ा रहे थे. यह तो उन देशों के लिए तोहफा है, जो अपनी क्लीन-टेक ताकत को तेजी से बढ़ाने में लगे हुए हैं."
नेचुरल रिसोर्सेज डिफेंस काउंसिल (NDRC) के मनीष बपना कहते हैं, "यह फैसला पुराने जमाने की गंदी और महंगी तकनीकों को बढ़ावा देता है, जबकि स्वच्छ ऊर्जा में होने वाले निवेश को दबा रहा है, जो लाखों नौकरियां पैदा कर सकते थे. रिपब्लिकन पार्टी अब तेजी से बढ़ रही पवन और सौर ऊर्जा जैसी तकनीकों को सजा दे रही है, जिन्हें आसानी से बिजली ग्रिड में जोड़ा जा सकता है."
भारत को यह याद रखना चाहिए कि यह अवसर जितना बड़ा है, उतना ही नाज़ुक भी है. जो वैश्विक निवेशक अब अमेरिका की अस्थिर नीतियों से दूर जा रहे हैं, वे भारत के कदमों को बहुत ध्यान से देख रहे हैं. अगर भारत ने देरी की, योजनाओं में बिखराव आया या जरूरत से ज्यादा नियंत्रण किया गया, तो निवेशकों का भरोसा डगमगा सकता है.
इसी तरह अगर भारत अपने खुद के जलवायु लक्ष्यों से पीछे हटता है या स्वच्छ ऊर्जा बदलाव को राजनीतिक रंग देता है, तो उसकी साख को भी नुकसान हो सकता है.
लेकिन अगर भारत ध्यान केंद्रित रखे, तेजी से विस्तार करे और वैश्विक मंच पर एकजुट होकर बोले, तो वह सिर्फ बाजार हिस्सेदारी ही नहीं बल्कि नैरेटिव को तय करने की ताकत भी हासिल कर सकता है. 20वीं सदी में भारत हार्डवेयर क्रांति से चूक गया था और टेलीकॉम क्षेत्र में भी काफी देर से आगे आया.
लेकिन क्लीन-टेक की कहानी अलग हो सकती है. यह भारत के लिए पहला ऐसा मौका हो सकता है, जब वह किसी वैश्विक औद्योगिक बदलाव को आगे से नेतृत्व दे, तकनीकी रूप से, आर्थिक रूप से और कूटनीतिक रूप से.
अमेरिका का अपनी जलवायु कानून को कमजोर करने का फैसला इस ग्रह के लिए गंभीर परिणाम ला सकता है. लेकिन अनजाने में ही उसने एक चुनौती खड़ी कर दी है. अब भारत को तय करना है कि वह इस सदी की हरित औद्योगिक क्रांति का नेतृत्व करेगा या सिर्फ किनारे बैठकर देखता रहेगा.