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चीन की भारत के खिलाफ WTO में शिकायत व्यापार युद्ध है या कोई रणनीतिक कदम?

विश्व व्यापार संगठन (WTO) पहुंचे चीन ने इलेक्ट्रिक वाहनों के कलपुर्जों के लिए भारत की उत्पादन-आधारित प्रोत्साहन (PLI) योजनाओं को चुनौती दी है

India vs China Auto Sector
चीन ने WTO में शिकायत के जरिये भारत की प्रमुख औद्योगिक नीति पर सीधे निशाना साधा है
अपडेटेड 24 अक्टूबर , 2025

चीन ने 20 अक्टूबर को WTO में इलेक्ट्रिक वाहनों, एडवांस्ड केमेस्ट्री सेल और ऑटो पार्ट्स के लिए भारत की उत्पादन-आधारित प्रोत्साहन (PLI) योजनाओं के खिलाफ औपचारिक तौर पर शिकायत दर्ज कराई तो ये केवल एक व्यापारिक कदम नहीं था- बल्कि एक जियोपॉलिकल यानी भूराजनीतिक कदम भी था.

बीजिंग ने अपनी शिकायत में नई दिल्ली पर स्थानीय उत्पादन और घरेलू जरूरतों के सामान को सब्सिडी के साथ जोड़कर विदेशी निर्माताओं के साथ भेदभाव करने का आरोप लगाया है. इससे सवाल उठा है कि क्या भारत का महत्वाकांक्षी स्वच्छ-तकनीकी विनिर्माण अभियान उन वैश्विक व्यापार नियमों के अनुरूप है जिनका पालन करने का उसने वादा किया है.

यह पहला मौका है जब चीन ने WTO में शिकायत के जरिये भारत की प्रमुख औद्योगिक नीति पर सीधे निशाना साधा है. नई दिल्ली के लिए 14 क्षेत्रों तक फैली PLI योजना केवल एक प्रोत्साहन देने की योजना नहीं बल्कि औद्योगीकरण को बढ़ावा देने वाली एक रणनीतिक परियोजना है. इसे आयात निर्भरता घटाने, विनिर्माण क्षमता निर्माण और तेजी से उभरती ग्लोबल ग्रीन वैल्यू चेन में हिस्सेदारी बढ़ाने के उद्देश्य से डिजाइन किया गया है.

बीजिंग की तरफ से चुना गया समय खास मायने रखता है. भारत अपने राष्ट्रीय विनिर्माण मिशन को सुदृढ़ करने के अंतिम चरण में है, जिसमें ईवी, बैटरी, सौर मॉड्यूल और सेमीकंडक्टर जैसे स्वच्छ-तकनीक क्षेत्रों पर जोर दिया जा रहा है. चीन ने ये कदम इन महत्वपूर्ण तकनीकों और उनकी सप्लाई चेन पर नियंत्रण के लिए बढ़ती प्रतिस्पर्धा के बीच उठाया है. यही नहीं, यह ऐसा वक्त है जब डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन न केवल मौजूदा ग्लोबल वैल्यू चेन, जिस पर चीन का प्रभुत्व है- को निशाना बना रहा है बल्कि घरेलू मांग और इनोवेशन के लिए धन भी घटा रहा है.

वित्त वर्ष 2024-25 की शुरुआत से भारत में ईवी इकोसिस्टम गति पकड़ रहा है. ऑटो और बैटरी क्षेत्रों के लिए PLI से जुड़ी प्रतिबद्धताओं में 18,000 करोड़ रुपये से अधिक की मंजूरी पहले ही दी जा चुकी है. वहीं, चीन ग्रेफाइट, लिथियम कंपाउंड और गैलियम जैसे प्रमुख कच्चे माल पर निर्यात नियंत्रण कड़े कर रहा है, जबकि ऐसे खनिज उन तकनीकों के लिए महत्वपूर्ण हैं जिनका भारत स्वदेशीकरण करने का प्रयास कर रहा है. ऐसे में चीन की शिकायत न केवल स्वच्छ-तकनीक निर्माण में अपनी मजबूत स्थिति का बचाव कर रहा है, बल्कि ये भी आंकने की कोशिश कर रहा है कि भारत की नीति और औद्योगिक प्रतिक्रिया कितनी दृढ़ है.

जयपुर स्थित थिंक-टैंक कट्स इंटरनेशनल के महासचिव प्रदीप मेहता कहते हैं, “भारत की EV और बैटरी सप्लाई चेन चीन के निर्यात नियंत्रणों के प्रति संवेदनशील बनी हुई है, क्योंकि लिथियम और ग्रेफाइट के प्रोडक्शन और रिफाइनमेंट का काम अभी वहीं पर होता है. लेकिन संसाधन साझेदारी के विस्तार, रिसाइकिलिंग में निवेश और स्थानीय प्रसंस्करण केंद्रों का निर्माण करके भारत धीरे-धीरे वास्तविक विकल्प तैयार कर सकता है.”

चीन अभी भारत को हर साल (वित्त वर्ष 2024-25 के अनुमान के मुताबिक) 110 अरब डॉलर से अधिक मूल्य की वस्तुओं का निर्यात करता है, जबकि भारत बदले में बमुश्किल 14 अरब डॉलर का निर्यात करता है. यह असंतुलन बहुत कुछ दांव पर लगे होने को रेखांकित करता है. विश्व व्यापार संगठन के स्तर पर कोई भी टकराव, चाहे प्रतीकात्मक ही क्यों न हो, पहले से रणनीतिक अविश्वास और सप्लाई चेन से जुड़े जोखिमों से जूझते व्यापारिक संबंधों को और बिगाड़ सकता है.

डलबर्ग एडवाइजर्स के भारत प्रमुख जगजीत सरीन का मानना है कि WTO में की गई इस शिकायत का व्यावहारिक प्रभाव सीमित ही होगा. वे कहते हैं, “हालांकि, विश्व व्यापार संगठन के सामने शिकायत के कारण मौजूदा नीतियों में कुछ मामूली बदलाव जरूरी हो सकते हैं लेकिन इससे स्वच्छ प्रौद्योगिकी विकास की तरफ से बढ़ते भारत की गति में कोई खास बाधा आने की संभावना नहीं है. जैसे-जैसे भारत अंतरराष्ट्रीय व्यापार नियमों का व्यापक अनुपालन सुनिश्चित करता जाएगा, घरेलू इलेक्ट्रिक वाहन निर्माण बढ़ाने का उसका लक्ष्य पटरी पर बना रहेगा.” कमजोरियों के संबंध में सरीन कहते हैं, “महत्वपूर्ण खनिज संसाधनों पर एकाधिकार जैसी स्थिति के कारण भारत मौजूदा समय में अल्पकालिक जोखिमों का सामना कर रहा है. हालांकि, नरेंद्र मोदी सरकार सप्लाई चेन में विविधता लाकर, घरेलू खनिज प्रसंस्करण में निवेश बढ़ाकर, विनिर्माण क्षमता का विस्तार करके और नई वैकल्पिक तकनीकों की खोज करके इन जोखिमों को घटाने के लिए पूरी सक्रियता से काम कर रही है.”

सरीन कहते हैं, “डब्ल्यूटीओ की कार्रवाई को स्वच्छ-प्रौद्योगिकी क्षेत्र में बढ़ती वैश्विक प्रतिस्पर्धा के संदर्भ में देखा जाना चाहिए. भारत के लिए खासकर स्वच्छ प्रौद्योगिकी विनिर्माण पर ध्यान केंद्रित करते हुए राष्ट्रीय विनिर्माण मिशन के कार्यान्वयन में तेजी लाना दीर्घकालिक सफलता के लिए बेहद अहम होगा.”

WTO का अपीलीय निकाय 2019 में अमेरिका में ट्रंप प्रशासन के पहले कार्यकाल के दौरान नियुक्तियों से इंकार किए जाने के बाद से निष्क्रिय पड़ा है. इसलिए उसके जरिए विवादों का निपटारा लगभग अप्रासंगिक है. 2020 से 51 नए विवाद इसके समक्ष उठाए जा चुके हैं. हालांकि, शिकायतकर्ता देशों को अच्छी तरह पता है कि कोई अपीली रिव्यू नहीं होने वाला है, फिर भी विवाद निपटान समझौते (डीएसयू) की अपील करते हैं.

कुल मिलाकर शिकायत दर्ज करना और उसके बाद की पैनल कार्यवाही सिर्फ कूटनीतिक, वैधानिक और साख के लिहाज से ही महत्व रखती है. विभिन्न देश WTO का इस्तेमाल केवल किसी निर्णय पर पहुंचने के लिए नहीं बल्कि अपनी मंशा का संकेत देने, सहयोगियों को संगठित करने और सुनियोजित दबाव बनाने के लिए भी करते हैं. भारत के खिलाफ चीन के कदम को कानूनी उपाय करने का प्रयास कम, एक रणनीतिक संकेत देने की कवायद अधिक माना जा रहा है. ये अपनी आपत्तियां अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाने के अलावा नई दिल्ली की नीतिगत दृढ़ता की परीक्षा लेने और अनिश्चितता की भावना उत्पन्न करके निवेशकों को हतोत्साहित करने का एक तरीका है.

यह शिकायत एक व्यापक चीनी पैटर्न को भी दर्शाती है. हालिया महीनों में चीन ने गैलियम, जर्मेनियम और कुछ ग्रेफाइट ग्रेड पर निर्यात प्रतिबंध लगाए हैं. ये सभी EV बैटरियों और सेमीकंडक्टर के लिए जरूरी होते हैं. इस सख्ती ने पहले ही वैश्विक सप्लाई चेन को बाधित कर दिया है, और भारतीय कंपनियां वैकल्पिक स्रोत खोजने की कवायद में जुटने को मजबूर हुई हैं.
दूसरे शब्दों में कहें तो चीन की ताजा कार्रवाई एक साथ कई मोर्चों पर नियंत्रण रणनीति में एक कानूनी आयाम जोड़ती है-जिसका उद्देश्य स्वच्छ तकनीक पर अपना प्रभुत्व बनाए रखना है, जबकि भारत, अमेरिका और जापान जैसे देश विविधता लाने की कोशिश कर रहे हैं.

मेहता कहते हैं, “चीन की कार्रवाई व्यापारिक रणनीति और भारत के स्वच्छ-तकनीकी विकास को धीमा करने की रणनीतिक कोशिश दोनों ही है. भारत को एक बेहतरीन कूटनीतिक प्रतिक्रिया की जरूरत है. मसलन, सप्लाई के सोर्स में विविधता लाना, घरेलू रिफाइनमेंट और रिसाइकलिंग में तेजी लाना, और अगली पीढ़ी की बैटरी तकनीकों के विकास के लिए जापान और अमेरिका जैसे देशों के साथ सहयोग बढ़ाना.” वे आगे कहते हैं, “ये सिर्फ़ एक खतरा नहीं है. व्यावहारिक नीतिगत बदलावों के साथ भारत सप्लाई चेन मजबूत करके और किसी एक देश पर निर्भरता घटाकर अपनी स्वच्छ-तकनीकी प्रगति जारी रख सकता है.”

भारत के लिए आगे का रास्ता नीति और कूटनीति दोनों की स्थिरता में ही निहित है. हालांकि WTO की प्रक्रिया शुरू होने में महीनों लग सकते हैं लेकिन भारत के अपनी PLI योजना से पीछे हटने की संभावना नहीं है, क्योंकि यह उसकी आर्थिक और जलवायु रणनीति का प्रमुख आधार भी है. इसके बजाय, वह इसे लागू करने की भाषा को बेहतर बनाने, प्रोत्साहन वितरण में पारदर्शिता और घरेलू स्रोत विकल्पों में वृद्धि जैसे कदम उठा सकता है. मेहता कहते हैं, “ऐसी कोई संभावना नहीं है कि मामला WTO में पहुंचने से भारत की स्वच्छ तकनीक संबंधी कवायद पटरी से उतार जाए. टाटा और ओला इलेक्ट्रिक जैसी कंपनियां पहले ही इलेक्ट्रिक वाहनों और बैटरियों में भारी-भरकम निवेश कर रही हैं. भारत दीर्घकालिक स्थिरता लक्ष्यों को नजरअंदाज किए बिना अनुसंधान, इनोवेशन और स्थानीय मूल्य संवर्धन पर ध्यान केंद्रित करते हुए अपनी PLI योजनाओं में मामूली बदलाव कर सकता है.”

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