दुर्घटनाएं तो होती ही हैं. लेकिन अगर उन्हें रोक लिया जाए तो क्या फिर भी उन्हें दुर्घटनाएं ही कहा जाना चाहिए? यह क्रश्ड नाम की उस रिपोर्ट की थीम है जिसे दिल्ली-एनसीआर की गैर-लाभकारी संस्था सेफ इन इंडिया फाउंडेशन (एसआईआई) ने हाल में जारी किया था. इसमें शीर्ष 10 ऑटो कंपनियों की सप्लाई चेन में होने वाली चोटों का विश्लेषण किया गया है.
एसआईआई का अनुमान है कि समस्या जितनी व्यापक है, उसे देखते हुए पेशेगत सुरक्षा और स्वास्थ्य (ओएसएच) से जुड़े मुद्दों से संबंधित उत्पादकता नुकसान से भारत को सालाना 12.5 लाख करोड़ रुपये या राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 4.2 फीसदी की हानि होती है.
कुचलने से होने वाली चोटें मोटर वाहन क्षेत्र में आम हैं और इनके कारण अक्सर पावर प्रेस में काम करते समय कामगारों को अपनी उंगलियां गंवानी पड़ती हैं. ऐसे मजदूरों की संख्या 2019 में 334 थी जो 2022 में बढ़कर 866 और 2024 में 1,256 के उच्च स्तर पर पहुंच गईं. इन घटनाओं में आमतौर पर श्रमिक अपनी उंगलियां और दुर्लभ मामलों में हाथ तक खो देते हैं. इनके बारे में हरियाणा के गुरुग्राम-मानेसर-फरीदाबाद क्षेत्र और महाराष्ट्र के पुणे में एसआईआई के श्रमिक सहायता केंद्रों के जरिए जानकारी मिली.
एसआईआई से सहायता पाने वाले घायल श्रमिकों में से लगभग 98 फीसदी हरियाणा और महाराष्ट्र में मारुति सुजुकी (32 प्रतिशत), होंडा (16 प्रतिशत), हीरो (15 प्रतिशत), टाटा मोटर्स (15 प्रतिशत), महिंद्रा (15 प्रतिशत) और बजाज (5 प्रतिशत) की सप्लाई चेन के थे.
एक मजदूर राजेश कुमार, जिसके दाहिने हाथ में चोट लगी थी, ने बताया कि ज्यादातर चोटें शिफ्ट के आखिर में तब लगती हैं जब कोटा पूरा करने का दबाव बढ़ जाता है. उन्होंने कहा, "अगर कोई मजदूर मानक आठ घंटों में अपना निर्धारित कोटा पूरा नहीं करता तो उसे काम की गति बढ़ानी पड़ती है, जिससे दुर्घटनाओं और चोटों का खतरा काफी बढ़ जाता है."
कुमार ने यह भी बताया कि ठेकेदार अक्सर अप्रशिक्षित हेल्परों को मशीन ऑपरेटर के तौर पर लगा देते हैं. फैक्टरी सुपरवाइजर उनके कौशल की जांच करने के बजाय इन हेल्परों को खतरनाक मशीनें चलाने देते हैं जिससे अक्सर गंभीर चोटें लग जाती हैं.
एसआईआई में सुरक्षा प्रमुख वी.एन. सरोजा ने बताया कि इनमें से ज्यादातर चोटों को रोका जा सकता था. चौंकाने वाले 91 फीसदीमामलों में सुपरवाइजरों ने खराब मशीनों के बारे में श्रमिकों की चेतावनी को नजरअंदाज कर दिया था. वास्तव में 94 फीसदी चोटें उन मशीनों पर हुईं जिनमें सेंसर नहीं लगे थे. खराब रख-रखाव एक और बड़ा कारण था. 50 फीसदी श्रमिकों ने बताया कि मशीनों का निरीक्षण केवल चोट लगने या खराब होने के बाद ही किया जाता था.
कंचन शर्मा का ही उदाहरण लीजिए. मार्च 2024 में उनका बायां हाथ कुचलने से चोट लग गई थी, मुख्य रूप से इसलिए कि उन्हें यह नहीं बताया गया था कि मशीन की चाबी अक्सर अटक जाती है. उन्होंने कहा, "मेरे काम करते समय चाबी जाम हो गई जिससे मशीन अचानक नीचे गिर गई और मेरे हाथ में चोट लग गई. डाई सेटर, सुपरवाइजर और प्रबंधन को पहले से ही इस समस्या के बारे में पता था, फिर भी किसी ने मुझे आगाह नहीं किया."
सरोजा ने कहा कि चिंताजनक यह है कि इन हादसों को कम करके बताया जाता है जबकि कार्य स्थल पर सभी तरह की चोटों की जानकारी संबंधित राज्य के श्रम विभाग को देना वैधानिक तौर पर जरूरी होता है और उन्हें दुर्घटना रजिस्टर भी बनाना होता है. 2022 में हरियाणा में केवल 48 दुर्घटनाओं की आधिकारिक तौर पर सूचना दी गई जबकि एसआईआई ने उस वर्ष 1,053 घायल श्रमिकों की सहायता की - यह संख्या आधिकारिक आंकड़े से 20 गुना अधिक है.
इसके अलावा 10 से अधिक श्रमिकों (या कुछ राज्यों में 20) को रोजगार देने वाले सभी कारखाने कर्मचारी राज्य बीमा (ईएसआई) अधिनियम, 1948 के तहत आते हैं. इसके तहत नियोक्ताओं को 21,000 रुपये प्रति माह से कम कमाने वाले मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना जरूरी होता है. हालांकि, रिपोर्ट में पाया गया कि 1,085 से अधिक घायल श्रमिकों को दुर्घटना के बाद ही ईएसआईसी ई-पहचान कार्ड मिले और सिर्फ 684 के ही पास चोट से पहले ये कार्ड थे. वकील गौरव जैन ने बताया कि जब गुणवत्ता की बात आती है, तो ऑटोमोबाइल ब्रांड (मूल उपकरण निर्माता यानी ओईएम) जरूरत के अनुसार आपूर्ति श्रृंखला के अंदर तक जाते हैं. वे कहते हैं, "अगर गुणवत्ता के लिए ऐसी भागीदारी संभव है तो श्रमिकों की सुरक्षा के लिए भी यह उतनी ही मुमकिन है."
जैन कहते हैं कि अंतरराष्ट्रीय कानून, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के फैसलों के तहत नियोक्ता का यह कानूनी दायित्व है. "अगर ओईएम अपनी सप्लाई चेन के जिन स्तरों पर गुणवत्ता नियंत्रण लागू कर सकती हैं तो श्रमिकों की सुरक्षा की जिम्मेदारी और दायित्व भी उन स्तरों तक बढ़ सकता है."
मारुति सुजुकी के पूर्व एक्जीक्यूटिव ललित जैन ने कहा कि यह समस्या मानसिकता से भी जुड़ी है जिसमें सुरक्षा को लागत के रूप में देखा जाता है. वह कहते हैं, "कुछ बड़े, मझोले और छोटे आपूर्तिकर्ताओं ने महसूस किया है कि सुरक्षा एक निवेश है, खर्चा नहीं. कई लोग अभी भी सुरक्षा उपकरण, सेंसर और गार्डों को ऐसे खर्च के रूप में देखते हैं जो मुनाफे को खा जाते हैं. यह पुरानी मानसिकता भारतीय उद्योग में आम है."