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सीपी राधाकृष्णन बनाम बी सुदर्शन रेड्डी : कैसे पहचान और विचारधारा की लड़ाई बना उपराष्ट्रपति चुनाव

विपक्षी गठबंधन इंडिया ब्लॉक ने एनडीए उम्मीदवार सी.पी. राधाकृष्णन के मुकाबले सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस बी. सुदर्शन रेड्डी को मैदान में उतारकर उपराष्ट्रपति चुनाव को पहचान और विचारधारा की लड़ाई बना दिया है

B sudershan reddy vs Radhakrishnan vp elections
बी सुदर्शन रेड्डी (बाएं); सीपी राधाकृष्णन (दाएं)
अपडेटेड 20 अगस्त , 2025

बीजेपी ने जहां तमिलनाडु के अनुभवी राजनेता और महाराष्ट्र के राज्यपाल सी.पी. राधाकृष्णन को उपराष्ट्रपति चुनाव के लिए एनडीए (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) का उम्मीदवार घोषित करके इस मुकाबले को प्रतीकात्मक तौर पर पहचान की राजनीति का रूप देने की कोशिश की है. 

वहीं विपक्षी गठबंधन इंडिया ब्लॉक ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस बी. सुदर्शन रेड्डी को मैदान में उतारकर एक ऐसे चुनाव का मंच तैयार कर दिया है जिसे दोनों पक्ष एक वैचारिक लड़ाई के तौर पर पेश कर रहे हैं.

तमिलनाडु के टेक्सटाइल हब कहलाने वाले तिरुप्पुर में 1957 में जन्मे राधाकृष्णन बेहद कम उम्र में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के साथ गहराई से जुड़ गए थे. इसी वजह से वे राज्य में बीजेपी के शुरुआती संयोजकों में शुमार रहे. 1990 के दशक के मध्य तक उन्होंने पार्टी के एक जाने-माने नेता के तौर पर अपनी पहचान स्थापित कर ली थी. 1996 में बीजेपी को राज्य में अपना पहला विधायक मिला. दो साल बाद अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम (अन्नाद्रमुक) के साथ गठबंधन करके पार्टी ने तीन लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की.

कोयंबटूर में राधाकृष्णन की जीत खासी महत्वपूर्ण रही, क्योंकि ये ऐसी स्थिति में हासिल हुई थी जब कुछ समय पहले ही शहर सांप्रदायिक तनाव से जूझ रहा था. इसने बीजेपी को उस राज्य में पहली बार पैर जमाने का मौका दिया जहां वह अब तक अपने विस्तार के लिए संघर्ष कर रही है. राधाकृष्णन गौंडर समुदाय से आते हैं, जो उनका राजनीतिक कद और मजबूत करता है क्योंकि ये पश्चिमी तमिलनाडु का एक प्रभावशाली समूह है. जहां अन्नाद्रमुक और बीजेपी दोनों ही अपने वर्चस्व का दावा करते हैं.

राधाकृष्णन ने 1998 और 1999 में लगातार दो बार लोकसभा में कोयंबटूर का प्रतिनिधित्व किया. 2004 में उन्हें तमिलनाडु बीजेपी का अध्यक्ष बनाया गया, जिस पद पर वह 2007 तक काबिज रहे. बाद में उनके राजनीतिक करियर की दिशा बदली, उन्हें पहले झारखंड और फिर महाराष्ट्र का राज्यपाल की नियुक्त किया गया.

उपराष्ट्रपति चुनाव के लिए राधाकृष्णन को नामित करना बीजेपी की तमिल पहचान को साधने की कोशिश को दर्शाता है. इसके पीछे पार्टी नेताओं का इरादा विरोधी दल द्रविड़ मुनेत्र कषगम (डीएमके) के लिए एक असहज स्थिति उत्पन्न करना रहा है. जैसा, बीजेपी युवा शाखा अध्यक्ष एस.जी. सूर्या के सवाल से भी जाहिर होता है कि क्या डीएमके इस पद के लिए “किसी तमिल” का समर्थन करेगी.

राधाकृष्णन की उम्मीदवारी की घोषणा से कुछ दिन पहले मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन के साथ उनकी मुलाकात को लेकर भी कई तरह की अटकलें लगाई गईं. हालांकि, इसे मुख्यमंत्री के स्वास्थ्य के बारे में जानकारी लेने के लिए एक शिष्टाचार भेंट बताया गया था. लेकिन अब इस मुलाकात को राजनीतिक लिहाज से बेहद अहम माना जा रहा है.

कुछ जानकारों की राय में डीएमके के लिए एक दुविधा की स्थिति उत्पन्न हो गई है कि वह किसी तमिल उम्मीदवार का समर्थन करे या बीजेपी का विरोध करे. लेकिन पार्टी के अंदरूनी सूत्रों ने इसे खारिज करते हुए कहा कि डीएमके के लिए मुद्दा पहचान का नहीं, बल्कि विचारधारा का है. पार्टी सूत्रों का कहना है कि राधाकृष्णन अपने पूरे राजनीतिक करियर के दौरान संघ से घनिष्ठता से जुड़े रहे हैं, इसलिए उन्हें लेकर किसी तरह की दुविधा जैसी कोई स्थिति नहीं है.

कांग्रेस सांसद मणिकम टैगोर ने भी कुछ इसी तरह की राय जाहिर करते हुए कहा, “चाहे वो किसी भी क्षेत्र विशेष से आते हों या कोई भी भाषा बोलते हों, ये बात ध्यान में रखनी होगी कि सी.पी. राधाकृष्णन संघ से जुड़े हैं.” साथ ही, उम्मीद जताई कि विपक्षी गठबंधन बीजेपी के उम्मीदवार के खिलाफ पूरी तरह एकजुट रहेगा.

हालांकि, तमिलनाडु बीजेपी के मुख्य प्रवक्ता नारायणन तिरुपति इसे एक ‘गलती’ करार देते हैं. तिरुपति का कहना है, “डीएमके हमेशा से ही तमिल विकास और तमिल गौरव की बात करता रहा है. इसलिए, हम उनसे उपराष्ट्रपति चुनाव में सी.पी. राधाकृष्णन जैसे वरिष्ठ तमिल नेता के लिए समर्थन की उम्मीद करते हैं. लोकतंत्र में विपक्ष को चुनाव लड़ने का अधिकार है लेकिन हमें इस चुनाव में जीत का पूरा भरोसा है.”

तिरुपति आगे कहते हैं कि बीजेपी का “तमिल कनेक्शन स्पष्ट दिखाई देता है. तमिलसाई सुंदरराजन को तेलंगाना का राज्यपाल बनाया गया; एल. गणेशन और वी. षणमुगनाथन को राज्यपाल बनाया गया, और राधाकृष्णन खुद महाराष्ट्र के राज्यपाल हैं. वनाथी श्रीनिवासन बीजेपी की महिला इकाई की राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. केंद्र सरकार तमाम योजनाओं और नियुक्तियों में राज्य को महत्व देती रही हैं. हालांकि, तमिलनाडु सरकार अक्सर आरोप लगाती है कि राज्य के साथ पक्षपात हो रहा है लेकिन तथ्य कुछ और ही तस्वीर बयां करते हैं.”

कुछ समय के लिए विपक्ष भी तमिल कार्ड खेलता दिखा जब द्रमुक के वरिष्ठ राज्यसभा सदस्य तिरुचि शिवा का नाम उम्मीदवारी के लिए चर्चा में आया. इसे देखते हुए लग रहा था कि इंडिया ब्लॉक भी बीजेपी के साथ पहचान की प्रतीकवादी राजनीति के मुकाबले में उतरना चाहता है.

बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट में प्रगतिशील संदर्भों का रिकॉर्ड रखने वाले न्यायविद जस्टिस सुदर्शन रेड्डी को मैदान में उतारकर विपक्ष शायद यह दिखाने की कोशिश कर रहा है कि ये लड़ाई क्षेत्रीय प्रतीकवाद से कहीं ज्यादा संवैधानिक मूल्यों की है. तेलंगाना के रहने वाले जस्टिस रेड्डी को एक ऐसे उम्मीदवार के तौर पर देखा जा रहा है जो अपनी विश्वसनीय और ईमानदार छवि के साथ सभी दलों में स्वीकार्य भी हैं.

फिर भी, संसद में संख्याबल के मामले में बीजेपी का पलड़ा ही भारी है. लेकिन विपक्ष के लिए उपराष्ट्रपति चुनाव का नतीजा उतना ज्यादा मायने नहीं रखता. आखिरकार, ये चुनाव सिर्फ इसलिए अहम नहीं है कि राज्यसभा में सभापति कौन होगा. बल्कि इसलिए ज्यादा महत्वपूर्ण है कि इसके इर्द-गिर्द क्या नैरेटिव गढ़ा जा सकता है. सांस्कृतिक केंद्रीकरण के विरोध का लंबा इतिहास रखने वाला तमिलनाडु एक बार फिर राष्ट्रीय बहस के केंद्र में है.

- कविता मुरलीधरन

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