भारत की जनगणना-2027 के पहले चरण की प्री-टेस्ट प्रक्रिया 10-30 नवंबर 2025 तक सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के चुनिंदा नमूना क्षेत्रों में होगी. रजिस्ट्रार जनरल और सेंसस कमिश्नर मृत्युंजय कुमार नारायण ने 31 अक्टूबर को गजट अधिसूचना में कहा कि 1-7 नवंबर तक स्व-गणना का विकल्प भी उपलब्ध होगा.
कई बार टलने के बाद, आखिरकार 25 जून 2025 को भारत सरकार ने जनगणना शुरू करने की घोषणा की थी, जिससे देश उस शर्मनाक स्थिति से बच गया जब ‘जनगणना 2021’ के छूट जाने को ‘Leap Decade of Census’ कहा जा रहा था. खास बात ये है कि जनगणना 2027 भारत की पहली डिजिटल जनगणना होगी. यह सरकार के उस वादे को दोहराने का मौका है कि ‘विकसित भारत 2047’ की दिशा में कोई भी पीछे नहीं छूटेगा.
भारत का चुनावी अभ्यास करीब 96.8 करोड़ वोटरों को शामिल करता है, जबकि जनगणना 2027 में 1.45 अरब लोगों की गिनती होगी-जो 6.7 लाख गांवों तक फैली होगी. इसका पैमाना चीन की 2020 की जनगणना जितना बड़ा है. 2027 तक भारत को अपनी पिछली विस्तृत विकलांगता जनगणना किए 17 साल हो चुके होंगे. इसलिए दिव्यांग समुदाय में चिंता है कि इस बार भी उनके मुद्दे पिछड़े वर्गों और महिलाओं के आरक्षण की बहस के बीच कहीं गुम न हो जाएं.
भारत अगर 1.85 अरब डीबीटी (Direct Benefit Transfer ) लाभार्थी, 1.38 अरब आधार नामांकन, 81 करोड़ पीएम-गरीब कल्याण योजना लाभार्थी, 49 करोड़ यूपीआई उपयोगकर्ता, 30.2 करोड़ घर, 85 फीसदी टेली-डेंसिटी (65 करोड़ स्मार्टफोन उपयोगकर्ता), 30 करोड़ पशुधन, 121.8 करोड़ टेलीफोन सब्सक्राइबर, 55 करोड़ जनधन खाते और 55 करोड़ आयुष्मान भारत कार्डधारक गिन सकता है, तो फिर दिव्यांग आबादी को गिनने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए.
2011 की जनगणना में भारत में 2.68 करोड़ (2.21 फीसदी ) दिव्यांग दर्ज किए गए थे, जबकि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे (NFHS-5) ने इसे 4.52 फीसदी और WHO ने करीब 15 फीसदी बताया है. प्रशासनिक कमजोरी इस बात से झलकती है कि 2015 से अब तक सिर्फ 1 करोड़ UDID (Unique Disability Card) जारी हुए हैं, जबकि दिव्यांगों की कुल संख्या 2.28 करोड़ गिनी गई.
यह कहना कि भारत दिव्यांगों के मुद्दे पर गंभीर नहीं है, बिल्कुल सही नहीं है. कई बातें साफ दिखाती हैं कि देश इस दिशा में लगातार काम कर रहा है. भारत ने WHO की इंटरनेशनल क्लासिफिकेशन ऑफ फंक्शनिंग, डिसएबिलिटी ऐंड हेल्थ (ICF 2001) को अपनाया, UN कन्वेंशन ऑन राइट्स ऑफ पर्सन्स विद डिसएबिलिटीज (सीआरपीडी) पर 2007 में हस्ताक्षर किए, और 2015 में सतत विकास लक्ष्य (SDG) को भी मंजूरी दी. देश के भीतर भी कई अहम कानून बनाए गएः रिहैबिलिटेशन काउंसिल ऑफ इंडिया ऐक्ट (1992), नेशनल ट्रस्ट्स ऐक्ट (1999), राइट्स ऑफ पर्सन्स विद डिसएबिलिटीज (RPWD) ऐक्ट (2016) और मेंटर हेल्थ केयर ऐक्ट (2017). इसके अलावा, नेशनल पॉलिसी फॉर पर्सन्स विद डिसएबिलिटीज (2006) बनी, जिसे अब अपडेट किया जा रहा है.
CPWD की गाइडलाइन्स ऐंड स्टैंडर्ड्स फॉर यूनिवर्सल एक्सेसिबिलिटी (2021) और UDID प्रोजेक्ट भी इसी दिशा में शुरू किए गए ताकि हर दिव्यांग व्यक्ति को एक पहचान और जरूरी सुविधाएं मिल सकें. भारत ने वॉशिंगटन ग्रुप ऑन डिसएबिलिटी स्टैटिस्टिक्स की बैठकों और वर्कशॉप में हिस्सा लिया, जिसने WG-SS (वॉशिंगटन ग्रुप शॉर्ट सेट) तैयार किया. साथ ही एक्सेसेबल इंडिया कैंपेन (सुगम्य भारत अभियान, 2015) और हार्मोनाइज्ड एक्सेसिबिलिटी गाइडलाइन्स 2021 भी शुरू किए, ताकि सार्वजनिक जगहों, परिवहन और डिजिटल प्लेटफॉर्म को दिव्यांगों के लिए ज्यादा आसान और सुलभ बनाया जा सके.
क्या दिव्यांगों के मुद्दे वाकई मायने रखते हैं?
आर्थिक दृष्टि से देखें तो दिव्यांगों को नजरअंदाज करना भारत को भारी पड़ रहा है. टाइम्स ऑफ इंडिया (31 जनवरी 2025) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दिव्यांगों को रोजगार और अर्थव्यवस्था से बाहर रखने की वजह से देश को हर साल करीब 4.5 लाख करोड़ रुपए का नुक्सान हो रहा है, जो जीडीपी का करीब 4 फीसदी है. असल में यह आंकड़ा और भी ज्यादा हो सकता है, क्योंकि 2024-25 की 330.68 लाख करोड़ रुपए जीडीपी के आधार पर असली नुकसान करीब 13.23 लाख करोड़ रुपए बैठता है.
वर्ल्ड बैंक ने भी ऐसे ही देशों में जीडीपी का 3 से 7 फीसदी नुकसान इसी वजह से बताया है. भारत में 15 से 59 साल की उम्र वाले दिव्यांग लोगों में सिर्फ 23.8 फीसदी को ही रोजगार मिला है, जबकि गैर-दिव्यांगों में यह आंकड़ा 50 फीसदी है (NSS 76वां राउंड, 2018).
निजी क्षेत्र में तो हालत और भी खराब हैः सिर्फ 0.4 फीसदी दिव्यांग लोगों को नौकरी मिली है, जबकि सरकारी नौकरियों में 3 से 4 फीसदी आरक्षण तय है (ILO, 2021). RPWD ऐक्ट के तहत सरकार ने समान अवसर नीति को बढ़ावा दिया है, लेकिन ज्यादातर प्राइवेट कंपनियों के पास अब भी दिव्यांग कर्मचारियों के लिए कोई ठोस नीति नहीं है. यही वजह है कि रोजगार के मौके सीमित रह जाते हैं और दिव्यांग आबादी आर्थिक रूप से पीछे रह जाती है.
शिक्षा के क्षेत्र में दिव्यांगों की स्थिति
2011 की जनगणना के मुताबिक देश के 2.68 करोड़ दिव्यांगों में से 46
फीसदी लोग निरक्षर हैं. यानी हर दो में से एक दिव्यांग व्यक्ति पढ़ना-लिखना नहीं जानता. UDISE+ (2021–22) के अनुसार, स्कूलों में सिर्फ 22.5 लाख दिव्यांग बच्चे दाखिल हैं, जो कुल विद्यार्थियों का 1 फीसदी से भी कम है. 6 से 17 साल के बच्चों में सिर्फ 61.2 फीसदी दिव्यांग बच्चे स्कूल जाते हैं, जबकि गैर-दिव्यांग बच्चों में यह आंकड़ा 90 फीसदी है (NSS, 2018). यूनेस्को (2019) की रिपोर्ट बताती है कि 5 से 19 साल के 75 फीसदी दिव्यांग बच्चे स्कूल नहीं जाते, और सिर्फ 8.5 फीसदी ही सेकंडरी एजुकेशन पूरी कर पाते हैं.
संकट के समय में तो हालात और खराब हो जाते हैं, जैसे कोविड-19 के दौरान 75 फीसदी दिव्यांग बच्चों ने पढ़ाई छोड़ दी. इसके पीछे दो बड़ी वजहें हैंः सहायक उपकरणों की कमी (सिर्फ 10 फीसदी बच्चों के पास ये उपलब्ध हैं, यूनिसेफ के अनुसार) और प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी, जिसकी वजह से समावेशी शिक्षा योजनाएं जैसे सर्व शिक्षा अभियान के व्यक्तिगत शिक्षा योजना या होम-बेस्ड स्कूली सिस्टम ठीक से काम नहीं कर पाते.
मेथडॉलजी में बदलाव की जरूरत
2011 की जनगणना में इस्तेमाल किए गए पुराने और मेडिकल नजरिए वाले सवालों ने कई तरह की विकलांगताओं को नजरअंदाज कर दिया था, खासकर मानसिक और मनो-सामाजिक विकलांगता जैसी अदृश्य स्थितियों को. सर्वे करने वाले कर्मचारी भी ठीक से प्रशिक्षित नहीं थे, और न ही उन्होंने ब्रेल या साइन लैंग्वेज का इस्तेमाल किया. नतीजा यह हुआ कि विकलांगता के कई पहलू दर्ज ही नहीं हुए. अब वक्त है कि भारत भी दुनिया के 80 से ज्यादा देशों की तरह वॉशिंगटन ग्रुप शॉर्ट सेट
मॉडल अपनाए.
इस मॉडल में सवाल इंसान की कार्यक्षमता पर फोकस करते हैं, जैसे — “क्या आपको चश्मा लगाने के बाद भी चीजें देखने में परेशानी होती है?” या “क्या आपको चलने, सुनने या बोलने में दिक्कत होती है?”. यह तरीका आंकड़ों को सिर्फ मेडिकल डेटा नहीं, बल्कि मानवीय अनुभव के रूप में समझता है. यह सर्वे को ज्यादा संवेदनशील और सहानुभूतिपूर्ण बनाता है. इससे सरकार को ऐसी बारीक और सटीक जानकारी मिलती है, जो सही नीतियां बनाने में मदद करती है, जैसा कि कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील और न्यूजीलैंड जैसे देशों ने दिखाया है.
दुनियाभर के अनुभव से क्या सीखा जा सकता है
कनाडा : यहां हर पांच साल में जनगणना होती है. 2021 की जनगणना और 2022 के कनाडा सर्वे ऑन डिसएबिलिटीज में WG-SS मॉडल का इस्तेमाल किया गया. इसमें 22 फीसदी दिव्यांग आबादी सामने आई (2017). इसी डेटा की मदद से एक्सेसिबिलिटी कनाडा ऐक्ट लागू हुआ.
ऑस्ट्रेलिया : यहां के सर्वे ऑफ डिसएबिलिटी, एजिंग ऐंड केयरर्स (SDAC, 2018) ने 18.3 फीसदी विकलांगता दर दर्ज की. इसी आधार पर सरकार ने 22 अरब डॉलर का नेशनल डिसएबिलिटी इंश्योरेंस स्कीम (NDIS) शुरू किया, जिससे 5 लाख दिव्यांग लोगों को सीधा फायदा मिला.
यूनाइटेड किंगडम (यूके): WG-SS सर्वे (2021) में 19 फीसदी दिव्यांग आबादी दर्ज की गई. इस डेटा ने इक्वलिटी ऐक्ट 2010 को लागू करने में अहम भूमिका निभाई.
अमेरिका : यहां अमेरिकन कम्युनिटी सर्वे (ACS) में फंक्शनल सवाल पूछे जाते हैं, इससे दिव्यांगों के खिलाफ भेदभाव रोकने वाले कानून और मजबूत हुए.
न्यूजीलैंड : यहां WG-SS और घरेलू सर्वे के जरिए दिव्यांग सेवाओं की पहुंच और गुणवत्ता में सुधार किया गया.
ब्राजील: 2022 की जनगणना में अपनाए गए फंक्शनल मॉडल ने शिक्षा सुधारों की दिशा तय की.
चीन : यहां 6.34 फीसदी (करीब 8.29 करोड़) दिव्यांग आबादी दर्ज हुई, जो WHO के ICF मानकों से मेल खाती है.
भारत: भारत में भी कुछ सकारात्मक प्रयोग हुए हैं, जैसे केरल (2014-15) और सेलम, तमिलनाडु (2025) में किए गए सर्वे. इन सर्वे में घर-घर जाकर 22 तरह की विकलांगताओं का आकलन किया गया. इससे ये साफ हुआ कि सही मेथडॉलजी अपनाई जाए तो भारत में भी दिव्यांग कल्याण योजनाओं को काफी हद तक बेहतर बनाया जा सकता है.
जनगणना 2027 के लिए ऐक्शन प्लान क्या हो सकता है
मेथडॉलजी अपडेट करें : भारत पहले से ही WG-SS मॉडल का हिस्सा है, इसलिए उसी के सवालों को अपनाया जाए. इन्हें RPWD ऐक्ट की 21 विकलांगता कैटेगरी के साथ मिलाया जाए. सर्वे के लिए मिक्स्ड मोड अपनाया जाए, घर-घर जाकर सर्वे और ई-जनगणना (जैसे चीन ने वीचैट से की). जनगणना के बाद डेटा की जांच के लिए पोस्ट-सर्वे सिस्टम (कनाडा की तरह) लागू किया जाए.
सर्वे करने वालों की प्रोफेशनल ट्रेनिंग: सभी गणनाकारों को WG-SS की ट्रेनिंग दी जाए. दिव्यांग लोगों को भी गणनाकार के रूप में भर्ती किया जाए (यूके मॉडल की तरह). साथ ही आंगनवाड़ी, आशा और स्वयं सहायता समूहों की वर्कर्स को भी जोड़ा जाए.
डेटा को सभी के लिए सुलभ बनानाः डेटा कलेक्शन में ब्रेल, भारतीय सांकेतिक भाषा (ISL) और स्क्रीन रीडर फ्रेंड्ली फॉर्मेट्स का इस्तेमाल हो. डेटा को CRPD मानकों के अनुसार अलग-अलग श्रेणियों में बांटा जाए. एआइ और आधार लिंक्ड पोर्टल्स से डेटा को जोड़ा जाए और गांव स्तर पर रजिस्टर बनाए जाएं, जैसे आयुष्मान भारत या प्रधानमंत्री आवास योजना (पीएमएवाइ) में होता है.
स्टेकहोल्डर एंगेजमेंट: दिव्यांग समुदाय तक पहुंच बनाने के लिए एनजीओ, सिविल सोसाइटी और कम्युनिटी बेस्ड ऑर्गेनाइजेशन (CBO) के साथ साझेदारी की जाए. पंचायत स्तर पर टास्क फोर्स बनाई जाएं ताकि हाशिए के समूहों की भागीदारी सुनिश्चित हो सके.
इनोवेशन: सेलम मॉडल की तरह मिनी-सेंसस पायलट प्रोजेक्ट्स चलाए जाएं. रियल-टाइम डैशबोर्ड का इस्तेमाल हो ताकि डेटा तुरंत मॉनिटर किया जा सके. ‘प्राइवेसी शील्ड’ व्यवस्था लागू की जाए ताकि लोग अपनी विकलांगता की जानकारी सुरक्षित तरीके से दे सकें. डिसएबिलिटी इंटर्नशिप कोर बनाई जाए और सबसे अच्छा काम करने वाले जिलों व ब्लॉक्स को पुरस्कृत किया जाए.
सिर्फ आंकड़े जुटाने का काम नहीं, भारतीय जनगणना जैसी विशाल कवायद में दिव्यांग लोगों की जिंदगी बदलने की अपार संभावना है. अगर इसे सही दिशा में इस्तेमाल किया जाए, तो यह उनकी जिंदगी को कठिन और संघर्षभरी होने से बचा सकती है.
उम्मीद है कि जनगणना 2027 से ऐसी नीतियों को ताकत मिलेगी जो दिव्यांग लोगों के स्कूली शिक्षा, रोजगार, और स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाएंगी, और उनके दैनिक जीवन की गुणवत्ता बढ़ाएंगी. यह जनगणना भारत को मौका देगी कि वह दिव्यांग नागरिकों को वही दे, जिसे डॉक्टर अपने मरीजों के इलाज में कहते हैं, TLC (Tender, Love, Care) यानी संवेदना, सम्मान और सच्ची देखभाल. इससे दुनिया को भी यह संदेश जाएगा कि भारत और भारतवासी अपने दिव्यांग नागरिकों की परवाह करते हैं.
- सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता सुशील कुमार रिटायर्ड आईएएस अधिकारी हैं और केंद्र सरकार में सचिव रह चुके हैं

