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बुलेटप्रूफ गाड़ी भी क्यों नहीं बचा पाई बाबा सिद्दीकी को? आखिर क्या है बुलेटप्रूफिंग का सारा गणित?

बाबा सिद्दीकी जिस कार में बैठे थे, वह बुलेटप्रूफ थी फिर भी गोलियां उसे पार कर गईं. इसके बाद से भारत में बुलेटप्रूफ गाड़ियों में सुरक्षा को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं

बाबा सिद्दीकी (दाएं), बुलेटप्रूफ गाड़ी (बाएं - सांकेतिक तस्वीर)
अपडेटेड 18 अक्टूबर , 2024

12 अक्टूबर की रात नौ बजे के करीब महाराष्ट्र के पूर्व मंत्री और एनसीपी नेता बाबा सिद्दीकी को मुंबई में तब गोली मार दी गई जब वो अपने दफ्तर से लौट रहे थे. लीलावती अस्पताल पहुंचते ही उनकी मौत की पुष्टि कर दी गई. तमाम खबरों के बीच आपने टीवी पर बाबा सिद्दीकी की उस गाड़ी का फुटेज भी देखा होगा जिसमें उन्होंने दम तोड़ा था.

ये रेंज रोवर गाड़ी थी. इसके सामने वाले शीशे के दाहिने कोने में गोली से बना एक छेद था. लेकिन बाबा सिद्दीकी की गाड़ी बुलेट प्रूफ बताई जा रही थी. ऐसे में जो सबसे अहम सवाल है कि गोली शीशे के पार कैसे गई? और क्या इसके लिए विशेष तकनीकी जानकारी हत्यारों को मिली?

इन सवालों का जवाब खोजने से पहले इन बातों को समझना भी कम दिलचस्प नहीं है कि बुलेटप्रूफिंग क्या होती है. भारत में बुलेटप्रूफ गाड़ी का बाज़ार क्या है? कैसे तैयार होती है बुलेटप्रूफ गाड़ी? क्या बुलेटप्रूफिंग के बाद भीतर बैठा शख्स पूरी तरह सुरक्षित माना जा सकता है?

तो सबसे पहले ये समझ लेते हैं कि अगर आप भारत में रहते हैं और आपको किसी से 'जान का खतरा' है तो अपनी गाड़ी को कैसे आप एक 'सुरक्षित' बुलेटप्रूफ गाड़ी में बदल सकते हैं.

कैसे ले सकते हैं बुलेटप्रूफ गाड़ियां

इसके दो तरीके हैं. पहला ये कि BMW, Audi या Nissan जैसे कम्पनियां अपने एक खास सेक्शन के तहत बुलेटप्रूफ गाड़ियां बनाकर बेचती हैं. तो आप इन गाड़ियों को इम्पोर्ट करवा सकते हैं या इनकी डीलरशिप से ऑर्डर कर सकते हैं. लेकिन इसमें एक पेच है. वो ये कि इन गाड़ियों को सड़कों के वर्ल्ड स्टैण्डर्ड के हिसाब से तैयार किया जाता है. ऐसे में जौनपुर के कोई कालीन भईया अगर 'देसी मानक' वाली किसी सड़क पर फंस गए तो जान जाने का खतरा रहेगा. इसलिए ज्यादातर लोग भारत में ही गाड़ी खरीदकर उसे बुलेटप्रूफ बनवाने में भरोसा रखते हैं.

तो दूसरा तरीका ये है कि आप कोई एसयूवी खरीदें. उसे लेकर किसी ऐसी कंपनी के पास जाएं जो बुलेटप्रूफिंग करती हो. वहां जाकर आपको उनके कई सवालों के जवाब देने होंगे काम शुरू होने से पहले. जैसे कि आपको खतरा किस तरह के लोगों से है? ये सवाल इसलिए क्योंकि जौनपुर के किसी बालू के ठेकेदार और इंटरनेशनल डिफेन्स सप्लाई कॉन्ट्रेक्टर के खतरे बराबर नहीं होते. बालू के ठेकेदार पर अगर कभी हमला हुआ तो छोटे कैलिबर के हथियारों की आशंका ज्यादा होगी, लेकिन डिफेन्स सप्लाई कॉन्ट्रेक्टर पर होने वाले हमले में हथियारों का ग्रेड बदल जाएगा. इसलिए दोनों को अपनी गाड़ियों में अलग-अलग लेवल की सिक्योरिटी और फीचर चाहिए होंगे.

आपकी प्रोफाइलिंग करने के बाद कंपनी आपसे आपकी गाड़ी लेगी और काम शुरू करेगी. भारत में बुलेटप्रूफिंग कम्पनियां अपने आपको 'आर्मर्ड व्हीकल प्रोवाइडर' कहलाना पसंद करती हैं. बीते कुछ सालों में दुनिया भर में बुलेटप्रूफ कारों की मांग बढ़ी है. ऐसे में कई कंपनियां गाड़ियों को बुलेटप्रूफ बनाने के उद्योग में उतर गई हैं. ये कंपनियां, SUV और सेडान क्लास की बुलेटप्रूफ कारों के अलावा, आर्मी और अन्य फोर्सेज के लिए भी बख्तरबंद वाहन और बैंकों के लिए कैश वैन वगैरह बनाती हैं.

शील्ड आर्मरिंग प्राइवेट लिमिटेड  मुंबई बेस्ड एक कंपनी है, जो गाड़ियों को बख्तरबंद बनाने का काम करती है. इसी तरह, महिंद्रा एमीरेट्स व्हीकल आर्मरिंग और द आर्मर्ड ग्रुप जैसी कई और कंपनियां हैं जो बड़े पैमाने पर ये काम करती हैं.

कैसे बुलेटप्रूफ बनती है कोई गाड़ी 

अगर आपने किसी गाड़ी के बुलेटप्रूफ होने का प्रोसेस नहीं देखा है तो आपको भी वही भ्रम होगा जो आमतौर पर लोगों को होता है. भ्रम ये कि गाड़ी पर जिस तरह कलर प्रोटेक्टिव फिल्म या रैप किया जाता है वैसे ही बुलेटप्रूफ बनने की प्रक्रिया भी होगी. लेकिन ऐसा नहीं है. बुलेटप्रूफ बनाने की प्रक्रिया शुरू होती है बाजार से खरीदी गई गाड़ी के पुर्जे अलग करने से. आइए आपको स्टेप बाई स्टेप बताते हैं कि ये काम कैसे किया जाता है.

डिसेंबलिंग : सबसे पहले उस गाड़ी को डिसेम्बल करने का काम किया जाता है जिसे बुलेटप्रूफ बनाया जाना है. मतलब गाड़ी के दरवाजे, उसका फ्रंट और बैक ग्लास, चारों पहिए, छत और पैनल सब कुछ खोलकर निकाल दिया जाता है. गाड़ी उस हालत में आ जाती है जिसमें कंपनी ने उसका चेसिस बनाया होता है. गाड़ी का बुनियादी खांचा ही रह जाता है.

आर्मरिंग इन्स्पेक्शन : अब गाड़ी की जांच की जाती है जिसमें सभी पैनल्स और इंजन कम्पार्टमेंट भी शामिल होते हैं. कहां-कहां बुलेटप्रूफिंग में दिक्कत आ सकती है, ये नोट किया जाता है. इसमें बहुत बारीकी से माप ली जाती है. इसके बाद की जाती है स्पेसिंग. यानी पूरी गाड़ी में भीतर से बुलेटप्रूफ मटीरियल फिट करने के लिए जगह बनाई जाती है. फिर होती है कस्टम फिटिंग. इस स्टेप में गाड़ी के हर कोने के लिए स्टील की शीट काट कर तैयार की जाती है.

अपर प्रोफाइलिंग : इसके तहत गाड़ी ने बाहर की तरफ एक खास तरह की शीट लगाईं जाती है. जिन पर गोली सबसे पहले टकराती है. भीतर के पैनल पर लगने से पहले इस शीट से होकर निकलने पर गोली की स्पीड में कमी आ जाती है. जिससे भीतर की तरफ लगाया हुआ पैनल गोली आसानी से रोक लेता है.

रूफ शील्डिंग : सबसे पहले गाड़ी की छत पर शील्डिंग की जाती है क्योंकि सामने के शीशे के बाद यही गाड़ी का सबसे कमजोर हिस्सा होता है. इसमें छत को अंदर से कई परतों की शील्ड लगाकर तैयार किया जाता है.

वेल्डिंग : जिन शीट्स को पैनलों के हिसाब से काटकर तैयार किया गया है अब उन्हें गाड़ी के भीतर से पैनलों और खांचों पर वेल्डिंग करके जोड़ा जाता है.

फ्लोर शील्डिंग : गाड़ी के फर्श पर इस तरह से शील्डिंग की जाती है गाड़ी के फर्श की ऊंचाई पर कोई असर ना पड़े और केबिन में बैठने वाले के लिए जगह की कमी ना हो. आमतौर पर ये प्रोसेस इस बात पर निर्भर करता है कि कस्टमर को 'ग्रेनेड सिक्योरिटी' चाहिए या नहीं. गाड़ी के फ्लोर को सबसे ज्यादा खतरा ग्रेनेड या देसी बम से होता है इसलिए फ्लोर को ऊपर नीचे कई लेयर की स्टील शीट से कवर किया जाता है.

लूप होल कवरिंग : इस प्रोसेस में गाड़ी के उन हिस्सों को कवर किया जाता है जो सुरक्षा में चूक बन सकते हैं. जैसे, दो दरवाजों के बीच जो जगह होती है वहां, इंजिन और कम्पार्टमेंट के बीच की जगह.

टायर प्रूफिंग : दुनिया की कोई भी गाड़ी कितनी भी बुलेटप्रूफ क्यों न हो, अगर हमले के वक्त वो जहां की तहां खड़ी हो जाए तो हमलावर अपनी फायर पावर का अंत तक इस्तेमाल करके भीतर बैठे टार्गेट तक पहुंच सकते हैं. क्योंकि गाड़ी का शीशा हो या दरवाजे, ये एक सीमा तक ही गोलियों को रोक सकते हैं. लगातार सैकड़ों राउंड गोलियां झेलने लायक सिर्फ टैक्टिकल व्हीकल होते हैं जो फौज या पैरामिलिट्री के पास होते हैं. लेकिन ये व्हीकल किसी ऐसे इलाके से गुजरने के लिए बनाए जाते हैं जहां हमला होने की पूरी आशंका होती है. इन्हें रेगुलर सफर के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता क्योंकि बहुत ज्यादा आर्मरिंग की वजह से इनकी एक तय लेकिन बहुत धीमी स्पीड होती है. 

इसलिए बुलेटप्रूफिंग में टायरों का बहुत ज्यादा महत्त्व होता है. खास मटीरियल से बने ट्यूबलेस टायर जिनमें गोलियां भीतर नहीं जा सकतीं लगाए जाते हैं. टायरों के सस्पेंशन भी बुलेट प्रूफ बनाए जाते हैं. कुल मिलाकर हमले के समय गाड़ी का मूवमेंट टायरों की वजह से ब्लॉक ना हो इस बात का खयाल रखना होता है. ताकि हमले से निकलकर भीतर बैठा शख्स वहां पहुंच सके जहां से उसे मदद मिलने वाली हो.

विंडशील्ड प्रूफिंग : गाड़ी पर हमले के 90 प्रतिशत मामलों में सबसे पहली गोली गाड़ी के शीशे पर चलती है इसलिए बुलेटप्रूफिंग  की प्रोसेस में गाड़ी का वो ओरिजिनल शीशा निकाल कर बाहर कर दिया जाता है. इसकी जगह शीशे की तरह ही पारदर्शी मटेरियल का इस्तेमाल किया जाता है.

साधारण ग्लास के बीच में पॉलीकार्बोनेट मटेरियल की लेयर डालने से एक सैंडविचनुमा चीज तैयार होती है. पॉलीकार्बोनेट मटेरियल प्लास्टिक टाइप का होता है. ये पॉलीकार्बोनेट मटेरियल मजबूत होने के साथ थोड़ा फ्लैक्सिबल भी होता है. ऐसे ही कई साधारण ग्लास और पॉलीकार्बोनेट की लेयर चढ़ाकर बुलेटप्रूफ ग्लास तैयार होता है. इसे ग्लास के ऊपर लेमिनेट करना कहते हैं. इससे बुलेटप्रूफ ग्लास की मोटाई काफी ज्यादा हो जाती है. कस्टमर को जिस स्तर की सिक्योरिटी चाहिए उस हिसाब से इसकी मोटाई घटा बढ़ा सकते हैं. आम तौर पर सिविलियंस को B6 और B7 लेवल का बुलेटप्रूफ प्रोटेक्शन दिया जाता है. B6 लेवल पर 41 मिलीमीटर का बैलिस्टिक ग्लास, जबकि B7 लेवल पर 78mm का बैलिस्टिक ग्लास लगा होता है.

एक बात और ध्यान देने वाली है कि बुलेट प्रूफ गाड़ी बनाने का कारोबार करने वाले किसी भी शख्स ने 'बुलेटप्रूफ ग्लास' जैसा शब्द इस्तेमाल नहीं किया. इसकी जगह वो लोग कहते हैं 'बुलेट रेजिस्टेंस ग्लास.' मतलब ये ग्लास गोली के प्रभाव को कम करता है. लेकिन अगर एक ही जगह लगातार फायरिंग होगी तो वहां गोली के निकलने भर की जगह होनी तय है. 

असेम्बलिंग : गाड़ी के पार्ट-पुर्जे खोलने से शुरू हुआ ये प्रोसेस आखिर में उसी तरह पार्ट्स को जोड़ने से खत्म होता है. गाड़ी को दोबारा ऐसे ही पेंट किया जाता है जिससे वो अपनी तरह की गाड़ियों के बीच अलग से पहचान में न आए. अगर काफिले में ऐसी ही कई गाड़ियाँ हों तो हमलावर इस बात का अंदाजा ना लगा पाए कि टार्गेट किस गाड़ी में बैठा है.

बुलेटप्रूफिंग के बाद माइलेज और परफॉर्मेंस पर क्या असर पड़ता है

भारत में गाड़ियां बिकती हैं माइलेज और परफॉर्मेंस के दम पर. एक गाड़ी के विज्ञापन की टैगलाइन ही थी 'कितना देती है?' मतलब कितना माइलेज देती है गाड़ी. लेकिन जिस आदमी को बुलेटप्रूफ गाड़ी की जरूरत है उसके लिए माइलेज वो चीज है जिसका ख़याल उसे शायद ही आए. बुलेटप्रूफ गाड़ी का कस्टमर माइलेज की चिंता करने वाले आम भारतीय से अलग होगा. फिर भी हम इस प्रोसेस के बाद गाड़ी के माइलेज पर आए असर की बात कर लेते हैं. क्या बुलेटप्रूफ होने के बाद गाड़ी के माइलेज पर असर पड़ता है? जी हां, बिल्कुल पड़ता है. 

बुलेटप्रूफ बनाने की प्रोसेस में गाड़ियों का वजन काफी बढ़ जाता है. ऐसे में गाड़ियों का वजन ज्यादा बढ़ाए बिना, उन्हें बुलेटप्रूफ बनाना बड़ी चुनौती होती है. किसी छोटी सेडान क्लास गाड़ी पर सबसे कम स्तर की बुलेटप्रूफिंग की जाए तो भी करीब 200 किलो से ज्यादा का वजन बढ़ जाता है. और अगर ठीक-ठाक स्तर की बुलेटप्रूफिंग की जाए तो 1000 किलो से ज्यादा वजन बढ़ जाएगा. इस बढ़े हुए वजन के कारण गाड़ी का माइलेज कई गुना घट जाता है. साथ ही गाड़ी की मैक्सिमम स्पीड भी घट जाती है. 

गाड़ी को बुलेटप्रूफ बनाने के धंधे में कम्पनियां इस बात का खूब प्रचार करती हैं कि 'कम से कम वज़न में ज्यादा से ज्यादा सिक्योरिटी' कौन उपलब्ध करवाता है. जैसे हर चाट के ठेले वाला अपने एक सीक्रेट मसाले को अपनी सफलता का श्रेय देता है वैसे ही सफल बुलेटप्रूफिंग कंपनी बैलेस्टिक नायलॉन, क्रोमेटिन, फायर टेल्कर जैसे किसी मटीरियल का जिक्र करती हैं जिसकी वजह से उनकी गाड़ियां हल्की तो होती हैं लेकिन सुरक्षा भरपूर होती है.

कम्पनियां इस मटीरियल के बारे में साफ नहीं बतातीं लेकिन ये जरूर कह देती हैं कि बरसों के लैब टेस्ट के बाद ये मटीरियल उन्होंने डिवेलप किया है. इसे और वजनदार बनाने के लिए वो किसी ऐसी लैब का जिक्र करती हैं जो यूएस सील कमांडो, एमआई सिक्स, पैरा कमांडो ग्रुप या किसी एलीट फोर्स के लिए डिफेन्स सप्लाई या रिसर्च का काम करती हों.

भारत में बुलेटप्रूफिंग की ऐसी कई बड़ी कम्पनियों में से एक 'मार्क 4' के मालिक तनुज आहूजा बताते हैं,  "इस धंधे में भरोसा सबसे बड़ी चीज़ है. कस्टमर नहीं चाहते कि उनका नाम सामने आए. गाड़ी या उसके मालिक की प्रोफाइल अगर लीक हो जाए तो उसकी जान को खतरा हो सकता है. उसके दुश्मन अगर ये जान जाएं कि गाड़ी पर किस लेवल की बुलेटप्रूफिंग करवाई गई है तो उसके हिसाब से फायर पावर का इस्तेमाल करेगा, इसलिए हम किसी भी हाल में किसी कस्टमर की डीटेल्स किसी से शेयर नहीं करते और ना ही उसका कोई रिकॉर्ड अपने पास रखते हैं."

ये पूछने पर कि सामान्य से कहीं ज्यादा वजन के लिए तो गाड़ी का इंजन तैयार नहीं होता? तनुज जानकारी देते हैं, "गाड़ी के बिल्कुल नए इंजन को हम दोबारा खोल कर उसे वापस असेम्बल करते हैं. कई बार कस्टमर के सामने अगर बजट इश्यु न हो तो गाड़ी में ज्यादा पावर का नया इंजन विदेश से मंगाकर लगाया जाता है. जैसे टोयोटा फॉर्चुनर जब हमारे पास से बुलेटप्रूफ होकर निकलेगी तो उसमें कंपनी का सिर्फ चेसिस नंबर ही ओरिजिनल रह जाता है. बाकी सब कुछ हम दोबारा बनाकर फिट करते हैं."

इस तरह इंजन बदलने में कितना खर्च आ जाता है? तरुण हंसते हुए कहते हैं, "बस ये समझ लीजिए कि जितने की फॉर्चुनर होगी उतने का तो उसका सिर्फ इंजिन बदलकर लगाया जाता है." मतलब पचास लाख रुपए की गाड़ी को बुलेटप्रूफ बनवाने का ख़र्च करोड़ों में आता है. लेकिन ये खर्च इसलिए कंपनी या कस्टमर को हैरान नहीं करता क्योंकि ये कोई आम जरूरत नहीं है और बात जिंदगी बचाने की है, वो जिंदगी जो बहुत ताकतवर और असरदार है.

तो बाबा सिद्दीकी के मामले में ऐसा क्यों नहीं हुआ?

सवाल वाजिब है कि इसी तरह की तैयारी महाराष्ट्र के नेता बाबा सिद्दीकी ने भी की होगी. उनकी रेंज रोवर भी बुलेट प्रूफ थी. लेकिन इस बुलेट प्रूफ रेंज रोवर की विंड शील्ड पर एक गोली का निशान था जो क्लीन था. बुलेट प्रूफिंग की दुनिया में क्लीन मतलब, गोली उस पार निकल गई थी. ऐसा बहुत कम देखा जाता है. इस बात से बुलेट प्रूफिंग की दुनिया में भी खलबली मची. ये इकलौती गोली, कईयों का करोड़ों का धंधा खत्म करने का माद्दा रखती है. अगर ऐसे ही गोली उस पार निकल जानी है तो इतनी सिरदर्दी और ऐसा भारी खर्च कोई क्यों करवाए? 

इस बात का जवाब हमें किसी बुलेट प्रूफिंग कंपनी से नहीं मिलता. हर कोई इशारा करता है कि इसमें तो पुलिस ही कुछ बता सकती है. पुलिस किसी चालू जांच और ऐसे हाई प्रोफाइल मामले में इतने तकनीकी सवाल पर क्यों बोलेगी? इसलिए हमने संपर्क किया भारत की इंटेलिजेंस एजेंसी के एक ऐसे एजेंट से जो बरसों से फील्ड ऑपरेशन हैंडल कर रहे हैं.

जाहिर तौर पर इनकी पहचान बताई नहीं जा सकती. लेकिन वो बताया जा सकता है जो इन्होने हमसे साझा किया. इनका कहना है, "सबसे पहले तो बाबा सिद्दीकी का मर्डर इंटेलिजेंस फेल्योर है. ये हर उस इंसान की नाकामी है जो फोर्स या इंटेलिजेंस से जुड़ा था और उसकी वर्क प्रोफाइल में बांद्रा या मुंबई है. क्योंकि महाराष्ट्र पुलिस की लोकल इंटेलिजेंस यूनिट (एलआईयू) का काम ही लगातार नजर रखना और किसी असामान्य मूवमेंट को ट्रैक करना है. बाबा सिद्दीकी एक हाई वैल्यू टार्गेट थे ये बात सबको मालूम थी. उनके मर्डर की प्लानिंग में फील्ड एक्टिविटी जुड़ी हुई थी. रेकी और पीछा हुआ. ये सब खुफिया रिपोर्ट में आना चाहिए था. एक ट्रेंड एजेंट या ऑपरेटर की नज़र से इस तरह की एक्टिविटी छुपी नहीं रह सकती."

इस बात को थोड़ा और विस्तार से समझाने की दरख्वास्त पर वे बताते हैं, "जैसे कि हत्यारे नए थे और उन्होंने ग्लॉक पिस्टल का इंतजाम कर लिया. ये पिस्टल इतनी भीड़ वाले रूट से नहीं जुगाड़ी जा सकती जो नोटिस ना हो. इस तरह के हथियार का एक स्पेसिफिक रूट है, तय सप्लायर हैं और वो करीबन सारे इंटेलिजेंस के रडार पर रहते हैं. बिल्कुल नए लोगों का एकदम से ऐसे सप्लायर तक पहुंचना रेड फ्लैग था जिसे वक्त रहते पकड़ा जाना था."

बुलेटप्रूफ गाड़ी के ग्लास से निकले क्लीन शॉट पर किए गए सवाल पर उन्होंने कोई जानकारी देने से इसलिए इंकार कर दिया क्योंकि मामला सेंसिटिव है. हालांकि इस बात पर हमने हथियारों के जानकार और भारतीय सेना से रिटायर्ड कर्नल प्रमोद सिंह से बात की जिन्होंने बताया, "अगर बुलेट प्रूफ गाड़ी से पहली बार में गोली पार जा रही है तो इसका एक ही मतलब हो सकता है. वो ये कि उस शीशे से पार पाने की तैयारी की गई थी. आप दुश्मन के खिलाफ कोई स्ट्रेटेजी कैसे बनाते हैं? उसकी ताकत के हिसाब से ही न? तो शीशे की जानकारी, उसके बुलेटप्रूफ ग्रेड की जानकारी हत्यारों के पास पहले से थी ऐसा अंदाजा लगाया जा सकता है. बाकी जांच में ही मालूम चलेगा कि असलियत क्या थी."

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