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बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे का बयान सुप्रीम कोर्ट की अवमानना है या नहीं?

भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना पर बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे के बयान को कुछ लोग अवमानना, जबकि कुछ लोग महज आलोचना बता रहे हैं.

निशिकांत दुबे मामले में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होगी
निशिकांत दुबे मामले में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होगी
अपडेटेड 22 अप्रैल , 2025

19 अप्रैल को बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे ने कहा, "इस देश में हो रहे सभी गृहयुद्धों के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ही जिम्मेदार हैं." इसके साथ ही उन्होंने कहा, “ सुप्रीम कोर्ट अपनी सीमाओं से परे जा रहा है. अगर हर चीज के लिए सुप्रीम कोर्ट जाना पड़ता है तो संसद और राज्य विधानसभा को बंद कर देना चाहिए.”

सांसद निशिकांत दुबे के इस बयान को सुप्रीम कोर्ट की अवमानना बताया जा रहा है. उनके खिलाफ कार्रवाई की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर हुई. 21 अप्रैल को इसपर सुनवाई करते हुए जस्टिस बी.आर. गवई ने याचिकाकर्ता से पूछा कि आप क्या चाहते हैं?

इस पर वकील ने कहा, मैं अवमानना ​​का केस दर्ज करवाना चाहता हूं. जस्टिस गवई ने कहा कि आप इसे दाखिल कीजिए. आपको हमारी अनुमति की जरूरत नहीं है. आपको अटॉर्नी जनरल से मंजूरी लेनी होगी. 

लेकिन, क्या आपको पता है कि सुप्रीम कोर्ट की अवमानना क्या है और क्या इस मामले में सुप्रीम कोर्ट खुद कार्रवाई नहीं कर सकता है, अगर यह अवमानना का मामला है तो निशिकांत दुबे पर सुप्रीम कोर्ट कार्रवाई क्यों नहीं कर रहा? 

पूर्व एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ऑफ इंडिया सिद्धार्थ लूथरा और सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता के जरिए इस पूरे मामले को समझते है.

क्या जजों या CJI के खिलाफ बोलना अवमानना कहलाता है?

नहीं, सुप्रीम कोर्ट, भारत के मुख्य न्यायाधीश  या अन्य जजों पर टिप्पणी करना अपने आप में अपराध नहीं है, क्योंकि भारत के संविधान का अनुच्छेद 19(1)(A) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है. 

हालांकि, इस स्वतंत्रता पर अदालत की अवमानना कानून (कंटेंप्ट ऑफ कोर्ट एक्ट, 1971) के तहत कुछ सीमाएं हैं, जो कोर्ट की गरिमा और न्यायिक प्रक्रिया की अखंडता की रक्षा करती हैं. 

इसके अलावा संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत कुछ पाबंदियां भी लगाई गई हैं. जैसे कि न्यायपालिका की गरिमा, सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता. इन मुद्दों पर संभलकर बोलने की अपेक्षा की जाती है. 

संतुलित, तथ्यपरक और सम्मानजनक आलोचना अपराध की श्रेणी में नहीं आती. लेकिन कोई टिप्पणी कोर्ट की अवमानना के दायरे में आती है, तो यह अपराध माना जा सकता है.  

क्या निशिकांत दुबे का बयान अवमानना है या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता?

पूर्व एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ऑफ इंडिया सिद्धार्थ लूथरा का कहना है कि इस तरह के बयान कंटेंप्ट यानी अवमानना है. निशिकांत दुबे जी काफी पुराने नेता हैं और उन्हें भी पता होगा कि उनके बयान सही और शोभनीय नहीं हैं. 

सुप्रीम कोर्ट ने भी इससे जुड़े याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि पहले अटॉर्नी जनरल से अनुमति लीजिए. मतलब साफ है कि सुप्रीम कोर्ट ने ये दिखाने की कोशिश की है कि चाहे कितना भी ताकतवर आदमी हो, लेकिन इस तरह के बयान से कोर्ट पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है. कोर्ट न्याय देने का अपना काम जारी रखेगा.

वहीं, एडवोकेट विराग गुप्ता का कहना है कि कंटेंप्ट ऑफ कोर्ट एक्ट 1971 की धारा-2सी में आपराधिक अवमानना का मामला चलाने के लिए तीन बातों का जिक्र है- 

पहला- कोई बयान जिससे न्यायालय को कलंकित करने की कोशिश की गई हो, दूसरा- न्यायिक मामले में अनुचित हस्तक्षेप, तीसरा- बयान से न्यायिक व्यवस्था और प्रशासन में बाधा और हस्तक्षेप पैदा हो.

निशिकांत दुबे का बयान कानून के इन तीनों प्रावधानों के लिहाज से आपराधिक अवमानना की श्रेणी में आएगा. कानून में साल 2006 में हुए संशोधन के मुताबिक बयान की सत्यता के आधार पर अवमानना की कार्रवाई का विरोध किया जा सकता है.

सुप्रीम कोर्ट ने पी. एन. डूडा बनाम शिवशंकर मामले (1988) और एस. मुगोलकर (1978) मामले में कहा था कि अदालत की आलोचना मात्र से अवमानना की कार्रवाई शुरु नहीं हो सकती.

संविधान के अनुच्छेद-19 (1) (A) में सांसद निशिकांत दुबे समेत सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार हासिल है, लेकिन यह अधिकार अनुच्छेद-19 (2) से सीमित होता है.

उसमें साफ लिखा है कि न्यायालय की अवमानना के मामलों में अभिव्यक्ति की आजादी का मौलिक अधिकार हासिल नहीं है. 
सुप्रीम कोर्ट ने उड़ीसा हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार मामले के फैसले (1973) में कहा है कि जज के खिलाफ दुर्भावनापूर्ण आरोप और गाली-गलौज के मामले में अवमानना की कार्रवाई होनी चाहिए.

बीजेपी सांसद का बयान सिविल या क्रिमिनल अवमानना के दायरे में आता है?

साल 1971 में बने अवमानना से जुड़े कानून में पहली बार साल 2006 में बदलाव किया गया. इस संशोधन में दो बिंदु जोड़े गए ताकि जिसके खिलाफ अवमानना का मामला चलाया जा रहा हो, उसके बयान की 'सच्चाई' और 'नीयत' को भी ध्यान में रखा जाए.

इस कानून में अवमानना को दो हिस्से में बांटा गया- 1.फौजदारी, 2. गैर फौजदारी यानी ‘सिविल’ और क्रिमिनल कंटेंप्ट.

'सिविल कंटेंप्ट' के तहत वो मामले आते हैं, जिसमें अदालत के किसी व्यवस्था, फैसले या निर्देश का उल्लंघन साफ दिखता हो. 'क्रिमिनल कंटेंप्ट' के दायरे वो मामले आते हैं जिसमें 'स्कैंडलाइजिंग द कोर्ट' यानी अदालत को बदनाम करने या उसके सम्मान को क्षति पहुंचाना वाली बात आती हो. 

अवमानना के दोषी पाए जाने पर छह महीने तक की जेल की सजा जुर्माने के साथ या इसके बगैर भी हो सकती है. इसी कानून में ये भी प्रावधान है कि अभियुक्त के माफी मांगने पर अदालत चाहे तो उसे माफ कर सकती है.

सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता का कहना है कि निशिकांत दुबे का बयान आपराधिक अवमानना के दायरे में आता है. वहीं, सिद्धार्थ लूथरा का कहना है कि चाहे जिस भी नजरिए से देखें ये बयान अवमानना तो है.

अगर बीजेपी सांसद का बयान अवमानना है तो सुप्रीम कोर्ट कार्रवाई क्यों नहीं कर रहा?

एडवोकेट विराग गुप्ता के मुताबिक निशिकांत दुबे ने सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस खन्ना के खिलाफ आरोप लगाए हैं, जो न्यायपालिका के सर्वोच्च मुखिया होने के साथ मास्टर ऑफ रोस्टर भी हैं.

प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के आधार पर जस्टिस खन्ना अपने खिलाफ लगाए गए आरोपों के मामले में सुनवाई नहीं कर सकते. जस्टिस खन्ना अगले महीने रिटायर हो रहे हैं और जस्टिस बी. आर. गवई अगले चीफ जस्टिस होंगे.

पहले दिन इस याचिका की सुनवाई के वक्त जस्टिस गवई की पीठ ने कहा कि याचिकाकर्त्ता वकील को अटॉर्नी जनरल के पास अर्जी देनी चाहिए. अगले दिन जब याचिकाकर्त्ता ने कहा कि अटॉर्नी जनरल से अनुमति नहीं मिल रही है तो फिर अगले सप्ताह इस मामले में न्यायिक सुनवाई के लिए जस्टिस गवई की पीठ राजी हो गई है. 

इस बीच में अगर अटॉर्नी जनरल की तरफ से अनुमति या रिजेक्ट करने का कोई पत्र मिलता है तो उसके अनुसार सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के तथ्य और न्यायिक आधार बदल जाएंगे.

क्या सुप्रीम कोर्ट को बीजेपी सांसद पर कार्रवाई के लिए अटॉर्नी जनरल से मंजूरी लेनी होगी?

नहीं, एडवोकेट विराग गुप्ता भी बताते हैं कि विजय कुर्ले फैसले (2019) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अवमानना की कार्रवाई शुरु करने के लिए अटॉर्नी जनरल की अनुमति अनिवार्य नहीं है. अवमानना के मामले में सुप्रीम कोर्ट को 4 तरह से विशेष अधिकार हासिल हैं.

पहला- अनुच्छेद-129 के तहत सुप्रीम कोर्ट को अवमानना की कार्रवाई करने का संवैधानिक अधिकार मिला है. 
दूसरा- अनुच्छेद-19 (2) के अनुसार अवमानना के मामलों में कोई भी व्यक्ति अभिव्यक्ति की आजादी की दुहाई नहीं दे सकता. 
तीसरा- कंटेंप्ट ऑफ कोर्ट एक्ट-1971 की धारा-2ए में सिविल अवमानना और 2-बी में आपराधिक अवमानना की कार्रवाई शुरु करने का सुप्रीम कोर्ट को अधिकार है.
चौथा- कंटेंप्ट ऑफ कोर्ट एक्ट की धारा-15 के अनुसार अटॉर्नी जनरल की अनुमति के बाद भी सुप्रीम कोर्ट में अवमानना की कार्रवाई शुरु हो सकती है.

सुप्रीम कोर्ट को अगर लगता है कि निशिकांत दुबे या किसी ने भी उसकी अवमानना की है, तो वह स्वत: संज्ञान लेकर उस व्यक्ति के खिलाफ अवमानना की कार्रवाई कर सकता है. संविधान का अनुच्छेद 129 सुप्रीम कोर्ट को और अनुच्छेद 215 हाई कोर्ट को ऐसा करने का अधिकार देता है. 
अवमानना के मामले में अगर कोई वकील या आम जनता कार्रवाई की मांग करती है तभी उसे अटॉर्नी जनरल से मंजूरी लेनी होती है. अटॉर्नी जनरल की परमीशन का उद्देश्य मामले की मेरिट को जांचना और कोर्ट के समय की बचत करना है.

वहीं, पूर्व एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ऑफ इंडिया सिद्धार्थ लूथरा का कहना है कि अगर कोर्ट के सामने अवमानना हो तो कोर्ट उसी वक्त एक्शन ले लेता है. लेकिन, जब कोई याचिका देकर अवमानना की मांग करता है तो इसी प्रोसेस को फॉलो करना होता है. 

क्या निशिकांत दुबे के खिलाफ अटॉर्नी जनरल केस चलाने की अनुमति देंगे? 

एडोवोकेट गुप्ता का मानना है कि संविधान के अनुच्छेद-76 में अटॉर्नी जनरल देश के सर्वोच्च विधि अधिकारी हैं. कंटेंप्ट ऑफ कोर्ट एक्ट-1971 के अनुपालन के लिए रुल्स टू रेगुलेट प्रोसिडिंग्स फॉर कंटेंप्ट ऑफ द सुप्रीम कोर्ट-1975 के नियम बनाए गए हैं.

नियम-3-बी के अनुसार अटॉर्नी जनरल की सलाह पर अवमानना की कार्रवाई हो सकती है, लेकिन नियम-3-ए के तहत सुप्रीम कोर्ट सू-मोटो और नियम-3-सी के तहत किसी अन्य व्यक्ति की याचिका पर अवमानना की कार्रवाई शुरु की जा सकती है.

अवमानना का नोटिस जारी करने से पहले नियम-5 के तहत सुप्रीम कोर्ट में प्राथमिक सुनवाई होगी. उसके बाद नियम-10 के तहत सुप्रीम कोर्ट, अटॉर्नी जनरल या सॉलिसिटर जनरल से अवमानना से जुड़े मामले में न्यायिक मदद के लिए आग्रह कर सकता है.

अवमानना कानून कब बना और आंबेडकर ने इसे जरूरी क्यों बताया था? 

मई 1949 को संविधान सभा में बहस के दौरान सुप्रीम कोर्ट के काम-काज करने के तौर-तरीके और अधिकार दिए जाने के मुद्दे पर बहस हो रही थी. सभी लोग अपने-अपने विचार रख रहे थे. 

इस दौरान अनुच्छेद 108 के तहत संविधान सभा में सुप्रीम कोर्ट अवमानना से जुड़े कानून को पेश किया गया. पक्ष और विपक्ष के तर्क सुनने के बाद सभा ने इस कानून पर अपनी सहमति दी और संविधान के अनुच्छेद 129 में इससे जुड़े कानून को शामिल कर लिया गया.  

चर्चा के दौरान कुछ सदस्यों ने अवमानना के मुद्दे पर सवाल उठाया. उनका तर्क था कि अवमानना का मामला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए रुकावट का काम करेगा.

आंबेडकर ने विस्तार से सुप्रीम कोर्ट को इस अनुच्छेद के ज़रिये अवमानना का स्वतः संज्ञान लेने के अधिकार की चर्चा करते हुए इसे जरूरी बताया था.

मगर संविधान सभा के सदस्य आर.के. सिधवा का कहना था कि ये मान लेना कि जज इस कानून का इस्तेमाल विवेक से करेंगे, उचित नहीं होगा.
उनका कहना था कि संविधान सभा में जो सदस्य पेशे से वकील हैं वो इस कानून का समर्थन कर रहे हैं जबकि वो भूल रहे हैं कि जज भी इंसान हैं और गलती कर सकते हैं. हालांकि, इन सबके बावजूद सभा की सहमति मिली और अवमानना पर कानून बन गया.

क्या आज के समय में इस तरह के अवमानना कानून की जरूरत है?

पूर्व एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ऑफ इंडिया सिद्धार्थ लूथरा का कहना है कि ये कानून संसद ने बनाया है. मतलब साफ है कि देश के नेताओं और संसद को लगा कि इस कानून की जरूरत है, तभी इसे बनाया गया है. 

वहीं, एडवोकेट विराग के मुताबिक 8 मार्च 2018 में कानून मंत्रालय के न्याय विभाग ने विधि आयोग को पत्र लिखकर कंटेंप्ट कानून में बदलाव के लिए सुझाव मांगे थे. केंद्र सरकार के अनुसार इंग्लैंड में यह कानून रद्द हो गया है, इसलिए भारत में आपराधिक अवमानना को खत्म करके सिर्फ सिविल अवमानना के कानूनी प्रावधान होने चाहिए.

विधि आयोग के तत्कालीन चेयरमैन जस्टिस बी. एस. चौहान ने इस बारे में विस्तार से रिपोर्ट देकर कानून में बदलाव की मांग को नकार दिया था. उनके अनुसार इंग्लैंड में आखिरी बार 1931 में क्रिमिनल कंटेंप्ट का मामला आया था, जबकि भारत में कुछ साल पहले हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में सिविल अवमानना के 96993 और आपराधिक अवमानना के 583 मामले लंबित थे. 

नेशनल ज्यूडिशिल डेटा ग्रिड के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार सुप्रीम कोर्ट में सिविल अवमानना के 901 और आपराधिक अवमानना के 17 मामले पेंडिंग हैं.

विधि आयोग के अनुसार कानून में बदलाव के बावजूद अनुच्छेद-129 और 215 के तहत सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट को अवमानना के संवैधानिक अधिकार हासिल रहेंगे. 

इसके अलावा अनुच्छेद 142-2 के तहत भी सुप्रीम कोर्ट को असाधारण शक्तियां हासिल हैं. अवमानना कानून में बदलाव करने से स्पष्टता खत्म हो जाएगी जिसकी वजह से जज अपनी संवैधानिक शक्तियों का दुरुपयोग कर सकते हैं. 

आयोग के अनुसार अवमानना कानून के दुरुपयोग को रोकने के लिए एक्ट में ही अनेक सेफगार्ड्स हैं, इसलिए विधि आयोग ने कानून में बदलाव की मांग कई साल पहले खारिज कर दी थी.

हालांकि, केंद्र  सरकार यदि चाहे तो आपराधिक अवमानना कानून-1971 और उससे जुड़े नियमों में संसद के माध्यम से संशोधन कर सकती है.

क्या सुप्रीम कोर्ट ने पहले कभी अवमानना के आरोप में सजा सुनाई है?

हां, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने अवमानना के आरोप में कई बार लोगों को सजा सुनाई है. इनमें कुछ प्रमुख मामले इस तरह से हैं-

प्रशांत भूषण मामला (2020): वकील प्रशांत भूषण को सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ ट्वीट करने के लिए अवमानना का दोषी ठहराया गया था. सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें प्रतीकात्मक रूप से 1 रुपये का जुर्माना देने की सजा सुनाई, साथ ही जुर्माना नहीं देने पर तीन महीने की जेल की सजा सुनाई गई थी.
इसी तरह के एक अन्य मामले में प्रशांत भूषण ने साल 2009 में 'तहलका' मैगजीन को दिए एक इंटरव्यू में आरोप लगाया था कि भारत के पिछले 16 मुख्य न्यायाधीशों में आधे भ्रष्ट थे.

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के तीन सदस्यों की बेंच ने 10 नवंबर, 2010 को प्रशांत भूषण के खिलाफ कंटेम्प्ट पिटीशन पर सुनवाई करने का फैसला सुनाया था. हालांकि, 17 से ज्यादा बार सुनवाई के बाद इस मामले को बंद कर दिया गया था. 

विजय माल्या मामला (2017): सुप्रीम कोर्ट ने भगोड़े व्यवसायी विजय माल्या को कोर्ट के आदेशों का पालन न करने और विदेश में संपत्ति हस्तांतरण के लिए अवमानना का दोषी ठहराया था. उन्हें चार महीने की जेल और 2,000 करोड़ रुपये जमा करने का आदेश दिया गया था.

सुभाष चंद्र अग्रवाल मामला (2010): यह मामला सूचना के अधिकार (RTI) से जुड़ा था, जहां सुप्रीम कोर्ट ने अवमानना के आरोपों की जांच की, लेकिन सजा तक नहीं पहुंंचा. 
 

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