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पंजाब यूनिवर्सिटी चुनाव ने कैसे RSS-BJP को एक बड़ी उम्मीद दे दी है?

ABVP ने पहली बार पंजाब यूनिवर्सिटी छात्र परिषद का अध्यक्ष पद जीता है. यह दिखाता है कि अब राज्य का शहरी युवा RSS-BJP की सोच को अपनाने लगा है, जिसे अब तक वह अपने से अलग समझता था

ABVP के गौरववीर सोहल पंजाब यूनिवर्सिटी में छात्र संघ अध्यक्ष का चुनाव जीतने के बाद
अपडेटेड 9 सितंबर , 2025

करीब पांच दशक तक पंजाब यूनिवर्सिटी कैंपस स्टूडेंट्स काउंसिल (PUCSC) का अध्यक्ष पद अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) की पहुंच से बाहर रहा. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के छात्र संगठन की यह बाधा इस साल टूटी जब यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट ऑफ लीगल स्टडीज के रिसर्च स्कॉलर गौरववीर सोहल 3,148 वोट पाकर इस पद पर पहुंचे. उन्होंने अपने सबसे करीबी प्रतिद्वंदी को 488 वोटों से हराया.

इसे एक बड़ी कामयाबी माना जा रहा है. यह इशारा करती है कि पंजाब के युवाओं ने RSS से जुड़े संगठनों को अब प्रतीकात्मक तौर पर ही सही, मगर स्वीकार करना शुरू कर दिया है. यह वही कामयाबी है जिसके लिए संघ और उसका राजनैतिक चेहरा BJP कई दशक से कोशिश कर रहे थे.

इस जीत का असर चंडीगढ़ के सेक्टर-14 में स्थित कैंपस तक सीमित नहीं है. पंजाब यूनिवर्सिटी सिर्फ पंजाब ही नहीं बल्कि हिमाचल प्रदेश और हरियाणा के उत्तरी इलाकों के स्टूडेंट्स की भी पहली पसंद है. यहां हर साल होने वाले छात्र संघ चुनाव को अक्सर पूरे रीजन की राजनीति का आईना माना जाता है. यही वजह है कि सोहल की जीत पंजाब की स्टूडेंट पॉलिटिक्स में एक नया चैप्टर खोलती है, जहां अब तक संघ-BJP का असर हाशिए पर ही रहा है.

इस अहमियत को समझने के लिए PUCSC की राजनीति का सफर देखना होगा. 1990 और 2000 के दशक में यहां की सियासत ज्यादातर कैंपस-आधारित संगठनों जैसे स्टूडेंट्स ऑर्गेनाइजेशन ऑफ पंजाब यूनिवर्सिटी (SOPU) और पंजाब यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स यूनियन (PUSU) के बीच सिमटी हुई थी. 

उन दिनों की जीत-हार ज्यादातर इस बात पर निर्भर करती थी कि किसका दबदबा हॉस्टल ब्लॉक्स, फैकल्टी की वफादारियों और जमी-जमाई नेटवर्क्स पर है, न कि किसी विचारधारा पर. गुरविंदरवीर सिंह औलख, मोहित तनेजा और पुष्पिंदर शर्मा जैसे प्रसिडेंट्स अपनी लोकल पकड़ की वजह से जीते थे, न कि किसी पार्टी की वजह से. धीरे-धीरे, जो स्टूडेंट्स राजनीति में आगे बढ़ना चाहते थे, वे अलग-अलग पार्टियों से जुड़ गए, जैसे कांग्रेस में सक्रिय नेता जगमोहन सिंह कंग और कुलजीत सिंह नागरा.

BJP भी कभी-कभार यहां पकड़ बनाने में कामयाब हुई. मलविंदर सिंह कंग, जो 2002-03 में दो बार PUCSC प्रसिडेंट रहे, पहले BJP में गए, फिर आम आदमी पार्टी में शिफ्ट होकर आज आनंदपुर साहिब से उसके सांसद हैं. उनके बाद के प्रसिडेंट राजविंदर लक्की ने भी अकाली दल, कांग्रेस और आप आजमाने के बाद आखिरकार BJP में डिस्ट्रिक्ट लीडर के तौर पर जगह बनाई. लेकिन यह सब कदम ज्यादातर राजनैतिक मौके भुनाने की कोशिश थे, न कि किसी गहरी विचारधारात्मक आस्था का नतीजा. इसी वजह से ABVP यहां हमेशा बाहरी खिलाड़ी की तरह रही, जिसे कैंपस में न सांस्कृतिक और न ही राजनैतिक स्वीकृति मिल पाई.

सुप्रीम कोर्ट ने 2005 में यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट इलेक्शंस को व्यवस्थित करने के लिए दखल दिया. इसके बाद केंद्र सरकार ने पूर्व चीफ इलेक्शन कमिश्नर जे.एम. लिंगदोह की अगुआई में छह सदस्यीय पैनल बनाया. इस कमेटी ने मई 2006 में अपनी रिपोर्ट दी, जिसमें कैंडिडेट की योग्यता से लेकर चुनावी खर्च की पारदर्शिता तक के लिए गाइडलाइन बनाई गई. कुछ सालों बाद इसका असर मैदान में भी दिखने लगा.

2013 तक आते-आते पंजाब यूनिवर्सिटी की कैंपस पॉलिटिक्स और बदल गई, जब कांग्रेस से जुड़ी नेशनल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ इंडिया (NSUI) के चंदन राणा ने स्टूडेंट काउंसिल प्रसिडेंट का चुनाव जीत लिया. इस दौरान PUSU और SOPU जैसे ग्रुप धीरे-धीरे टूटने लगे और हाशिए पर चले गए.

कांग्रेस के लिए जहां NSUI था, वहीं ‌‌अकाली दल (SAD) की स्टूडेंट पॉलिटिक्स में मौजूदगी स्टूडेंट ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इंडिया (SOI) के जरिए दिखती थी. चौटाला परिवार इंडियन नेशनल स्टूडेंट्स ऑर्गेनाइजेशन (INSO) को सपोर्ट करता था, तो लेफ्ट पार्टियों के अपने स्टूडेंट विंग थे. पंजाब में आम आदमी पार्टी के उभार के साथ उसकी छात्र इकाई ‘छात्र युवा संघर्ष समिति’ (CYSS) भी कैंपस पॉलिटिक्स में अहम बन गई.

इसके उलट ABVP हाशिए पर ही रही, जिसे ज्यादातर हिमाचल और बाद में हरियाणा से आने वाले स्टूडेंट्स का सहारा मिला. पिछले एक दशक की कैंपस पॉलिटिक्स ने साफ किया है कि नेशनल पार्टियों की छात्र इकाइयां पंजाब के युवाओं के बीच अपनी पकड़ बनाने में कामयाब रही हैं.

2016 से 2018 के बीच पॉलिटिक्स में नए तरह का फॉर्मूला उभराः गठबंधन की राजनीति. निशांत कौशल ने NSUI से बागी हुए स्टूडेंट्स और कुछ कैंपस फ्रंट्स को मिलाकर पंजाब यूनिवर्सिटी स्टूडेंट काउंसिल का प्रसिडेंट बनने में कामयाबी पाई. 2018 में स्टूडेंट्स फॉर सोसाइटी (SFS) की कनुप्रिया PUCSC की पहली महिला प्रसिडेंट बनीं, जिसने दिखाया कि इंडिपेंडेंट और लेफ्ट झुकाव वाली आवाजें भी स्टूडेंट वोटर्स की पसंद बन सकती हैं. लेकिन ABVP अभी भी सिर्फ सेकंडरी पदों तक सिमटी रही, ज्यादा से ज्यादा वाइस-प्रसिडेंट या जॉइंट सेक्रेटरी.

2019 के बाद हालात और बदले. उस साल SOI गठबंधन के चेतन चौधरी ने PUCSC प्रसिडेंसी जीती, यह साबित करते हुए कि रीजनल-नेशनल कोएलिशन असरदार हो सकते हैं. 2022 में CYSS ने बड़ी एंट्री की और आयुष खटकड़ ने जीत दर्ज की. 2024 तक पेंडुलम फिर पलटा और इस बार इंडिपेंडेंट कैंडिडेट अनुराग दलाल ने मुद्दा-आधारित कैंपेन से बाजी मारी.

यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें इस साल PUCSC में ABVP की जीत को समझना होगा. पहले जहां प्रसिडेंट बनने वाले ज्यादातर स्टूडेंट्स की जीत टैक्टिकल अलाइनमेंट्स पर टिकी होती थी, वहीं गौरववीर सोहल की जीत का एक बड़ा आइडियोलॉजिकल मतलब है. पहली बार RSS-BJP खेमे ने यह अहम पोस्ट अपने नाम की है. और खास बात यह कि ABVP ने यह अकेले नहीं किया. उसने INSO और हरियाणा राष्ट्रीय स्टूडेंट्स कमेटी (HRSC) के साथ मिलकर गठबंधन बनाया. यह आइडियोलॉजी को मजबूत करने और प्रैक्टिकल गठबंधन बनाने का कॉम्बिनेशन है, जो RSS-BJP की नेशनल पॉलिटिक्स की प्लेबुक जैसा है.

इसका असर यूनिवर्सिटी के गेट तक सीमित नहीं रहेगा. PUCSC में ABVP का प्रसिडेंट बनना समय के साथ चंडीगढ़, पटियाला, लुधियाना, होशियारपुर, फाजिल्का और अबोहर जैसे इलाकों की सोच पर असर डाल सकता है, यानी वही शहरी बेल्ट जहां BJP अपनी पकड़ बढ़ाना चाहती है. असली सफलता यह है कि पंजाब जैसे राज्य में RSS से जुड़े संगठनों को सामाजिक स्वीकार्यता मिलने लगी है, जहां हिंदुत्व को अब तक जगह बनाने में दिक्कत हो रही थी. यही वजह है कि BJP नेताओं ने, जिनमें पंजाब यूनिट चीफ सुनील जाखड़ और नेशनल सेक्रेटरी ओ.पी. धनखड़ शामिल हैं, सोहल को सोशल मीडिया पर बधाई दी. वहीं, स्टेट वाइस-प्रसिडेंट सुभाष शर्मा तो कैंपस में उनकी विजय रैली तक में शामिल हुए.

कांग्रेस और आप के लिए, जिन्होंने अब तक शहरी छात्रों पर पकड़ बनाने की कोशिश की थी, PUCSC का नतीजा एक चेतावनी है. अब पंजाब के पढ़े-लिखे युवाओं पर उनकी पारंपरिक पकड़ पक्की नहीं मानी जा सकती. ABVP की जीत दिखाती है कि एक आइडियोलॉजी पर चलने वाला संगठन, जो गठबंधन बनाने से परहेज नहीं करता, वह भी जमी-जमाई राजनीति को हिला सकता है. अगर कांग्रेस और आप अपनी रणनीति नहीं बदलते तो उन्हें यह जमीन गंवानी पड़ सकती है, वह भी ऐसे वक्त में जब पंजाब के शहरी वोटरों का मूड अक्सर यूनिवर्सिटी कैंपस ही तय करता है.

पंजाब यूनिवर्सिटी हमेशा से लिबरल, लेफ्ट और रीजनल आवाजों का गढ़ रही है. लेकिन अब नेशनलिस्ट-राइट नैरेटिव को यहां बहसों, कल्चरल इवेंट्स और स्टूडेंट एक्टिविज़्म में ज्यादा जगह मिलेगी. इसका असर पंजाब की दूसरी यूनिवर्सिटीज और प्रोफेशनल कॉलेजों तक भी जा सकता है, जिससे ABVP का दायरा बढ़ेगा. फिर भी चुनौतियां कम नहीं हैं. कैंपस के वोटर असल मसलों को लेकर बेहद संवेदनशील होते हैं, जैसे हॉस्टल सुविधाएं, प्लेसमेंट, एग्जाम सुधार और सुरक्षा. अगर इन मुद्दों पर डिलिवरी नहीं हुई तो ABVP की क्रेडिबिलिटी जल्दी गिर सकती है. इसके अलावा, पंजाब का ग्रामीण इलाका अब भी BJP-RSS को शक की नजर से देखता है.

PUCSC में ABVP की यह सफलता तुरंत तो मंसा, फरीदकोट या बठिंडा जैसे मालवा बेल्ट के वोटों में नहीं बदल जाएगी. वहां किसान नाराजगी और रीजनल प्राइड अब भी हिंदुत्व की पकड़ कमजोर करते हैं. लेकिन इतना जरूर है कि अब संघ से जुड़े संगठनों को पहली बार असली स्वीकार्यता मिलने लगी है, और इससे उनका मनोबल बढ़ गया है.

लंबे समय का रुख साफ दिख रहा है. ABVP की पहली बार PUCSC अध्यक्षता बताती है कि पंजाब का नौजवान, खासकर पढ़ा-लिखा शहरी तबका, अब उन विचारों और संगठनों को अपनाने लगा है जिन्हें कभी पराया समझा जाता था. BJP-RSS के लिए यह बड़ी रणनीतिक जीत है.

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