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चीन-पाकिस्तान के बीच अब शुरू हुई मजहबी कूटनीति! क्या ये भारत के लिए खतरे की घंटी है?

पाकिस्तान के एक मजहबी प्रतिनिधिमंडल का चीन के शिनजियांग प्रांत का दौरा करना भारत-विरोधी धुरी को एक नया आयाम देता है; ऐसे में क्या नई दिल्ली को भी वीगरों के अधिकारों का कार्ड खेलकर जवाब देना चाहिए?

China Pakistan Trade
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग (फाइल फोटो)
अपडेटेड 7 अगस्त , 2025

मई में ऑपरेशन सिंदूर के बाद 100 घंटे तक चले सैन्य संघर्ष के दौरान भारत ने पाकिस्तान-चीन की गहरी मिलीभगत को साफ तौर पर देखा. पाकिस्तान जहां चीन निर्मित लड़ाकू विमानों और मिसाइलों के साथ भारत से मोर्चा ले रहा था. वहीं, चीनी उपग्रहों के जरिये पाकिस्तानी सेना को युद्धक्षेत्र की रियल टाइम जानकारी भी मिल रही थी.

बीजिंग और इस्लामाबाद के बीच ये ‘सदाबहार’ दोस्ती अब एक नया मोड़ ले रही है. जुलाई के आखिरी हफ्ते में पाकिस्तान के एक उच्चस्तरीय मजहबी प्रतिनिधिमंडल ने चीन के शिनजियांग प्रांत का दौरा किया और एक संयुक्त घोषणापत्र के साथ लौटा, जिसमें आतंकवाद को ‘मानवता के खिलाफ अपराध’ बताते हुए इसकी कड़ी निंदा की गई थी.

ऊपरी तौर पर तो यह सब धार्मिक सहयोग की एक पहल की तरह ही लग रहा था. प्रतिनिधिमंडल में मजहबी नेताओं के अलावा मीडियाकर्मी भी शामिल थे, और उन्होंने चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशएटिव और शंघाई सहयोग संगठन के तहत शिनजियांग में किया गया विकास देखा. इस दौरान पाकिस्तान और शिनजियांग के बीच सहयोग, खासकर उग्रवाद से निपटने की संभावनाओं पर भी चर्चा हुई.

हालांकि, जानकारों का मानना है कि पाकिस्तान और चीन की इस नई धार्मिक कूटनीति के पीछे दोनों पड़ोसियों की असल रणनीतिक चाल भारत के क्षेत्रीय प्रभाव को चुनौती देना है. उनके मुताबिक, पाकिस्तान के मजहबी नेतृत्व तक चीन का पैठ बनाना महज प्रतीकात्मक नहीं है बल्कि यह एक परस्पर घनिष्ठता बढ़ाने का संकेत है जो भारत के लिए गंभीर रणनीतिक चिंताएं उत्पन्न करने वाला है.

पाकिस्तानी मजहबी प्रतिनिधिमंडल की यात्रा के दौरान आतंकवाद की निंदा करने वाला संयुक्त घोषणापत्र जारी किए जाना पहली नजर में शांति और धार्मिक सद्भाव बढ़ाने की एक कवायद लगता है. लेकिन जानकारों का मानना है कि असल में ये दक्षिण एशिया में धर्म को प्रभाव को एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने की बीजिंग की सोची-समझी कोशिश हो सकती है. 

इसके जरिये वो वीगर मुसलमानों के खिलाफ कथित मानवाधिकार हनन को भी छिपाना चाहता है. धार्मिक नैरेटिव पर इस्लामाबाद और बीजिंग के इस तरह एक साथ आने के निहितार्थ शिनजियांग से कहीं आगे तक जाते हैं. कहीं न कहीं ये सीधे तौर पर भारत की क्षेत्रीय स्थिति का मुकाबला करने और भारत के खिलाफ दुष्प्रचार को हवा देने की व्यापक रणनीति का हिस्सा हैं. खासकर कश्मीर के संदर्भ में.

विशेषज्ञ बताते हैं कि शिनजियांग के “एक दशक से आतंक-मुक्त” होने के चीन के दावों का पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल ने खुलकर समर्थन किया, जबकि वैश्विक निगरानी संस्थाओं और स्वतंत्र जांच एजेंसियों के पास इसके पुख्ता सबूत मौजूद हैं कि वीगरों और अन्य मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ जबर्दस्त अत्याचार जारी हैं. 

इनमें तथाकथित ‘री-एजुकेशन कैंप’ में सामूहिक तौर पर हिरासत में रखा जाना, जबरन नसबंदी कराना, सांस्कृतिक क्षति और मस्जिदों को नष्ट किया जाना शामिल है. ऐसी क्रूरतापूर्ण गतिविधियों को एमनेस्टी इंटरनेशनल तथा ह्यूमन राइट्स वॉच जैसी संस्थाएं मानवता के विरुद्ध अपराध और यहां तक नरसंहार भी करार देती है.

फिर भी, पाकिस्तानी मजहबी नेताओं ने एकजुटता दिखाने के बजाय चुप्पी साध ली, वीगर मुसलमानों के हितों के साथ विश्वासघात किया और इसके बजाय चीन के सुर में सुर मिलाया. जानकारों का कहना है कि नजरें फेरने की ये रणनीति जानबूझकर अपनाई गई, क्योंकि सैन्य, आर्थिक और अब वैचारिक स्तर तक बढ़ती रणनीतिक साझेदारी की कुछ न कुछ कीमत तो चुकानी ही होगी.

अमेरिका, यूरोपीय संघ और कई पश्चिमी देश मानवाधिकार उल्लंघनों के लिए चीन पर प्रतिबंध लगा चुके हैं. चीन पर गहरी जानकारी रखने वालों का कहना है कि पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल का चीन के सुर में सुर मिलाना कथित गंभीर मानवाधिकार हनन छिपाने की कोशिशों का हिस्सा है. साझा इस्लामी विरासत का दम भरने के बावजूद इस तरह चीन की करतूतों को वैध ठहराना पाकिस्तान की भूमिका पर भी सवाल खड़े करता है.

चीन मामलों के एक विशेषज्ञ ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “शिनजियांग तक आउटरीच को कोई सामान्य बात नहीं है, बल्कि एक बड़े खेल का हिस्सा है. यह उसी (पाकिस्तान-चीन) तालमेल की अगली कड़ी है जिसे भारत ने ऑपरेशन सिंदूर के दौरान देखा, जब पाकिस्तान कूटनीतिक और रणनीतिक संरक्षण के लिए पूरी तरह चीन पर निर्भर था. हालांकि, बीजिंग ने सीधे तौर पर खुलकर मदद करने से परहेज किया लेकिन उसने ख़ुफ़िया जानकारी साझा करने से लेकर सैन्य सहायता प्रदान करने और वैश्विक मंचों पर साथ खड़े होने के संदेश के जरिये समर्थन देने में कोई कसर नहीं छोड़ी.”

उस समय, चीन और पाकिस्तान ने मिलकर भारत की छवि दक्षिण एशिया में अस्थिरता बढ़ाने वाली एक ताकत के तौर पर गढ़ने की हरसंभव कोशिश की थी. बीजिंग अब इसी मिलीभगत को और मजबूत करने के लिए धार्मिक कूटनीति का सहारा ले रहा है. 

बीजिंग पर नजर रखने वालों का मानना है कि इंटरनेशनल रिसर्च काउंसिल फॉर रिलीजियश अफेयर्स और पैगाम-ए-पाकिस्तान (आतंकवाद व उग्रवाद के खिलाफ एक फरमान) जैसी पहलों के माध्यम से पाकिस्तान के प्रभावशाली मौलवियों को साथ लाकर चीन न केवल मुस्लिम जगत में अपनी छवि सुधारना चाहता है, बल्कि कश्मीर पर भारत के रुख के विपरीत पाकिस्तान को सही ठहराने के लिए धर्म को हथियार भी बनाना चाहता है.

बहरहाल, दोनों पड़ोसियों की ये चाल भारत के लिए खतरे की घंटी ही है. अगर इसे यूं ही जाने दिया गया तो एक ऐसा वैचारिक और कूटनीतिक जाल तैयार हो जाएगा जिसका इस्तेमाल बीजिंग और इस्लामाबाद इस्लामी देशों के बीच नई दिल्ली की स्थिति कमजोर करने के लिए कर सकते हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि भारत के लिए एक बहुआयामी जवाबी रणनीति अपनाना जरूरी है.

कूटनीतिक स्तर पर भारत को खाड़ी क्षेत्र, मध्य एशिया और आसियान के प्रमुख इस्लामी देशों के साथ अपने संबंधों को और मजबूत करना होगा और चीन के उस दोहरे रवैये को भी दुनिया के सामने लाना होगा कि वो विदेशों में मुसलमानों के साथ एकजुटता का दावा करता है और अपने ही देश में वीगरों पर कथित अत्याचार करने में पीछे नहीं रहता. एक विशेषज्ञ का कहना है, “भारत को वीगरों के अधिकारों के मुद्दे को हुकुम के इक्के के तौर पर इस्तेमाल करने पर विचार करना चाहिए. बहुपक्षीय मंचों पर इन चिंताओं को गंभीरता से उठाना चाहिए और शिनजियांग पर विश्वसनीय अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टों का भी समर्थन करना चाहिए.”

साथ ही, भारत को चीन-पाकिस्तान की तरफ से मिलकर फैलाए जाने वाले दुष्प्रचार की काट भी निकालनी होगी. इसके लिए उसे धार्मिक सद्भाव के अपने रिकॉर्ड को रेखांकित कर चीन की रणनीति के पीछे की सत्तावादी चाल को उजागर करना चाहिए.

ऑपरेशन सिंदूर के दौरान ये बात पहले ही सामने आ चुकी है कि कैसे बाहरी दुष्प्रचार आंतरिक स्तर पर मुश्किलें बढ़ा सकता है. साइबर सुरक्षा, खुफिया निगरानी और धारणात्मक घुसपैठ रोकने के लिए पूरी सक्रियता के साथ पुख्ता उपाय करने जरूरी हैं. चीन की शिनजियांग कूटनीति का अंतरधार्मिक शांति से कोई वास्ता नहीं है, बल्कि ये तो अपनी ताकत दर्शाने और छवि को सुधारने की कोशिश का हिस्सा है.

पाकिस्तान के मजहबपरस्त नेतृत्व को एक एजेंडे के तहत साथ लाकर चीन दरअसल हार्ड-पावर इस्तेमाल करने वाली अपनी छवि को सॉफ्ट-पावर टूल में तब्दील करना चाहता है. भारत के लिए इसकी अनदेखी एक रणनीतिक चूक साबित होगी, जिसमें अंतर-धार्मिक सद्भाव का दिखावा क्षेत्रीय अस्थिरता का एक सशक्त साधन बन जाएगा.

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