पिछले पखवाड़े सबकी नजरें जिनेवा में प्लास्टिक पर अंतर-सरकारी वार्ता समिति (आइएनसी) के फिर से शुरू हुए पांचवें सत्र पर टिकी थीं. हालांकि, एक बार फिर कोई आम सहमति न बनना निराशाजनक ही रहा. लेकिन इसमें अचरज होने जैसा कुछ भी नहीं था.
यह मुद्दा कुछ प्रासंगिक हो इसलिए संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सभा (यूएनईए) ने 2019 में एकल-उपयोग प्लास्टिक (सिंगल यूज प्लास्टिक या एसयूपी) से होने वाले प्रदूषण पर भारत की पहल पर लाए प्रस्ताव को अपनाया था.
भारत ने 2021 में एसयूपी पर प्रतिबंध लगाया जो 1 जुलाई, 2022 से प्रभावी हुआ और फरवरी 2022 में विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व नियमों को अधिसूचित किया, जिसमें प्लास्टिक युक्त उत्पादों से निकले कचरे को एकत्र करने और उनकी रिसाइक्लिंग की जिम्मेदारी उत्पादकों, आयातकों और ब्रांड मालिकों पर डाली गई.
रवांडा, पेरू और फिर इसके बाद जापान ने 2021 में प्लास्टिक उत्पादन पर पाबंदी वाले प्रस्तावों को आगे बढ़ाया. प्लास्टिक उत्पादन पर प्रतिबंध के निष्कर्षों को ध्यान में रखकर भारत एक समानांतर प्रस्ताव लाया, जिसमें इस बात पर जोर दिया गया कि सभी देश अपनी क्षमताओं के आधार पर प्लास्टिक प्रदूषण के प्रबंधन के उपाय लागू करें.
भारत की राय यही रही है कि प्लास्टिक से उत्पन्न प्रदूषण से निबटने के लिए एक लक्षित और विशिष्ट कार्रवाई समय की जरूरत है, समस्या को सतही तौर पर हल करना समाधान नहीं हो सकता! मार्च 2022 में नैरोबी में यूएनईए सत्र के दौरान प्लास्टिक प्रदूषण पर अपनाए गए ऐतिहासिक प्रस्ताव में आइएनसी की स्थापना का प्रावधान किया गया था. इसमें रियो सिद्धांतों को शामिल कराना भारत की महत्वपूर्ण भूमिका का प्रमाण है, जिसने इस पर जोर दिया था कि सीबीडीआर-आरसी (साझा लेकिन भिन्न जिम्मेदारियां-संबंधित क्षमताएं) को प्रस्ताव का आधार बनाया जाना चाहिए.
प्लास्टिक की अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका है. विचाराधीन प्रस्ताव को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कानूनी रूप से बाध्यकारी संधि के तौर पर लागू करने की तैयारी की जा रही है; इसलिए, किसी भी तरह का असंतुलन न रहने देने के लिए समता और निष्पक्षता सबसे ज्यादा जरूरी है.
विकासशील देश लगातार यह बात कहते रहे हैं कि प्लास्टिक विविध रूपों में खाद्य एवं जल सुरक्षा, स्वास्थ्य सेवा, बुनियादी ढांचे आदि के लिए काफी महत्वपूर्ण है. दूसरी ओर, विकसित देश हर तरह के प्लास्टिक के बारे में एक ही नजरिया अपनाकर पूरी मुखरता से इसका विरोध करते हैं. उनका कहना है कि प्लास्टिक उत्पादन तथा इस प्रक्रिया में इस्तेमाल रसायनों को लेकर लक्ष्य निर्धारित किए जाने चाहिए. इस सख्त रुख का असली कारण यह है कि उन्हें विकासशील देशों को पॉलीमर से इतर अन्य सामग्रियों की तकनीक बेचने का अवसर मिल सकता है, जो कि अब तक केवल विकसित देशों के पास ही है!
वार्ता प्रक्रिया बेहद जटिल और चुनौतीपूर्ण रही है. भारत, चीन, रूस, सऊदी अरब, कुवैत आदि ने खुद को समान विचारधारा वाले देशों के अनौपचारिक समूह के तौर पर संगठित कर लिया है. विवाद मुख्यत: पॉलीमर उत्पादन और 'चिंताजनक रसायनों' के इस्तेमाल की सीमा तय करने और चरणबद्ध तरीके से खत्म करने के लिए प्लास्टिक उत्पादों को सूचीबद्ध करने के प्रस्ताव पर है.
भारत कहता है कि पॉलीमर उत्पादन सीमा तय करने या कुछ उत्पाद चरणबद्ध तरीके से खत्म करने जैसे कदमों को सभी पर समान रूप से लागू करने का दृष्टिकोण स्वीकार्य नहीं है; देशों को अपनी राष्ट्रीय परिस्थितियों के आधार पर रणनीति बनानी होगी. 'चिंता का विषय बने रसायनों' की पहचान के लिए एक निश्चित मानदंड, ढांचा और प्रक्रिया होनी चाहिए.
तकनीकी और वित्तीय सहायता का मुद्दा इन वार्ताओं में लगातार नदारद रहा है, जिसमें स्वतंत्र समर्पित बहुपक्षीय कोष के जरिए विकासशील देशों को प्रौद्योगिकी हस्तांतरण करना भी शामिल है. असल समस्या यह है कि विकसित देश न केवल लंबे समय से समुद्री पर्यावरण के लिए खतरा बने प्लास्टिक कचरे बल्कि अन्य प्लास्टिक प्रदूषण बढ़ाने में भी सबसे आगे हैं और उन्होंने प्लास्टिक पॉलीमर प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण कर अच्छी-खासी कमाई भी की है. लेकिन जब समाधान के लिए वित्तीय जिम्मेदारी लेने की बात आती है तो अपने कदम सबसे पहले पीछे खींच लेते हैं.
विकसित देशों के ''जैसा हम चाहेंगे, वैसा ही होगा'' वाले दृष्टिकोण ने कोई ठोस निष्कर्ष निकलने की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है. आगे का रास्ता अनिश्चित लगता है लेकिन इतना तय है कि कोई रास्ता जरूर निकलेगा.
लीना नंदन (लेखिका पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय में सचिव रह चुकी हैं.)