मजदूर दिवस (1 मई) को जब विभिन्न राज्यों में फंसे प्रवासी मजदूरों को उनके घर पहुंचाने के लिए पहली श्रमिक स्पेशल ट्रेन चली थी तो इसमें सवार 1,200 मजदूर खुद को खुशकिस्मत रेलयात्री मान कर सफर कर रहे थे. तब से लेकर 2 जून तक 4,155 श्रमिक स्पेशल ट्रेनों से 57 लाख से अधिक मजदूर सफर कर चुके हैं लेकिन इनमें से एक को भी रेलवे का बोनाफाइड पैसेंजर यानी वास्तविक या असली यात्री नहीं मान रही है.
इसका मतलब है कि ये यात्री (श्रमिक) सफर के दौरान हुई असुविधा, कष्ट, चोट, ट्रेनों की लेटलतीफी या किसी अन्य दिक्कत के लिए रेलवे से हर्जाना मांगने के हकदार नहीं हैं.
रेलवे का तर्क है कि इन दिक्कतों को लेकर सिर्फ वही यात्री रेलवे पर दावा ठोक सकते हैं जिन्होंने रेलवे से टिकट खरीदा है. चूंकि रेलवे ने यात्रियों की जगह राज्यों को टिकट बेचा है इसलिए सफर करने वाले रेलवे के बोनाफाइड पैसेंजर नहीं बल्कि राज्य, रेलवे के बोनाफाइड कस्टमर हैं.
दूसरे शब्दों में कहा जाए तो रेलवे ने मजदूरों (श्रमिक स्पेशल ट्रेन से सफर करने वालों) से पल्ला झाड़ लिया है.
‘इंडिया टुडे’ ने श्रमिक स्पेशल ट्रेनों को लेकर जब अंदर की बात जानने की कोशिश की तो बात परत दर परत खुलती चली गई. सूत्रों का कहना है कि मार्च की 28 तारीख को पहली बार ट्रेनों के जरिए विभिन्न राज्यों में फंसे मजदूरों को उनके घर तक भेजने के लिए तैयार रहने के लिए गृह मंत्रालय की तरफ से कहा गया, वह भी इस हिदायत के साथ कि रेलवे टिकटों की बिक्री, यात्रियों को नहीं करेगा.
इसके बाद राज्यों की तरफ से रेलवे को मजदूरों के नामों की सूची भेजी जाने लगी. पहली ट्रेन तेलंगाना से झारखंड के लिए जब चलाने का फैसला 31 मार्च की देर शाम हुई तब रेलवे की तरफ से राज्यों को सूचित किया गया कि रेलवे की भूमिका सर्विस प्रोवाइडर की जगह सिर्फ कैरियर प्रोवाइडर की है. अर्थात रेलवे की भूमिका सिर्फ राज्यों के आग्रह पर ट्रेन उपलब्ध कराना होगा, ट्रेन किस स्टेशन पर रुकेगी, कितनी देर रुकेगी, ट्रेनों में बोगियों का कंपोजिशन (एसी, नॉन एसी आदि) क्या होगा, ट्रेन रास्ते में बीच के स्टेशनों पर रुकेगी या नहीं, यह रेलवे तय नहीं करेगा बल्कि राज्यों को तय करना होगा.
सरल भाषा में कहा जाए तो जैसे रेलवे, कोयला या स्टील को एक जगह से दूसरी जगह तक लाने-ले जाने के लिए कंपनियों को वैगन (माल डब्बे) उपलब्ध कराता है और सामान को कंपनी किस जगह अनलोड करेगी, यह रेलवे की जगह कंपनियों पर निर्भर करता है, उसी तरीके से श्रमिक स्पेशल ट्रेनों के परिचालन को लेकर रेलवे का रवैया रहा.
इसी वजह से लंबी दूरी की श्रमिक स्पेशल ट्रेन में भी पेंट्री कार की व्यवस्था नहीं रखी गई.
रेलवे अधिकारियों का कहना है कि रेलवे ने हर यात्री को पानी का बोतल और खाना उपलब्ध कराया. 57 लाख से अधिक श्रमिकों को रेलवे ने फ्री में लगभग 1 करोड़ खाने का पैकेज और 1.5 करोड़ पानी के बोतल दिए. रेलवे का यह सेवा भाव था.
रेलवे अधिकारी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि दो दिनों के सफर के लिए 1 लीटर पानी और एक पैकेट खाना पर्याप्त नहीं है लेकिन अधिकारियों का तर्क है कि जिस राज्य से श्रमिक सफर कर रहे थे उस राज्य की सरकार ने भी खाना और पानी देकर श्रमिको को भेजा और रास्ते में स्टेशनों के आसपास के इलाकों से भी लोगों ने मजदूरों को खाना-पानी दिया.
श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में सफर के दौरान मजदूरों की हुई मौत को लेकर भी रेलवे अपनी जिम्मेदारी नहीं मान रहा है.
रेलवे बोर्ड के एडीजी (मीडिया) डी.जे. नारायण कहते हैं, “सफर के दौरान दुर्भाग्यपूर्ण घटना के तहत कुछ श्रमिकों की मौत हुई है लेकिन रेलवे इसके लिए जिम्मेदार नहीं है. इन लोगों की मौत न तो खाने की कमी की वजह से हुई है न ही रेलवे के किसी खामी से. वैसे भी रेलवे सफर के दौरान यात्रियों की मौत के मामले होते हैं और उनकी तादाद में इतने यात्रियों (57 लाख) पर 80 के आसपास ही होती है”. फिलहाल रेलवे के पास ऐसा कोई ठोस आंकड़ा नहीं है जिससे ठीक-ठीक पता चल सके कि श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में कितने यात्रियों की मौत हुई है और किन वजहों से हुई है.
नारायण कहते हैं कि संबंधित राज्य इस मामले में एफआइआर दर्ज करने के बाद आंकड़ा रेलवे से साझा करते हैं और सही आंकड़ा पता लगने में समय लगेगा. श्रमिक स्पेशल ट्रेन के परिचालन को लेकर कंट्रोल रूम से मिली जानकारी के मुताबिक ट्रेनों की मॉनिटरिंग 24X7 होती है और रेल मंत्री पीयूष गोयल खुद रोजाना तीन बार मॉनिटर करते हैं.
1 मई से लेकर 19 मई तक एक भी श्रमिक स्पेशल ट्रेन देरी से नहीं चली और समय से पहले अपने गंतव्य तक पहुंची है. 19 मई से लेकर 24 मई के बीच 52 ट्रेनें देर से चली और 4 ट्रेन अपने निर्धारित समय से 8 से 12 घंटे की देरी से चलीं. 25 मई से 2 जून तक 18 और ट्रेनें देर से चलीं. ट्रेनों की देरी की वजह, या उनके गलत रूट पर चले जाने के मामले सामने आए हैं
लेकिन रेलवे कंट्रोल रूम के चार्ट से कुछ और कहानी का पता चलती है. चार्ट के हिसाब से ट्रेनें गलत रूट पर नहीं गईं बल्कि अंतिम समय में ट्रेनों के डेस्टिनेशन और टाइमिंग में फेरबदल करने से ऐसा हुआ.
मसलन, नई दिल्ली से बिहार के लिए एक श्रमिक स्पेशल ट्रेन को रवाना किया गया. जिसका टर्मिनेंटिंग स्टेशन पटना रखा गया था. पटना पहुंचने से पहले ही बिहार सरकार ने रेलवे को सूचित किया कि इस ट्रेन में समस्तीपुर और दरभंगा के भी पैसेंजर हैं इसलिए ट्रेनों को पटना से वाया दरभंगा होते हुए समस्तीपुर तक चलाया जाए.
राज्यों के इस निर्देश पर इस ट्रेन का गंतव्य स्टेशन समस्तीपुर तय किया गया. चूंकि, इस ट्रेन का गंतव्य स्टेशन समस्तीपुर है इसलिए पटना के बाद जब ट्रेन समस्तीपुर पहुंचती है तो वहां ट्रेन को स्टॉपेज दिए बिना दरंभगा के लिए रवाना कर दिया गया और दरभंगा में इस ट्रेन को स्टॉपेज देने के बाद वापस समस्तीपुर लाया गया.
इस वजह से जिन यात्रियों को समस्तीपुर उतरना था उन्हे पहले दरभंगा जाना पड़ा इसलिए ट्रेनों के रुट भटकने का मामला चर्चा में आने लगा. यह गफलत राज्य सरकार और रेलवे के रूटों के निर्धारण पर तारतम्य की कमी की वजह से है. श्रमिक स्पेशल परिचालन को रेल मंत्री दिन में तीन बार देखते हैं, यानी केंद्र-राज्य के मंत्रालयों के बीच बेहतर तालमेल न हो पाने की वजह से श्रमिकों की दुर्गत उनसे छिपी हुई नहीं है.
जहां तक बात श्रमिक स्पेशल ट्रेन के किराए को लेकर है तो रेलवे के पास ऐसी कोई आधिकारिक जानकारी 3 जून तक नहीं है कि यात्रियों का 85 फीसद किराया रेलवे को उठाना है. श्रमिकों से किराया लेने का मामला जब सुर्खियों में आया था तो सरकार की तरफ से दावे किए गए थे कि यात्रियों के किराए का 85 फीसदी हिस्सा रेलवे वहन करेगा. शेष 15 फीसद किराया राज्यों को देना होगा.
रेलवे अधिकारियों का कहना है कि रेलवे सिर्फ फ्री में खाना और पानी ही मुहैया करा रहा है.
सूत्रों का कहना है कि किराया राज्यों को ही देना होगा, आधा किराया जिन राज्यों से ट्रेने चली है वह राज्य सरकार देगी और आधा किराया उन राज्यों को देना होगा जिन राज्यों में मजदूर पहुंचे हैं. 2 जून तक कुल चली 4,155 ट्रेनों में से उत्तर प्रदेश के लिए 1670, बिहार के लिए 1482, झारखंड के लिए 194, ओडिशा के लिए 180 तथा पश्चिम बंगाल के लिए 135 ट्रेने चली है. देश के विभिन्न हिस्सों के लिए गुजरात से 1027, महाराष्ट्र से 802, पंजाब से 816, उत्तर प्रदेश से 288 और बिहार से 294 ट्रेन चली है.
इस पूरे मामले में केंद्र सरकार और उसके विभिन्न विभागों तथा राज्य एवं रेलवे के बीच तालमेल की कमी जाहिर होती है. रेलवे का कहना है कि श्रमिक उसके वास्तविक यात्री नहीं थे, फिर भी नैतिकता के ऊंचे पायदान पर चढ़कर उसने उन्हें खाना-पानी दिया. इसके बावजूद उन्हें कोई परेशानी हुई हो तो वे राज्य सरकार से जवाब-तलब करें.
दूसरी ओर, सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को आदेश दिया था कि वह श्रमिकों को उनके गंतव्य पर मुफ्त पहुंचाए और उन्हें खाना-पीना मुहैया कराए. क्या रेलवे केंद्र सरकार के अधीन नहीं रहा? क्या बजट में उसके लिए विशेष प्रावधान नहीं होता? केंद्र और राज्य के मंत्रियों-अधिकारियों को यकीनन कई सवालों का जवाब देना होगा.
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