scorecardresearch

कोरोना महामारी में मसीहा बने स्वास्थ्यकर्मियों को सकारात्मकता का सबक

महामारी से अग्रिम मोर्चे पर जंग लड़ने वाले स्वास्थ्यकर्मियों और बुजुर्गों के संक्रमित होने की आशंका ज्यादा है. मायूसी और मजबूरी की इस घड़ी में उन्हें संबल देने के लिए एक मनोचिकित्सक ने बनाया विशेष समूह.

फोटो साभार-इंडिया टुडे
फोटो साभार-इंडिया टुडे
अपडेटेड 13 मई , 2020

मुंबई के ‌विभिन्न इलाकों में देर शाम कुछ बुजुर्गों के लिए बेहद व्यस्तता भरी होती है. दरअसल, इनकी व्यस्तता उन फोन कॉल्स की वजह से बढ़ गई है जिन्हें रोजना इन लोगों ने अपनी दिनचर्या में शामिल कर लिया है. यह सभी बुजुर्ग ''बडी सिस्टम'' का हिस्सा हैं. इस सिस्टम को बनाने वाली मनोचिकित्सक डॉ. अंजलि छाबड़िया ने अपने कुछ मित्रों की मदद से इसी साल मार्च में इस सिस्टम को बनाया था. डॉ. अंजलि कहती हैं, '' कोरोना संक्रमण काल में अगर कोई सबसे ज्यादा जोखिम उठाकर काम कर रहा है तो वे हैं डॉक्टर और अन्य हेल्थ वर्कर. घरवालों को संक्रमण के खतरे से दूर रखने के लिए ये लोग घर भी नहीं जा रहे. चिंता, तनाव, अवसाद और अकेलापन उन पर हावी होता जा रहा है.

कोरोना संक्रमण की वजह से कई डॉक्टरों की मौत ने भी इन्हें दहशत में डाल दिया. दूसरी तरफ विशेषज्ञों की मानें तो कोरोना संक्रमण का सबसे ज्यादा खतरा बुजुर्गों पर है. ऐसे में मुझे लगा कि क्यों न एक व्यवस्था बनाई जाए जिसमें यह दोनों ही एक दूसरे को भावनात्मक सहारा देने का जरिया बनें. बस इसी मकसद से बडी सिस्टम बनाने का विचार आया.'' मार्च में इस व्यवस्था को शुरू किया था. अब तक तकरीबन 58 लोगों की टीम बन चुकी है. इसमें मनोवैज्ञानिक, मनोचिकित्सक और कुछ इनफॉर्मल बुजुर्ग काउंसिलर भी शामिल हैं. मजेदार बात यह है कि खुद कई बुजुर्ग फोन कर इससे जुड़ने की इच्छा जता रहे हैं.

कैसे बना बडी सिस्टम

डॉ. अंजलि छाबड़िया कहती हैं, '' मार्च की शुरुआत में ही यह ख्याल आया. तब तक यूएस, इटली जैसे देश कोविड-19 की चपेट में बुरी तरह से आ चुके थे. वहां से रोज खबरें आ रही थीं कि किस तरह डॉक्टर्स और दूसरे हेल्थ वर्कर्स की एक बड़ी तादाद कोरोना संक्रमण का शिकार हो रही है. ऐसे कुछ शोध भी हुए जिनमें इन लोगों में चिंता, अवसाद, तनाव के बढ़ने की पुष्टि हुई. दूसरी तरफ बुजुर्गों के लिए यह महामारी ज्यादा खतरनाक होने की खबरें भी आ रही थीं.'' उन्होंने इन दोनों को एक दूसरे के साथ व्यस्त रखने की योजना बनाई. बस फिर क्या था कुछ मनोवैज्ञानिक मित्रों और कुछ बुजुर्ग वॉलिंटियर्स से संपर्क साधा.

बस क्या था, सबकी सहमति के बाद एक हेल्पलाइन नंबर जारी कर दिया गया. दरअसल डॉ. अंजलि छाबड़िया 2018 से ही बुजुर्गों की मदद के लिए गोल्डन सिटीजन ट्रस्ट चला रही हैं. इसिलए उन्हें बुजुर्गों से संपर्क करने में दिक्कत नहीं आई. मजेदार बात यह रही की कुछ ऐसे युवा भी जुड़े जिन्होंने ऑनलाइन फंडिंग के जरिए कुछ फंड की भी व्यवस्था की. कुछ लोगों ने जूस और स्नैक्स मुहैया करवाए. कुछ युवा स्नैक्स अस्पताल में डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों को बांटते हैं. डॉ. अंजलि छाबड़िया के मुताबिक, ‘‘यह यह एक तरह का पॉजीटिव टोकन है...जो उन्हें महसूस कराता है कि उनकी फिक्र करने वाले बहुत लोग हैं.''

कैसे काम करता है यह बडी सिस्टम ?

बडी सिस्टम बनने की प्रक्रिया के दौरान ही उनकी मुलाकात मनोवैज्ञानिक डॉ. नीतू घोष से हुई. डॉ. घोष बताती हैं कि रोजाना कम से कम 30 फोन कॉल्स मेरे पास आ रही हैं. वे एक कॉल का उदाहरण देते हुए कहती हैं, '' कुछ दिन पहले एक डॉक्टर की कॉल मेरे पास आई. वह कोरोना मरीजों की देखभाल के लिए तैनात था. उसने बताया कि उसके भीतर लगातार आत्महत्या के विचार आ रहे हैं. उसे लगता है कि उसे संक्रमण हो गया है. अभी तो वह अपने परिवार से दूर रह रहा है. उसे लगता है कि घर जाएगा तो वह अपने परिवार को भी संक्रमित कर देगा. ''

61 वर्षीय अरुणा प्रकाश मुंबई के जुहू में रहती हैं. उन्होंने बताया कि वे डॉ. छाबड़िया से पिछले कई सालों से जुड़ी हैं. उनके तीन बेटे विदेश में रहते हैं. जब डॉ. छाबड़िया ने उनसे इस प्लान के बारे में बताया तो उन्होंने फौरन इसका हिस्सा बनने के लिए हां कर दी. दुनियाभर के दुखों को दूर करने वाले स्वास्थ्यकर्मियों की परेशानी की घड़ी में यह समूह उनकी मदद कर रहा है. डॉ. छाबड़िया कहती हैं, ''मैं उन्हें पॉजिटिविटी का इंजेक्शन देने का काम करती हूं. उनसे कहती हूं कि आप लोग इस महामारी के दौर में लोगों की उम्मीद हैं. आप वह कर रहे हैं जो कोई नहीं कर सकता. आप उन कुछ हेल्थ वर्कर्स को देख रहे हैं जो संक्रमण का शिकार हुए पर उन लाखों हेल्थ वर्कर्स को नहीं देख रहे जो सैकड़ों मरीजों को ठीक कर चुके हैं. आपको एहतियात बरतना है. प्रॉपर नींद और डाइट लेनी है. और देखिएगा यह बुरा वक्त जब गुजरेगा तो सबसे ज्यादा सुकून आपको देकर जाएगा.''

यह समूह बुनियादी तौर पर समान रूप से दुखी, परेशान और मजबूर लोगों के लिए एक-दूसरे से अपना अनुभव साझा करने तथा एक-दूसरे को संबल देने का मंच है. उनके बीच एक तरह का दर्द का रिश्ता कायम हो गया है, और वे एक-दूसरे के सहायक हो गए हैं.

***

Advertisement
Advertisement