तब्लीगी जमात अब से चार साल पहले दो गुटों में बंट गई थी. दुनिया के सबसे बड़े इस्लामी आंदोलनों में से एक तब्लीगी जमात से करीब 10 करोड़ लोग जुड़े हुए हैं. मौलाना साद तब्लीगी जमात के संस्थापक मौलवी इलियास कांधलवी के परपोते हैं. देशभर में कोरोना महामारी से निबटने के लिए सरकार ने खासकर दिल्ली और मुंबई में जमावड़े लगाने पर प्रतिबंध लगा दिया था और इस प्रतिबंध पर दोनों धड़ों की प्रतिक्रिया से इस संगठन का भविष्य तय होगाा.
सरकार के आदेश के मद्देनजर नवी मुंबई के नेरुल में तब्लीगी जमात के दूसरे गुट के मुख्यालय प्रमुख मौलाना इब्राहिम देवला ने 16 से 20 मार्च के दौरान जोड़ या जमावड़े की सारी योजनाएं रद्द कर दी. इसी धड़े के दिल्ली मुख्यालय ने भी अपने सारे कार्यक्रम रद्द कर दिए. दिल्ली के तुर्कमान गेट इलाके में फैज इलाही मस्जिद के जिम्मेदार सबको अपने घर पर रहने और सारी जमातें रोकने की हिदायत देकर अपने घर लौट गए. लेकिन मौलाना साद कांधलवी के धड़े ने सारे नियमों को धता बताकर अपने धड़े के अंतरराष्ट्रीय तब्लीगी जमात मुख्यालय, हजरत निजामुद्दीन में जमात जोड़ने का काम जारी रखा और लॉकडाउन के बाद उनके पास उन्हें वापस भेजने का कोई चारा नहीं बचा. हजरत निजामुद्दीन मरकज में आए तब्लीगी जमाती अपने घर लौटने का इरादा रखते हुए भी वहीं फंसकर रह गए.
मौलाना साद के फैसले की कीमत न केवल तब्लीगी जमात को बल्कि देश को भी चुकानी पड़ी.
स्वास्थ्य मंत्रालय ने 4 अप्रैल को बताया कि तब देश में कोविड-19 के कुल 2,902 मामलों में से 1,023 यानी करीब 30 फीसद मामले निजामुद्दीन मरकज से जुड़े हैं. कई लोगों ने कहा कि देश में कुल संक्रमण के मामलों में इसकी वजह से बहुत तेजी आ गई. उन लोगों की तो यहां तक दलील है कि इसी वजह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लॉकडाउन की अवधि बढ़ाने को मजबूर हो गए.
15 अप्रैल को मौलाना साद के खिलाफ गैर इरादतन हत्या और उनके तथा उनसे जुड़े ट्रस्टों के खिलाफ मनी लॉन्ड्रिंग निषेध कानून के तहत मामले दर्ज कर लिए गए. उनसे जुड़े कई लोग फरार बताए जा रहे हैं और खुद मौलाना साद दिल्ली में अज्ञात जगह पर हैं, हालांकि काफी लोगों को मालूम है कि वे कहां हैं. उनके पैरोकारों का कहना है कि उन्होंने खुद को क्वारंटीन कर लिया है. लेकिन उनकी और उनसे जुड़े लोगों की हरकत से देश के लोग नाराज हो गए.
उनके धड़े के लोगों के बारे में कहा गया कि वे इलाज कराने से इनकार कर रहे हैं और पुलिस तथा डॉक्टरों से दुर्व्यवहार कर रहे हैं, हालांकि इनमें से कई आरोप अफवाह साबित हुए. समुदाय की छवि खराब करने की वजह से सुन्नी मुस्लिम भी उनसे नाराज हैं.
सत्तावन वर्षीय जफर सरेशवाला इस समुदाय के प्रमुख सदस्यों में शुमार हैं. कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विश्वासपात्र रहे सरेशवाला ने 2002 के गुजरात दंगों के बाद मुस्लिम समुदाय के बीच तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी की छवि अच्छी करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. हैदराबाद स्थित मौलाना आजाद उर्दू नेशनल यूनिवर्सिटी के पूर्व चांसलर सरेशवाला खुद तब्लीगी जमात के पैरोकार हैं. उन्होंने दोनों गुटों से किसी तरह का जमावड़ा न करने का आग्रह किया था.
उनका कहना है कि मौलाना साद के गुट के लोगों ने ‘‘इस तहरीक को 100 साल पीछे धकेल दिया है.’’ वे कहते हैं, ‘‘यह तहरीक अच्छे किरदार पेश करके समाज का नेतृत्व करने में यकीन करता है. मौलाना साद और उनके समर्थकों ने डॉक्टरों और सरकारी कर्मचारियों के कामकाज में अड़ंगा लगाया. उन्होंने इस तहरीक और इस्लाम की छवि को बेहद नुक्सान पहुंचाया है.’’
चौवन वर्षीय मौलाना साद मौलाना इलियास कांधलवी के पड़पोते हैं, जिन्होंने 1926 में इस आंदोलन की शुरुआत की थी. मौलाना साद का इस्लामी दुनिया में—पश्चिम एशिया में गल्फ कोऑपरेशन काउंसिल से लेकर तुर्की और मलेशिया तक में काफी सम्मान है. पश्चिम एशिया के शाही परिवारों में उन्हें काफी मान-सम्मान हासिल है.
सूत्रों का कहना है कि वहां उनका जोरदार स्वागत किया जाता है और वहां के शेख उनकी यात्रा के लिए निजी विमान मुहैया कराते हैं. कथित तौर पर उन्हें यह सम्मान इसलिए मिलता है कि उनके दादा मौलाना यूसुफ कांधलवी और परदादा मौलाना इलियास कांधलवी ने अपने मिशन से सूफी इस्लाम की जगह वहाबी मत को फैलाने में योगदान दिया. हालांकि यह भी है कि इन लोगों के पूर्वज खुद सूफी थे. लोग यह भी दलील देते हैं कि पश्चिम एशिया के देश भारत का कुछ सम्मान इसलिए भी करते हैं कि इस तहरीक का मुख्यालय भारत में है.
मौलाना साद का उदय
तब्लीगी जमात के तीसरे अमीर मौलाना इनामुल हसन की 1995 में देहांत के बाद से ही मौलाना साद जमात मुख्यालय के कामकाज में सक्रिय भूमिका निभा रहे थे. गौरतलब है कि उन्हें कभी अमीर नहीं बनाया गया. दरअसल, जमात के तीसरे अमीर मौलाना इनामुल हसन ने 10 लोगों की जमात बना दी थी, जो आपस में मशविरा करके फैसले करती थी. इसे शूरा कहा गया. इन 10 लोगों में पांच भारत के कामकाज के लिए थे बाकी लोग पाकिस्तान और बांग्लादेश समेत विदेशों की तब्लीगी जमात के मुख्यालयों में थे.
भारत के पांच लोगों में सबसे कम उम्र के मौलाना साद कांधलवी, मौलाना इनामुल हसन के बेटे मौलवी जुबैरुल हसन, मौलाना उमर, मौलाना इजहार और मियांजी मेहराब. इनमें से प्रत्येक एल्फाबेटिकल ऑर्डर में मरकज के कामकाज का तीन दिन तक फैसला करते थे, वे तीन के लिए फैसले होते थे. ये व्यवस्था बहुत लंबी नहीं चल पाई क्योंकि इनमें से एक-एक कर बुजुर्गों की मौत होती गई.
शूरा के पांच भारतीय सदस्यों में से मौलाना उमर, मौलाना इजहार और मेवात के मियांजी मेहराब का इंतकाल हो गया. 2014 में मौलवी जुबैरुल हसल का भी देहांत हो गया. इस तरह शूरा के पांच भारतीय सदस्यों में से सिर्फ मौलाना साद रह गए.
2015 में जमात से जुड़े कुछ बुजुर्ग और जिम्मेदार लोगों ने मौलाना साद से कहा कि वे फिर से शूरा गठित कर दें, जिसकी मांग कुछ लोग पहले से करते रहे थे. एक सूत्र का कहना है, ‘‘मौलाना साद नाराज हो गए. उन्होंने कहा कि शूरा की कोई जरूरत नहीं है. उन्होंने यह भी कह दिया कि ‘मैं उम्मत का अमीर हूं, जो मुझे अमीर नहीं मानता जहन्नुम में जाएगा. उन्होंने तब्लीग के काम को ठीक से नहीं समझा.’’ सूत्रों का कहना है कि मौलाना साद को कभी विद्वान नहीं माना गया.
लेकिन तब्लीगी जमात में दो धड़ा 2016 में हुआ. रमजान के महीने में मौलाना साद के समर्थकों और विरोधियों के बीच संघर्ष हुआ. उनके समर्थकों ने कथित तौर पर मौलवी जुबैरुल हसन के परिवार पर हमला कराया. इन सबका परिवार हजरत निजामुद्दीन मरकज के पीछे रहता है. मार-पीट की घटना पुलिस केस और मुकदमे में तब्दील हो गई. इस घटना की वजह से मरकज के सारे बुजुर्ग सहम गए और कुछ वहां से निकल गए. उन्होंने इस मरकज से नाता तोड़ लिया.
इस खबर को सुनकर दुनियाभर के तब्लीगी जमातियों में मायूसी छा गई. कुछ महीने बाद तब्लीग से जुड़े बुजुर्ग आलिमों ने तब्लीग का अलग काम शुरू कर दिया. उन्होंने सात सदस्यों की एक शूरा बनाई और सब काम मशविरा से करना शुरू किया. इस शूरा में मौलवी इब्राहिम देवला, मौलवी अहमद लाट, मौलवी इस्माइल गोधरा, मौलवी जुहैरुल हसन, फारूक अहमद, डॉ. खालिद सिद्दीकी, डॉ. सनाउल्लाह हैं. इनमें से शुरू के तीन मौलाना गुजरात में क्रमशः भरूच, सूरत और गोधरा के मूलनिवासी हैं. वैसे, इस शूरा में तीन और सदस्य हैं, दो पाकिस्तान और एक बांग्लादेश के, जो अपने मुल्क में तब्लीग का काम देखते हैं. शूरा का हर सदस्य कम से कम 50 साल तब्लीग के काम में लगा चुका है.
दरअसल, मौलाना साद पर इल्जाम है कि वे तब्लीगी जमात की व्यवस्था में वंश परंपरा लाना चाहते थे. चूंकि उनके परदादा मौलाना इलियास कांधलवी ने यह काम शुरू किया था और वे पहले अमीर थे और फिर उनके दादा मौलाना यूसुफ कांधलवी दूसरे अमीर बने. लेकिन मौलाना इलियास कांधलवी ने अपने बेटे को अमीर नहीं बनाया था बल्कि शूरा ने उन्हें अमीर चुना.
इसी तरह, मौलाना यूसुफ कांधलवी ने अपने बेटे मौलाना हारून कांधलवी को अमीर नहीं बनाया बल्कि शेखुल हदीस मौलाना जकरिया कांधलवी ने मौलाना इनामुल हसन को अमीर बनाया, जो हजरत जी के नाम जाने जाते थे. मजेदार बात यह है कि यह सब मूलतः कांधला के रहने वाले थे. यही नहीं, मौलवी जुबैरुल हसन और मौलवी हारून (मौलाना साद के पिता) की माएं, सगी बहनें थीं. ये दोनों बहनें मौलाना जकरिया कांधलवी की बेटियां थीं. इस तरह यह खानदान एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है. मौलाना साद के समर्थक उनके दादीहाल पक्ष को ध्यान में रखते हुए उन्हें अमीर घोषित करना चाहते थे, लेकिन उन्हीं के पूर्वजों ने वंश परंपरा की बजाए शूरा के फैसले को महत्वपूर्ण बताया था.
दुनिया के 200 देशों में तब्लीगी जमात से करीब 10 करोड़ लोग जुड़े हुए हैं. अलग हुए गुट से जुड़े लोगों की संख्या के बारे में सटीक तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन एक अनुमान के मुताबिक, आधे भारतीय तब्लीगी और पाकिस्तान तथा बांग्लादेश की तब्लीगी जमातें इससे जुड़ी हुई हैं.
दिल्ली की फैज इलाही मस्जिद में दूसरे धड़े मुख्यालय से जुड़े एक तब्लीगी का दावा है कि दुनिया 90 फीसद तब्लीगी उनके धड़े से जुड़े हैं. पाकिस्तान के तब्लीगी जमात के प्रमुख मौलाना नजरुर रहमान हैं, और मौलाना तारिक जमील अच्छे वक्ता माने जाते हैं. मौलाना तारिक जमील भारतीय अभिनेता आमिर खान समेत दुनियाभर में कई प्रमुख फिल्मी हस्तियों और खिलाड़ियों से बात करते रहते हैं.
अब क्या होगा?
सरेशवाला तब्लीगियों के आंदोलन को ‘राष्ट्र विरोधी' मानने से साफ इनकार करते हैं. उनका कहना है कि कुछ भटके हुए लोगों की हरकतों को जमात की शिक्षाओं से नहीं जोड़ा जा सकता. उनका कहना है, ‘‘यह पूरी तरह धार्मिक आंदोलन है.'' उनका कहना है कि गृह मंत्रालय के पास तब्लीगी जमात की गतिविधियों का तभी से डॉसियर है जब से इसने अपना शुरू किया. हजरत निजामुद्दीन में इसका मरकज और थाने के बीच सिर्फ एक दीवार का फासला है.
उनका कहना है कि अगर इसकी कोई गतिविधि संदिग्ध होती तो किसी न किसी पूर्ववर्ती सरकार ने इसके खिलाफ कार्रवाई जरूर की होती. सरेशवाला का कहना है कि मौलाना साद और उनके परिवार के लोग बहुत साधारण जिंदगी जीते रहे हैं. कांधला में बंगला और दूसरी संपत्तियां उन्हें विरासत में मिली हैं. उनका परिवार के पास पहले से ही काफी जमीन थी.
उनका कहना है कि मौलाना के खिलाफ मनी लॉन्ड्रिंग का मामला टिक नहीं पाएगा. इसकी वजह यह है कि जमात में जाने वाले लोगों को अपना खर्च खुद उठाना होता है, उन्हें कोई इसके लिए पैसा नहीं देता. वे खुद अपनी यात्रा और खाने-पीने का खर्च उठाते हैं. इसके अलावा, मरकज में जो खर्च होता है उसके लिए लोग दान देते हैं, जो प्रायः जकात का पैसा होता है. यह रकम भी ज्यादा नहीं होती.
तब्लीगी बेहद खामोशी से अपना काम करते हैं, वे कोई दिखावा नहीं करते. मौजूदा विवाद ने इस आंदोलन के इतिहास में पहली बार तब्लीगियों को लोगों की नजर में ला दिया है. यकीनन अभी इसका अच्छा अंजाम नजर नहीं आता. तब्लीग से जुड़े लोग, जो अपने आमाल यानी कर्म को महत्वपूर्ण मानते हैं, मानते हैं कि निजामुद्दीन मरकज से हुई चूक की सजा सबको मिल गई लेकिन आखिरकार ये दिन भी गुजर जाएंगे.
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