कोरोना संकट से इंसान तो इंसान भगवान भी नहीं बच पाए. पहली बार 10 दिनों तक महाकाल पर भांग नहीं चढ़ी. इस बारे में इंडिया टुडे ने पुजारी राघव शर्मा से बात की. 27 वर्षीय राघव आठ साल से पूजा करा रहे हैं. इनकी कई पीढ़ियां पूजा करती रही हैं और इनके घर से 6 पुजारी हैं.
-क्या इससे पहले कभी लॉकडाउन जैसी स्थिति का सामना करना पड़ा?
-नहीं, मैंने जब से होश संभाला तब से पहली बार मंदिरों के दरवाजे भक्तों के लिए बंद नहीं करने पड़े.
-पहले और अब पूजा पाठ की विधि या तरीके में क्या बदलाव आया?
-पहले जो भव्यता थी वह अब कहां रही...पहले महाकालेश्वर की पूजा के लिए 4-5 पुजारी, कम से कम दो सेवक हुआ करते थे. कई गार्ड तैनात होते थे, जिससे भीड़ नियंत्रित रहे. पर अब अधिकतम दो पुजारी एक सेवक (भगवान की पूजा, श्रृंगार के वक्त फूल, अबीर, गुलाल यानी पूजन सामग्री देने के लिए रहता है). भीड़ तो होती नहीं सो कभी-कभी 2 गार्ड तैनात रहते हैं. रोजाना सुबह 4 बजे होने वाली भस्मआरती में वीआइपी या सामान्य सभी प्रकार के भक्तों का प्रवेश बंद है. गर्भगृह में सामन्य दर्शन भी बंद है. आरती में केवल 1-2 पुजारी और 1 सहायक ही मौजूद रहता है. पूजा पाठ का दायरा भी सीमित करना पड़ा.
-सोशल डिस्टेंसिंग कैसे मेंटेन करते हैं ?
-मैंने जैसा बताया अब भीड़ तो होती नहीं, अब महाकालेश्वर की पूजा-श्रृंगार में आधे से भी कम पुजारी, सेवक रहते हैं. भक्त तो दिखते नहीं. मंदिर के गेट के अलावा पूजा स्थल में सैनिटाइजर रखा रहता है. पुजारी यानी हम लोग खुद भी अपना सैनिटाइजर रखते हैं. मास्क लगाना अनिवार्य है. बस जब सामान्य आरती और भस्मआरती करते हैं तो मास्क हटा देते हैं. जब लोग ही नहीं तो भीड़ कैसी? कहां भस्मआरती में कम से कम 2,000 लोग होते ही थे वहां लोग नजर ही नहीं आते अब.
-क्या इन दिनों कभी पूजा सामग्री या भोग के सामान की कमी से जूझना पड़ा?
-लॉकडाउन के बाद ऐसी स्थिति तो नहीं आई. वैसे भी हम लोग कम से कम डेढ़ दो महीने का राशन और भोग सामग्री संग्रह करके रखते ही हैं. लेकिन हां, महाकालेश्वर को रोजाना यहां शाम को भांग चढ़ती है. 26 मार्च से लेकर 6 अप्रैल तक भांग नहीं मिली. 7 अप्रैल को जाकर भांग की सप्लाई शुरू हुई. इसके अतिरिक्त जब लॉकडाउन से कुछ दिन पहले नियम सख्त हो रहे थे और हम बिल्कुल भी इसके लिए तैयार नहीं थे तो आवाजाही में दिक्कत आने की वजह से 3-4 दिन फूल माला और फूलों की कमी से भी जूझना पड़ा.
पूजा में महाकाल जी और उनके परिवार गणेश जी, पार्वती जी, नंदी, कार्तिकेय जी और त्रिशूल सभी के लिए फूल और बड़ी-बड़ी मालाएं पूजा में लगती हैं. फूल, मंडी से मंगवाए जाते थे. सख्ती की वजह से 3-4 दिन हमें फूलों और मालाओं की आपूर्ति नहीं हो पाई. हालांकि स्थानीय स्तर पर कुछ फूल और एक माला का इंतजाम हमने जैसे-तैसे किया. लेकिन जल्द ही मंदिर प्रशासन ने रास्ता निकाल लिया. फूल और माला लाने की अनुमति प्रशासन से हमें मिल गई.
पूजा में महाकाल जी और उनके परिवार गणेश जी, पार्वती जी, नंदी, कार्तिकेय जी और त्रिशूल सभी के लिए फूल और बड़ी-बड़ी मालाएं पूजा में लगती हैं. फूल, मंडी से मंगवाए जाते थे.
सख्ती की वजह से 3-4 दिन हमें फूलों और मालाओं की आपूर्ति नहीं हो पाई. हालांकि स्थानीय स्तर पर कुछ फूल और एक माला का इंतजाम हमने जैसे-तैसे किया. लेकिन जल्द ही मंदिर प्रशासन ने रास्ता निकाल लिया. फूल और माला लाने की अनुमति प्रशासन से हमें मिल गई.
-भगवान की रसोई यानी भोग बनाने में सामग्री की वजह से दिक्कत आई?
-जैसा कि मैंने बताया राशन की अग्रिम व्यवस्था मंदिर में रहती है तो दिक्कत नहीं हुई. महाकाल का पांच बार भोग लगता है.
इसमें सामान्य भोजन जैसे रोटी, सब्जी, चावल, सांभर झोल वाली सब्जी तो एक पहर में सूखे मेवे, फल, नमकीन, दूध, एक बार चावल, दूध बूंदी के लड्डू वगैरह. रात में सोने से पहले केसर का दूध, सूखे मेवे, फल का भोग लगता है. पर यह सब मंदिर में उपलब्ध थे. मंदिर की अपनी गौशाला है तो दूध-दही, पंचामृत की दिक्कत हुई नहीं. सब्जी वगैरह की व्यवस्था भी होती ही रही.
-क्या कोई त्यौहार लॉकडाउन या कोरोना संकट के दौरान पड़ा, अगर पड़ा तो कानून के दायरे में रहते हुए कैसे इसे संपन्न किया?
-लॉकडाउन की घोषणा के बाद तो कोई त्यौहार नहीं पड़ा, पर हां, होली के बाद रंगपंचमी का उत्सव जरूर यहां बड़ी धूम धाम से मनाया जाता है. इस बार 14 मार्च को यह उत्सव मनाया गया. टेसू के फूलों के प्राकृतिक रंगों से होली खेली जाती है. रंगपंचमी के उत्सव में महाकाल का श्रृंगार कर उनकी यात्रा निकलती है. 30-35 हजार लोग तो हर साल शामिल होते ही हैं. लेकिन इस बार 7-8 हजार लोग भी मुश्किल से शामिल हुए.
यह यात्रा उज्जैन और आसपास के इलाकों के मुख्य मार्गों से बैंड बाजे, ढोल नगाड़ों के साथ निकलती है. लेकिन इस बार यह यात्रा उतनी भव्य नहीं थी. महाकाल की सवारी को पूरे उज्जैन या आसपास के मुख्य द्वार में घूमाने की अनुमति नहीं थी. सीमित गाजे-बाजे के साथ मंदिर परिसर के आस-पास ही महाकाल की सवारी और 21 चांदी के ध्वज (इन ध्वजों का धार्मिक महत्व है) घुमाकर फिर मंदिर में रखने पड़े..
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