अंकिता जैन/ लॉकडाउन डायरीः ग्यारह
रात गहराई हुई थी. जंगल के बीच झींगुरों का कोलाहल था. बाकी हवा थी जो सन्नाटे के बीच सांय-सांय करती बह रही थी.
गांव के अधिकांश घरों में लोग गहरी नींद सोए हुए थे. तब तक, जब तक एक घर की भीतर से लगी चटकनी अपने-आप खुलने नहीं लगी. वह दबे पांव घर में घुसा. घरवालों को अगर कुछ सुनाई दे रहा था तो उसके नथुनों से निकलने वाली सरसराहट, और उसके भारी शरीर का अंदाज़ा. वे चुपचाप पड़े रहे. इस समय विरोध कोई उपाय भी नहीं था. वह घर के भीतर घुसा. सूंघते हुए संदूक की तरफ़ गया और उसमें रखे शहद को चट कर गया.
इस पूरी प्रक्रिया में घर का एक सदस्य भी घायल हुआ. लेकिन वह क्योंकि एक भालू था, जंगली भालू तो उससे कैसे लड़ा जा सकता था?
ठीक वैसे ही जैसे उसका पड़ोसी उस हाथी से नहीं लड़ पाया जो कुछ घंटों पहले उसकी छत और दीवार तोड़कर गया था. साथ ही अनाज से भरी वह छपरी भी, जिसकी गंध पाकर वह अपनी भूख मिटाने आया था.
लॉकडाउन के दो हफ्ते बीत चुके हैं.
शुरू-शुरू में होने वाली जद्दोजहद अब एक नियमित रूप लेकर अपने-आप को खांचे में सेट करने लगी है. व्यवस्थाएं बनने लगी हैं. घरों में दाई-नौकरों के बिना भी काम करना लोग सीखने लगे हैं.
आश्चर्यजनक रूप से कई देशों के आसमान प्रदूषण मुक्त दिखने लगे हैं. मजदूरों से लेकर जाति-धर्म के नाम पर भी लट्ठम-लट्ठा होने लगा है. किन्तु करोड़ों वाली इस आबादी में मुख्यधारा की समस्याएं दिखाने वालों को अब तक शायद ही ‘जानवर के हमले के बाद छत बचाने की समस्या’ दिखी हो!
मोबाइल या लैपटॉप पर यह लेख पढ़ने वाले आप-हम जैसे लोगों के सामने भी शुरुआती दिनों में सबसे बड़ी समस्या राशन, दवाई या घर में कैद होने की थी.
अपने ही घर की छत को इस लॉकडाउन में बचाना भी पड़ेगा ऐसी नौबत हमारे सामने नहीं आई. लेकिन सब हमारी तरह किस्मत और सुविधाओं के धनी कहां होते हैं. कई ऐसे भी होते हैं जो हर रात यह प्रार्थना करके सोते हों कि अगली सुबह जब उठें तो घर की दीवार और छत सलामत रहे.
जशपुर और आसपास के जिलों में जंगल में बसे हुए अनेक गांव ऐसे हैं जहाँ से होकर गुज़रता है हाथियों का कुनबा. सतपुड़ा की ये पहाड़ियां और घने जंगलों से होकर ये हाथी पूर्वोत्तर से दक्षिण का रास्ता तय करते हैं. इसी रास्ते में रहते हैं कई मनुष्य, जो प्रतिवर्ष हाथियों का यह प्रकोप सहते हैं.
वैसे मेरे जैसी प्रकृति की हिमायती तो यह कहेगी कि हम मनुष्यों ने इनके रास्ते में अपने घर बनाए ना कि ये हमारे घरों में आए. किन्तु आज जब करोड़ों की आबादी वाले इस देश में भूमि की इतनी कमी है कि लोग सीमेंट के जंगलों में माचिस की डिब्बियों में रह रहे हों वहां इन गांव-वालों, जंगल और जानवरों का तालमेल निराला है.
कई बार, यह भालू के रूप में दिखता है तो कई बार जब हाथी के रूप में, जो गांव में घुसकर घरों की छत-दीवारें तोड़ देते हैं तो उनके पास भागने के सिवा कोई चारा नहीं रहता. मुझे इसके बारे में पहली बार पांच साल पहले पता चला था.
शादी के बाद इस घर में आए कुछ ही दिन हुए थे. जशपुर की आबोहवा देश के उन सभी शहरों से बहुत अलग थी जिनमें मैं अब तक रही थी. ऐसा लगता था मैं दूसरी ही दुनिया में आ गई हूँ. यह जगह सबसे कटी हुई होकर भी देश का हिस्सा बनकर धड़क रही है.
यह दुनिया वाक़ई अलग है इसका यकीन मुझे उस दिन जब एक बार देर रात मेरे पति के पास एक फ़ोन आया. जब उन्होंने कहा कि “गाँव से फ़ोन था पापा के साथ जाना है, हाथी भगाने” तो पहले मैं कुछ चौंकी फिर सकते में आ गई. मैं अब तक कई गांव में रही थी. पूरा बचपन ही गांव में बीता था. किन्तु ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था कि आधी रात हाथियों से अपने-आप को बचाने, अपनी छत बचाने जाना पड़े.
गांववाले रात के समय अपने खेतों में मचान बनाकर, मशालें लेकर, भीड़ में एक साथ हाथियों को भगाते हैं.
रात के समय ही हाथी जब अँधेरे में खाने की तलाश में इधर-उधर गाँव में घुसते हैं, कई बार इनके द्वारा किसानों के मवेशी कुचल दिए जाते हैं तो कई बार ये खड़ी फसल को खाने खेतों को तहस-नहस कर देते हैं. तब गाँव वाले इन्हें भगाने के लिए झुण्ड और मसलों का तरीका अपनाते हैं.
अब क्योंकि लॉकडाउन चल रहा है. भीड़ जमा नहीं हो सकती. घरों से निकलने पर मनाही है. ऐसे में यदि गाँव में हाथी घुसेगा तो गांववाले क्या करेंगे?
दो दिन पहले ही मालूम चला कि कुछ जशपुर परिक्षेत्र में कुछ हाथियों घुस आए हैं. गाँव वालों के घर तोड़ दिए हैं. अनाज से भरी झोंपड़ी की दीवार तोड़कर शायद वे हाथी अपनी भूख मिटाने गए थे.
लॉकडाउन के समय में वनविभाग के सामने यह एक नयी चुनौती थी. जिससे मुस्तैदी से निपटने की कोशिश की जा रही है. ‘हाथी गस्तीदल’ प्रभावित क्षेत्रों में जाकर माइक द्वारा सुरक्षित रहने और सुरक्षा बनाए रखने की समझाइश दे रहे हैं. वनमंडलाधिकारी स्वयं भी गस्तीदल के साथ प्रभावित क्षेत्रों में जाकर इस समस्या से निपटने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन ना तो उन हाथियों को अपना रास्ता बदलने कह सकते हैं ना ही गाँव वालों को हटा सकते हैं.
इस लॉकडाउन में यदि आपको घर में बंद रहते-रहते डिप्रेशन महसूस होने लगा हो तो एक बार बस यह सोचिएगा कि आपके पास एक सलामत छत है जिसे बचाने की चिंता नहीं, क्योंकि आपके सामने कोई ‘हाथी’ नहीं.
(अंकिता जैन वैदिक वाटिका की निदेशक और सीडैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस विभाग में एक्स रिसर्च एसोसिएट और साहित्यकार हैं. जशपुर से उन्होंने यह लॉकडाउन डायरी लिखी है. यहां व्यक्त विचार उनके अपने हैं और उससे इंडिया टुडे की सहमति आवश्यक नहीं है)
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