अगर कोई कहे कि दुनिया भर की अधिकतर सभ्यताएं नदियों के किनारे फूली-फलीं और विकसित हुईं तो यह कोई नई बात नहीं होगी. हम सबने यह छठी कक्षा से पढ़ना शुरू कर दिया था. यह और बात है कि अपने आसपास मरती नदियों को देखकर और मुंह फेरकर चल देना हमारी आदतों में शुमार हो चुका है.
पर, नदियां न सिर्फ मानव सभ्यताओं के बढ़ने और उनकी जिजीविषा के साथ, कई मामलों में उनके खात्मे के भी गवाह रहे हैं बल्कि नदियों ने इंसानों में विस्मय, प्रेरणा और श्रद्धा का भाव पैदा किया है.
गरमी का मौसम शुरू होते ही देशभर में पानी की किल्लत शुरू हो जाती है और उनमें से एक नाम तमिलनाडु के शहर चेन्नै का भी होता है. हालांकि, विडंबना यही है कि तमिलों ने पुराने समय से ही अपने जलागारों और जलस्रोतों का न सिर्फ संरक्षण किया बल्कि अपनी पूजा में भी शामिल किया. तमिलों के लिए जलस्रोत खेती के साथ-साथ व्यापार और परिवहन का साधन भी थे तो जलस्रोतों की महत्ता समझना कोई कठिन नहीं है.
तमिलनाडु में नदियों और झीलों के किनारे ही वाणिज्य और धर्म के केंद्रों का उदय हुआ. नदी-तालाब-पोखरे तमिलनाडु की संस्कृति में, उनके अंधविश्वासों, किस्से-कहानियों और लोककथाओं में आने लगे. मसलन, यह माना जाता है कि एक बार जब मदुरांतक्कम झील का पानी अपने किनारों से उफनकर बाहर निकलने को बेताब था और अधिकारियों ने स्थानीय लोगों से गांव खाली करवाना शुरू कर दिया था, तब भगवान राम खुद अपने अनुज लक्ष्मण के साथ अवतरित हुए और इस झील की रक्षा की.
वैसे यह बात कत्तई निराधार नहीं है और इस कथा में कुछ तथ्य भी हैं. मसलन, चेंगलपूट के अंग्रेज अधिकारी कर्नल लियोनेल प्लेस, माना जाता है कि वह इस घटना का गवाह था, ने इस घटना के बाद स्थानीय राम मंदिर में जनकवल्ली (सीता) का एक मंदिर बनवाया था और वहां एक शिलालेख भी खुदवाया था.
इस घटना का जिक्र एम. अमृतालिंगम के शोधपत्र रिव्यूलेट इन मिथ्स ऐंड फोकलोर्स ऑफ तमिलनाडु में भी मिलता है.
आज से दो हजार साल पहले ईस्वी संवत् के शुरुआती सदियों में तमिषकम (आज के दक्षिण भारत का अधिकतर तमिलभाषी इलाका) के तीन प्रमुख राजवंशों का शासन था. पेरियार नदी घाटी में चेर, कावेरी नदी बेसिन में चोल और वैगेई और ताम्रवर्णी नदियों की घाटी में में पांड्यों का शासन था.
इन नदियों का वहां की राज-व्यवस्था के साथ ही जनता के रोजमर्रा के जीवन पर न सिर्फ आर्थिक बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक असर भी पड़ा. नृत्य, संगीत, शिल्प और दर्शन के न जाने कितनी ही शाखाएं इन नदी तटों पर विकसित हुईं.
तमिल साहित्य का सामान्य गुण के बारे में चर्चा करते हुए एम. अमृतालिंगम ने एक शोध-पत्र लिखा है, जिसमें वह कहते हैं कि उस समय के तमिल साहित्य में नदियों की प्रशंसा में पद्य लिखे गए हैं. मसलन, कावेरी की स्तुति में तमिल महाकाव्य शिल्पादिकारम में कहा गया हैः
ऊझावार ऊदई, मदागू ऊदई
उदई नीर ऊदई तनपादंगकोअल विज़ावर ऊदई सिरातु अर्प,
नादंतै वाजि कावेरी
यानी, ".. आप साथ-साथ चलते हैं, हलवाहों के गीत सुनते हैं, जल की कल-कल, आती लहरों की गर्जना और त्योहारों मनाती उत्सव की भीड़ का शोर...जो बाढ़ के पानी से पुलकित है. यह सब तेरा प्रवाह, आनंदित होने का यह कोलाहल, यह सब हमारे राजा की समृद्धि की अभिव्यक्ति है...हे कावेरी जय हो!'"
इसी तरह पारिपादल के टिप्पणीकार परिमेलजागर अपनी आठ पदावलियों वैगेई नदी के नाम करते हैं, जिस तब वैयई कहते थे.
तब नदी में आने वाली बाढ़ उत्सव की वजह हुआ करता था और इससे जुड़े कई स्थानीय त्योहार और पर्व थे. इन नदियों के पेटे में रहने वाले लोग नदी के जलस्तर में वृद्धि का आनंद मनाया करते थे. उन दिनों ताई निरादल का उत्सव खासतौर पर बहुत लोकप्रिय था. इसमें ताई के महीने में महिलाएं और बच्चियां नदी में अलसभोर में नहाया करती थी और किसी बुजुर्ग महिला के मार्गदर्शन में अच्छे पति की कामना किया करती थी.
आज भी तमिल त्योहारों में नदियों की पूजा हुआ करती है. उनकी दैनिक पूजा में भी नदियां मौजूद हैं. जरूरी नहीं कि किसी बड़ी नदी को ही श्रद्धेय माना जाए, स्थानीय नदियों को भी उतनी ही श्रद्धा से पूजा जाता रहा है और उन्हें ऐसी मां माना जाता है जो खिलाती है, प्यास बुझाती है और अगर गुस्से में तो बाढ़ लाती है.
कावेरी डेल्टा का त्योहार आदि पेरूक्कू कावेरी में बारिश से जलवृद्धि पर मनाया जाने वाला उत्सव है. सप्त स्थान उत्सवम चितिरै महीने में मनाया जाता है और इसमें तिरूवयूर के आसपास के सात शिव लिंगों को साथ रखा जाता है. इन लिंगों को नाम भी पांच नदियों के नाम पर हैं वेदावार, वेत्तर, वेन्नार, कुदामारुत्ती और कावेरी. उनमें से एक अय्यापन्न हैं जिनके नाम का अर्थ पांच नदियों के देवता है, और वही तिरुवयूर के मुख्य देव हैं.
तमिल लोकनृत्य कारागम या कारागट्टम जिसको कुडाकुत्तू भी कहा जाता है और इसको वर्षा की देवी मारी अम्मन और नदी देवी गंगेयी अम्मन और कावेरी अम्मन की स्तुति को मंचीय अभिव्यक्ति माना जाता है. इस नृत्य के दौरान नर्तक अपने सिर पर पानी से भरी गगरी रखकर उसका संतुलन साधे रहते हैं. एम. अमृतालिंगम के मुताबिक, इन गगरियों को वर्षा और सात पवित्र नदियों का प्रतीक माना जाता है.
तमिलनाडु में आज भी बच्चियों के नाम नदियों के नाम पर रखे जाते हैं. पर थोड़ी उपेक्षा और थोड़ी लापरवाही के साथ विरासत से कटी पीढ़ी के नाम भले ही नदियों पर हों, पर उनको नदियों की अहमियत अभी अधिक समझ में नहीं आ रही. उद्योगों और घरों का अपशिष्ट पानी को गंदा कर रहा है, शहरों में पानी के लिए हाहाकार मच रहा है. पर हमारा ध्यान उत्सवों पर तो है, उत्सव की देवी को बचाने पर नहीं.
(मंजीत ठाकुर इंडिया टुडे के विशेष संवाददाता हैं)
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