जमाना बदल गया है. किताबें अब महज कागज पर छपे सफ़हों की शक्ल में नहीं आतीं, जिनको छूकर उनसे दोस्ती की जाए और तब पढ़ी जाएं. बाज़दफा ऐसा भी होता है कि खरीद ली गईं किताबें आलमारियों में पड़ी पढ़े जाने का इंतजार करती रह जाती हैं. पर, हाल में आई उपन्यासिका (या अधिक सटीक शब्द लंबी कहानी ही होगी) गर फिरदौस... इस फेहरिस्त से बाहर है. गर फिरदौस गौर से पढ़े जाने की मांग करने वाली डिजिटल किताब है.
गर फिरदौस... युवा लेखिका, रिपोर्टर और घुमक्कड़ प्रदीपिका सारस्वत के लंबे गल्प का नाम है और डिजिटल दुनिया का कमाल है कि वह सिर्फ किंडल संस्करण में आई है.
प्रदीपिका सारस्वत ने अपनी हालिया जिंदगी के बेहद अहम साल संघर्ष में डूबे कश्मीर में बिताए हैं और पिछले पांचेक साल में घाटी (या बाहर भी) घटी कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं की साक्षी (जाहिर है, बतौर पत्रकार) भी रही हैं. इस किताब के बारे में अपने फेसबुक पोस्ट में सारस्वत लिखती भी हैं, वह अपनी शुरुआत नॉन-फिक्शन के जरिए करना चाहती थीं.
पर पत्रकार दिमाग पर कथाकार मन भारी पड़ा.
बहरहाल, गर फिरदौस शिल्प के लिहाज से बेहतर और गंभीर है. इसकी हर पंक्ति में आप कश्मीर को, खासकर वादी को, उसकी दुखती रग को और उसके गम को महसूस कर सकते हैं. शायद पहली दफा किसी ने कश्मीर पर लिखा और केसर, डल और चिनार का जिक्र किए बगैर कहानी आगे बढ़ी.
ऐसा प्रतीत होता है कि सारस्वत ने कश्मीर की गम में खुद को डुबोकर लिखा है. आप पढ़ते-पढ़ते फिर से एकाध सफहे पीछे जाते हैं, रेफरेंस लेते हैं और उन तीन किरदारों के बारे में जानने की कोशिश करते हैं जो आपके साथ कहानी के साथ चलते हैं. सारस्वत की खूबी है कि जिन किरदारों को हमने खबरों में, सैकड़ों कहानियों में या पचासेक फिल्मों में देखा, समझा, पढ़ा है, वह अलग मिजाज और अलग बू के साथ गर फिरदौस में नमूदार होते हैं और कहानी खत्म होने के बाद आप ठगे रह जाते हैं कि कहानी खत्म हो गई!
कहानी खत्म हो जाती है पर किरदार आपका पीछा नहीं छोड़ते. सारस्वत की यही खासियत भी है और कामयाबी भी.
सारस्वत की कहानियों में वहां की वह बू मौजूद है, जिसको बेहद ऑथेंटिक माना जाता है. खासतौर पर उस वक्त में, जब कई लेखकों ने कश्मीर पर सतही लेखन किया है वह भी दिल्ली में बैठे-बैठे, सारस्वत का गल्प भी कथेतर रिपोर्ताज का मजा देता है. वह भी विश्वसनीय तरीके से.
सारस्वत का लेखन वाक़ई सम्मोहक है. ऐसा लगता है कि किसी ने वादी की चिल्लै-कलां की उदास पृष्ठभूमि पर लंबी नज्म लिखी हो. इस लंबी कहानी में इश्क़ भी है, कश्मकश भी. आतंकवाद का प्रेत भी है और जिंदगी के खुरदरे रंग भी.
पर सारस्वत के गल्प में व्यवस्था, भारतीय राज्य की, पुलिस की और सीमापार आतंकवाद का व्यवस्थागत और संस्थागत रूप हल्की झलक लेकर आता है जिसका असर किरदारों की जिंदगी पर पड़ता है. यह उनके लेखन की सरहद भी है--जो संभवतया कश्मीरी जीवन को नजदीक से देखने की वजह से पैदा हुई हो--और मजबूती भी.
कुल मिलाकर, सिर्फ डिजिटल फॉर्मेट में होने पर भी गर फिरदौस पठनीय है और पढ़ने के बाद आप सारस्वत के लेखन के कायल भी होंगे. उनके कथ्य और शिल्प दोनों पर आपका भरोसा पुख्ता होगा. सारस्वत की भाषा स्थानीयता का विश्वसनीय पुट लिए हुए है और उसमें एक प्रवाह है.
किताबः गर फिरदौस
लेखिकाः प्रदीपिका सारस्वत
मूल्यः 95 रुपए
संस्करणः डिजिटल (किंडल संस्करण), अमेजन पर उपलब्ध
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