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हर विसंगति पर पैनी नजर

आर.के. लक्ष्मण (1921-2015)उनका कार्टून किरदार कॉमन मैन हर भारतीय का अक्स बन गया

आर.के. लक्ष्मण
आर.के. लक्ष्मण

आधुनिक भारत के निर्माता/ गणतंत्र दिवस विशेष

परिहास वास्तव में अपमान की कला है जो व्यंग्य के रूप में पेश की जाती है. कार्टून इशारों में कही जाने वाली कला है. यह या तो अपने लक्ष्य पर सीधे तौर तीखा हमला करता है या विषय की कमजोरियों या खामियों को मान्य तरीके से उजागर करता है, जो दर्शकों को गुदगुदाता है. रसिपुरम कृष्णस्वामी लक्ष्मण उर्फ आर.के. लक्ष्मण इस दूसरी कला में माहिर एक विलक्षण कार्टूनिस्ट थे. 1951 में कार्टून बनाना शुरू करने से लेकर आधी सदी से अधिक समय तक वे भारत के बदलाव को दर्ज करते रहे. उनका एक मूल सिद्धांत था, ''मेरी स्केचपेन कोई तलवार नहीं है. यह मेरी दोस्त है.'' उनका अस्त-व्यस्त मूंछों वाला जाना-पहचाना आम आदमी जर्जर सदरी तथा फटी-पुरानी धोती पहने और हाथ में बंद छाता पकड़े हुए हर भारतीय का अक्स बन गया था.

लक्ष्मण भले ही बुद्धिजीवियों के आदर्श या अनपढ़ों का मनोरंजन करने वाले न रहे हों लेकिन वे हर उस भारतीय के साथी थे जो समाजवाद की सनक और आर्थिक सुधार की लहर से गुजर रहा था. मशहूर ब्रिटिश कार्टूनिस्ट डेविड लोवे ने एक बार कहा था कि वे सिरके से रेखाएं खींचते थे, न कि तेजाब से. लक्ष्मण तस्वीर के रूप में सिरके का भी रस निकालना जानते थे.

1960 में भारत के पहले महान कार्टूनिस्ट शंकर का दौर खत्म हो रहा था. लक्ष्मण ने उनकी विरासत को संभाला. उन्होंने अपने प्रहारों से राजनीति और सरकार के पाखंड को ध्वस्त कर दिया. उन्होंने किसी को आहत नहीं किया, लेकिन अंतरात्मा को झकझोरा. उन्होंने नेताओं को नाराज नहीं किया, बल्कि उनमें छटपटाहट पैदा की. उन्होंने लोगों को गुस्सा नहीं दिलाया, बल्कि उन्हें सोचने के लिए विवश किया. लक्ष्मण के व्यंग्य ने सभी वर्गों और समाजों को झकझोरा. आम आदमी के सरोकारों के साथ उन्होंने पूरे भारत को वह समय देखने के लिए विवश किया, जो वे अपनी नजर से देखते थे.

अस्सी का दशक, जब मैंने कार्टून बनाना शुरू किया था, भारत में कार्टून के लिए एक बहुत रचनात्मक ऊर्जा का समय था. लेकिन प्रिंट पत्रकारिता में लक्ष्मण का दबदबा था. उनका पॉकेट कार्टून 'यू सेड इट' बहुत व्यंग्यपूर्ण था. उन्होंने भारत को एक नजरिया दिया कि उसे कैसा होना चाहिए—एक देश जो अपनी अंधी आस्था और मसखरेपन वाली नापसंदगी के साथ बाधाओं को पार कर रहा था. वे अपने कार्टूनों से उन नेताओं की कमजोरियों को उजागर करके लोगों को हंसा रहे थे जो इंसान थे, कोई देवता नहीं. यही बात उन्हें सबसे अलग बनाती है. यही बात उन्हें सदाबहार बनाती है.

(लेखक संडे स्टैंडर्ड के संपादक हैं)

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