नरेंद्र मोदी सरकार इस साल के आखिर में तीन विधानसभा चुनावों के साथ ही आम चुनाव भी करा सकती है. हालांकि जिन वजहों से समय से पहले आम चुनाव के कयास लगाए जा रहे थे, वे बदल रहे थे और इसको लेकर असमंजस था.
बिहार विधानसभा चुनाव के वक्त माना जा रहा था कि सरकार ऐसा कर सकती है लेकिन वहां हार के बाद इस संभावना पर पूर्ण विराम जैसा लग गया. इसके बाद भाजपा ने पूर्वोत्तर समेत कई राज्यों में विधानसभा चुनाव जीत लिया या फिर जैसे-तैसे सरकार का गठन कर लिया.
इसमें संभवतः सबसे महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश में पिछले साल पार्टी की शानदार जीत रही. भाजपा ने कांग्रेस मुक्त भारत का अपना संकल्प मानो लगभग पूरा कर लिया. देश के 22 राज्यों में भाजपा की अपनी सरकार बन गई या फिर वह गठबंधन की मुख्य साझीदार है.
लेकिन साम्राज्य जितना फैला है, उतनी ही उसकी चुनौतियां बढ़ी हैं. अब केंद्र के साथ ही राज्य सरकारों के खिलाफ भी सत्ता विरोधी भावनाएं बढ़ती जा रही हैं. वक्त बीतने के साथ ही विभिन्न वजहों से सरकार के प्रति मायूसी और उदासीनता बढ़ने की उम्मीद है. संभवतः इन्हीं वजहों से सरकार समय से पहले आम चुनाव करा सकती है और इसके संकेत मिलने लगे हैं.
अब सामान्य लगने वाले घटनाक्रमों पर सरसरी नजर डालते हैं.
कर्नाटक में 17 मई को बी.एस. येद्दियुरप्पा जिस वक्त मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे थे, उसी समय दिल्ली के श्यामा प्रसाद मुखर्जी सिविक सेंटर के केदारनाथ साहनी ऑडिटोरियम में भाजपा के अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, ओबीसी और अल्पसंख्यक समेत कुल आठ मोर्चे की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्यों की राष्ट्रीय बैठक चल रही थी.
इसका उद्घाटन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने किया और प्रधानमंत्री मोदी ने भी बैठक को संबोधित किया. उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा कि वे देश के उन 22 करोड़ परिवारों के घर जाएं जिन्होंने पिछले चार साल के दौरान जन-धन, सौभाग्य, उज्ज्वला, मुद्रा जैसी विभिन्न योजनाओं से लाभ उठाया है.
भाजपा के महासचिव भूपेंद्र यादव ने पार्टी अध्यक्ष शाह के हवाले से कहा, सरकार अपनी विभिन्न योजनाओं के जरिए 22 करोड़ परिवारों के जीवन को बदला है. आने वाले एक साल के दौरान यह प्रकोष्ठ इन परिवारों से संपर्क करके सरकारी योजनाओं के फायदे बताएंगे. कथित तौर पर शाह ने पार्टी के अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के नेताओं से कहा कि वे मुस्लिम परिवारों से संपर्क कर तीन तलाक पर सरकार के कदम के बारे में बताएं.
इसी तरह महिला मोर्चे की नेताओं को महिलाओं को जागरूक करने के लिए कहा गया. ओबीसी नेताओं से कहा गया कि वे समुदाय को समझाएं कि कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष ने किस तरह ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा देने के सरकार के प्रयास पर पानी फेर दिया.
यादव ने कहा, जिस तरह से भाजपा को जनसमर्थन मिल रहा है, देश में वंश की राजनीति खत्म होने वाली है. कड़ी मेहनत से हम लगातार लोगों का दिल जीत रहे हैं और वे हमारा समर्थन भी कर रहे हैं.
लेकिन 19 मई को शाम 4 बजते-बजते जब येद्दियुरप्पा ने संक्षिप्त भाषण खत्म करने से पहले अपने इस्तीफे की घोषणा कर दी तब यह स्पष्ट हो गया कि भाजपा अपनी कोशिशों के बावजूद आठ विधायकों को अपने पक्ष में नहीं कर पाई.
वह राजनीति के उसी अखाड़े में चित हो गई, जिसके नियम मानो उसी के नेता तय कर रहे थे. केंद्र में सरकार के साथ ही सबसे बड़ी पार्टी और व्यापक आधार के बावजूद उसे विपक्षी विधायकों का विश्वास हासिल कर पाना भारी पड़ गया.
पार्टी को भी संभवतः एहसास हो चुका है कि उसके पास बस लोगों से संपर्क करके उन्हें याद दिलाने की जरूरत है कि सरकारी योजनाओं से उन्हें कितना फायदा हुआ है. यह बात दीगर है कि सरकार ने अपने काम के प्रचार में कोई कसर नहीं छोड़ी है. लेकिन यह काम अब जल्दी-जल्दी करना होगा क्योंकि उसके पास समय बहुत कम है.
इससे एक रोज पहले यानी बुधवार 16 मई को चुनाव आयोग और विधि आयोग की बैठक हुई. बी.एस. चौहान के नेतृत्ववाले तीन सदस्यीय विधि आयोग और मुख्य चुनाव आयुक्त ओ.पी. रावत और उनके सहयोगी सुनील अरोड़ा तथा अशोक लवासा ने लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के प्रति अपना समर्थन जाहिर किया.
निर्वाचन सदन में आयोजित इस बैठक में एक साथ चुनाव के लक्ष्य को 'वांछनीय' और 'साध्य' बताया गया. दोनों आयोगों ने 20 सवालों की सूची पर अपनी राय रखी लेकिन मुख्यतः उन मुद्दों पर बात की गई जो चुनाव संहिता लागू होने के बाद सरकार के कामकामज पर पड़ने वाले असर की वजह से उठते हैं.
ध्यान रहे कि 2015 में सरकार ने चुनाव आयोग से लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ कराने की संभावनाओं पर विचार करने के लिए कहा था. इस पर आयोग का कहना था कि इसके लिए संविधान और चुनाव के कानूनों में संशोधन के साथ ही एक निश्चित मात्रा में ईवीएम, चुनाव कर्मचारियों और 9,000 करोड़ रु. की जरूरत होगी. मतदान केंद्र और दूसरे लॉजिस्टिक्स के बारे में चुनाव आयोग ने कहा कि वह आने वाले दिनों में इसके बारे में विधि आयोग को बता देगा.
अब 4 अक्तूबर 2017 को चुनाव आयोग के उस बयान को याद कीजिए, जिसमें उसने कहा था कि वह सितंबर 2018 में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने में सक्षम होगा. मुख्य चुनाव आयुक्त रावत ईआरओनेट सॉफ्टवेयर के लॉन्च के अवसर पर भोपाल गए थे.
ये सॉफ्टवेयर इनएक्यूरेसी और डुप्लिकेशन को रोकता है. उन्होंने कहा कि चुनाव आयोग को ईवीएम के लिए 3,400 करोड़ रु. और वीवीपीएटी के लिए 12,000 करोड़ रु. मिल चुके हैं. मशीनों की डिलिवरी शुरू हो गई है और सितंबर 2018 तक सारी मशीनें मिल जाएंगी.
रावत ने कहा, 'हम सितंबर 2018 तक एक साथ चुनाव कराने के लिए तैयार हो जाएंगे लेकिन सरकार को फैसला करना है और जरूरी कानूनी संशोधन करने हैं.' यानी इस साल के आखिर तक आम चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग के पास पूरे संसाधन मौजूद होंगे.
लोकसभा चुनाव और राज्य विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाने की संभावना पर विशेषज्ञों की राय अलग-अलग हो सकती है, पर लोकसभा चुनाव को समय से पहले कराने पर किसी को ऐतराज नहीं होगा. न ही कोई इस बात पर ऐतराज कर सकता है कि इस साल के आखिर में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव भी लोकसभा के साथ ही हो जाएं.
फिर 18 मई को सरकार ने 24 वरिष्ठ आइएएस अधिकारियों का तबादला करके उन्हें विभिन्न मंत्रालयों में सचिव, विशेष सचिव, अतिरिक्त सचिव या चेयरमैन जैसे पदों पर बैठाया गया. इनमें से अधिकांश अपने पद पर लंबे समय तक रहने वाले हैं.
वैसे भी, उन अधिकारियों को महत्वपूर्ण पद नहीं मिल रहा, जिनके पास मात्र तीन-चार महीने का कार्यकाल बचा है. केंद्रीय मंत्रालयों में इतने बड़े पैमाने पर नियुक्तियां यूं ही नहीं होतीं. इसके अलावा, सीबीडीटी और सीबीईसी के नए चेयरमैन की भी जल्द नियुक्ति हो सकती है.
सीबीडीटी के मामले में यह जरूरी लग रहा है क्योंकि उसके कुछ आला अधिकारियों के नाम भ्रष्टाचार के एक मामले में सीबीआइ की एफआइआर में आए हैं चूंकि यह सब मौजूदा चेयरमैन के कार्यकाल में हुआ है. लिहाजा सरकार उन्हें शायद एक्सटेंशन न दे. वैसे उन्हें पहले ही एक साल का एक्सटेंशन मिल चुका है और इस महीने के आखिर में उनका कार्यकाल समाप्त हो रहा है.
मौजूदा और आने वाले समय के हालात के मद्देनजर मोदी सरकार के लिए इसी साल चुनाव कराने के फायदे भी हैं.
मोदी सरकार पर कुदरत मेहरबान रही है और अपने भाषणों में वे इस मामले में खुद को खुशकिस्मत बता चुके हैं. भूराजनैतिक परिस्थितियां भी कमोबेश उनका साथ दे रही थीं. कुदरत इस साल भी उन पर मेहरबान रहेगी क्योंकि साल भी मॉनसून सामान्य रहने की पेशनगोई की गई है.
इस महीने की 29 तारीख को केरल में मॉनसून वक्त पर पहुंच जाएगा. खरीफ की फसल अच्छी रहेगी. सितंबर-अक्तूबर में त्योहारों का मौसम शुरू हो जाता है, किसान अपनी फसलों को बेचकर, किसी भी कीमत पर, अपना काम कर रहे होंगे.
त्योहार और शादी-ब्याह के मौसम में उत्साह और उल्लास का माहौल होता है. आर्थिक गतिविधियां बढ़ जाती हैं, शादी के लिए जरूरी सामान की आपूर्ति के लिए आर्थिक गतिविधियां इतनी तेज हो जाती हैं कि पूरा अर्थचक्र घूम जाता है.
साल के ज्यादातर वक्त खाली बैठे लोगों के हाथों को भी काम मिल जाता है. ऐसे खुशगवार मौसम में नेताओं के लिए किसी न किसी बहाने लोगों के बीच जाना ज्यादा राजनैतिक फायदे दिला सकता है.
यही नहीं, जिस पेट्रोल की कीमत को लेकर विपक्षी के तौर पर भाजपा नेताओं ने अब से चार साल पहले मनमोहन सिंह सरकार की नाक में दम कर दिया था, वह मोदी की किस्मत से अंतरराष्ट्रीय बाजार में लगभग एक-तिहाई हो गई, हालांकि उपभोक्ताओं को इसका फायदा नहीं मिला.
अब संयोगवश वह कीमत बढ़ने लगी है और तेल की कंपनियां बहुत ज्यादा घाटा नहीं उठा सकतीं. लिहाजा, तेल के साथ ही महंगाई का बढ़ना भी लाजिमी है. और दीर्घकालिक प्रोजेक्शंस के मुताबिक, सस्ते तेल का जमाना लदता जा रहा है. अपनी जरूरतों के लिए आयात पर बुरी तरह निर्भर देश के लिए यह कोई अच्छा संकेत नहीं है.
इसके अलावा, विपक्ष पहले से ज्यादा एकजुट हो रहा है. उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की सपा और मायावती की बसपा एकजुट होकर लड़ने के लिए तैयार हैं. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल, ओडिशा में नवीन पटनायक का बीजद, आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी, तेलंगाना में चंद्रशेखर राव की टीएसआर आदि अभी से तैयार हैं.
महाराष्ट्र में शरद पवार कांग्रेस के साथ ही शिवसेना को साथ लाने के लिए काम कर रहे हैं. नायडू तो दक्षिण के अघोषित नेता के तौर पर काम कर रहे हैं. यही नहीं, खुद कांग्रेस भी राज्य स्तर पर भाजपा को हटाओ अभियान में जुट गई है. मुंबई में आयोजित इंडिया टुडे कॉन्क्लेव 2018 में यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा कि वे 2019 में भाजपा को केंद्र में नहीं आने देंगी.
खुद भाजपा नेतृत्व को मालूम है कि 2014 के बाद से गंगा में बहुत पानी बह चुका है, भले ही नदी साफ नहीं हुई है. अर्थव्यवस्था की हालत बहुत अच्छी नहीं है, रोजगार का मामला बेहद खराब है, कई मामलों में वादे पूरे नहीं हो सके.
ऐसे में उसके पास समय से पहले चुनाव कराकर विपक्षियों को चौंकाने और उसका अधिकतम लाभ लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. शायद इसकी तैयारी शुरू हो चुकी है.
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