तकनीक के इस दौर में इंटरनेट की अहमियत और प्रभाव तेजी से बढ़ा है और इसके साथ सोशल मीडिया का भी. सो साहित्यिक गलियारे में भी फेसबुक जैसी नेटवर्किंग साइट्स की धमक जमी है. इस तरह के लोगों, खासकर साहित्य पढऩे वाले युवाओं को लक्ष्य करके लप्रेक यानी कथित लघु प्रेम कथा के चलन की बात कही गई. बकर पुराण की आमद इसी कड़ी में जान पड़ती है. बकर पुराण को इसके लेखक-प्रकाशक ने बैचलर व्यंग्य कहा है. असल सवाल यही है कि इनका स्तर कैसा है? इस किताब को लेखक ने 'बकर साहित्य' नाम दिया है और इसे हिंदी साहित्य में नई विधा कहा है. असल में ऐसा नहीं है. यह व्यंग्य लिखने की कोशिश भर है, जो गैरजरूरी बकैती और कसी हुई न होने की वजह से ऊबाऊ बन पड़ी है.
इस किताब में अमूमन युवाओं से जुड़े करीब 47 प्रसंग हैं. शुरुआत सिनेमा से होती है. आम आदमी जब सिनेमा जाता है प्रसंग में लेखक ने सिंगल स्क्रीन सिनेमा हॉल जाने वालों, खासकर युवाओं की अल्हड़बाजी को व्यंग्य की शक्ल में जीवंत करने की कोशिश की है. कैसे वे बातों-बातों में बहस-झगड़ा, धक्का-मुक्की करते हैं और दृश्यों के दौरान कमेंट्स कर मजे करते हैं. फिर हिंदी फिल्मों में ऐसा ही क्यों होता है लेख में खासकर '90 के दशक के बॉलीवुड की मसाला फिल्मों में बार-बार नजर आने वाले ट्रेंड के बारे में लिखा गया है कि कैसे इनमें अमूमन हीरो शहरी बाबू होता था, हीरो गरीब और ससुर अमीर होता था, गुंडे बलात्कारी होते थे, जो सफल नहीं हो पाते.
इसी तरह जुम्मे की रात है, बेबी डॉल मैं सोने दी, फेवीकोल से जैसे गानों की व्यंग्यात्मक सप्रसंग व्याख्या की गई है. पूरी किताब में मुख्य तौर पर कॉलेज लाइफ या प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले युवाओं के रहन-सहन, उनकी मौज-मस्ती और प्रेम में पडऩे के विविध प्रसंग हैं. मसलन, कैसे वे अपने साथियों के कपड़े-जूते उधार लेकर पहनते हैं, लड़कियों को लुभाने की कोशिश करते हैं और इस फेर में उनका बैंड भी बज जाता है. किताब में मकर संक्रांति, दिल्ली की होली, कॉर्पोरेट दीवाली, व्रत वाले चिप्स, व्रत वाली चाट जैसे प्रसंग भी हैं. वैलेंटाइन वीक में युवकों का हर दिन के मुताबिक प्रेमिका को गिफ्ट देना और इस चक्कर में हलकान रहने के प्रसंग हैं. आखिर में बुद्ध-आनंद संवाद खंड में संवाद के जरिए तेज संगीत बजाकर पड़ोसियों को परेशान करने को हरामखोरी तो चेतन भगत के नॉवल पढऩा मूर्खता बताया गया है.
बकर पुराण का कुल जमा यही है कि इस किताब में अधिकतर प्रसंगों में गैरजरूरी बकैती है और व्यंग्य में वह धार नहीं है कि चेहरे पर अनायास ही मुस्कान दौड़ पड़े.
इस किताब में अमूमन युवाओं से जुड़े करीब 47 प्रसंग हैं. शुरुआत सिनेमा से होती है. आम आदमी जब सिनेमा जाता है प्रसंग में लेखक ने सिंगल स्क्रीन सिनेमा हॉल जाने वालों, खासकर युवाओं की अल्हड़बाजी को व्यंग्य की शक्ल में जीवंत करने की कोशिश की है. कैसे वे बातों-बातों में बहस-झगड़ा, धक्का-मुक्की करते हैं और दृश्यों के दौरान कमेंट्स कर मजे करते हैं. फिर हिंदी फिल्मों में ऐसा ही क्यों होता है लेख में खासकर '90 के दशक के बॉलीवुड की मसाला फिल्मों में बार-बार नजर आने वाले ट्रेंड के बारे में लिखा गया है कि कैसे इनमें अमूमन हीरो शहरी बाबू होता था, हीरो गरीब और ससुर अमीर होता था, गुंडे बलात्कारी होते थे, जो सफल नहीं हो पाते.
इसी तरह जुम्मे की रात है, बेबी डॉल मैं सोने दी, फेवीकोल से जैसे गानों की व्यंग्यात्मक सप्रसंग व्याख्या की गई है. पूरी किताब में मुख्य तौर पर कॉलेज लाइफ या प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले युवाओं के रहन-सहन, उनकी मौज-मस्ती और प्रेम में पडऩे के विविध प्रसंग हैं. मसलन, कैसे वे अपने साथियों के कपड़े-जूते उधार लेकर पहनते हैं, लड़कियों को लुभाने की कोशिश करते हैं और इस फेर में उनका बैंड भी बज जाता है. किताब में मकर संक्रांति, दिल्ली की होली, कॉर्पोरेट दीवाली, व्रत वाले चिप्स, व्रत वाली चाट जैसे प्रसंग भी हैं. वैलेंटाइन वीक में युवकों का हर दिन के मुताबिक प्रेमिका को गिफ्ट देना और इस चक्कर में हलकान रहने के प्रसंग हैं. आखिर में बुद्ध-आनंद संवाद खंड में संवाद के जरिए तेज संगीत बजाकर पड़ोसियों को परेशान करने को हरामखोरी तो चेतन भगत के नॉवल पढऩा मूर्खता बताया गया है.
बकर पुराण का कुल जमा यही है कि इस किताब में अधिकतर प्रसंगों में गैरजरूरी बकैती है और व्यंग्य में वह धार नहीं है कि चेहरे पर अनायास ही मुस्कान दौड़ पड़े.
बकर पुराण
लेखक: अजीत भारती
प्रकाशक: हिन्द युग्म
मूल्य: 110 रु.