14 नवंबर को एक खबर आई महान गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण नहीं रहे. इस खबर ने उन्हें दुख से भर दिया जो उनकी प्रतिभा को जानते थे. लेकिन इस खबर के साथ जो दूसरी खबर आई उसने देश की व्यवस्था पर कई सवाल खड़े कर दिए. आइंस्टीन जैसे महान वैज्ञानिक के सापेक्षता के सिंद्धांत को चुनौती देने वाले महान गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण का शव डेढ़ घंटे तक अस्पताल के बाहर एंबुलेंस के इंतजार में पड़ा रहा. अगर किसी गांव-कूचे में नारायण की यह बेकदरी होती तो चल भी जाता. पटना के एक नामी अस्पताल में जहां कई डिग्री धारक डॉक्टर अपनी सेवाएं दे रहे होंगे, वहां वशिष्ठ को कोई पहचान नहीं पाया होगा यह मुमकिन नहीं. खैर, डॉक्टरों से ज्यादा उस व्यवस्था पर सवाल खड़े होते हैं जो उन्हें सम्मान तो छोड़िए एंबुलेंस तक मुहैया न करवा पाई.
नारायण की यह नाकदरी क्या इसलिए क्योंकि वे पिछले 44 सालों से एक दुर्लभ मानसिक बीमारी 'सीजोफ्रेनिया' से जूझ रहे थे. यह बीमारी व्यक्ति का वास्तविकता के साथ संबंध धीरे-धीरे खत्म कर देती है. ऐसा व्यक्ति अपनी ही एक छोटी सी दुनिया बना लेता है. जहां वह शंका, भय से घिरा रहता है. वह घटना, वस्तुओं और लोगों से अपने संबंध का विश्लेषण अपने ढंग से करता है. वह कई तरह की तकलीफों से जूझता है. सच और आभासी दुनिया के फर्क से वह रोज जूझता है.
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ ऐंड न्यूरोसाइंसेज में 'लिविंग विद सीजोफ्रेनियाः ए जेंडर परस्पेक्टिव' शीर्षक से हुई एक रिसर्च के मुताबिक भारत में 1000 में से तीन व्यक्ति इस मानसिक बीमारी से जूझ रहे हैं. लेकिन ज्यादातर मनोवैज्ञानिकों की राय है कि भारत में बहुत कम मामले संज्ञान में आते हैं. ज्यादातर का पता नहीं चल पाता या फिर पता भी चलता है तो तब जब वह गंभीर स्थिति में पहुंच जाते हैं. पिछले साल एक मशहूर वेबसाइट को दिए इंटरव्यू में मनोचिकित्सक समीर पारिख ने कहा था, ''सीजोफ्रेनिया के तकरीबन 50 फीसदी मामले तो पता नहीं लग पाते.'' क्यों इस पर बाद में आएंगे. लेकिन अब इसी बीमारी से जूझने वाले एक जॉन नैश के बारे में भी जानते चलें. जॉन नैश अमेरिका के एक महान गणितज्ञ थे.
नैश महान गणितज्ञ थे. 22 वर्ष की उम्र में उन्होंने प्रिंस्टन यूनिविर्सिटी से पीएचडी की थी. उन्हें गणित में ‘गेम थ्योरी’ के लिए नोबेल प्राइज मिला. उन्होंने 1951 में मैसाचुसेट्स यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलोजी में बतौर प्रोफेसर ज्वाइन किया. इस बीच 1959 में उन्हें वही बीमारी हो गई जो वशिष्ठ नारायण को थी, सीजोफ्रेनिया. यह कह सकते हैं कि इस साल इस बीमारी के स्पष्ट लक्षण उनमें दिखने लगे थे. उन्हें तकरीबन नौ साल अस्पताल में रहना पड़ा. लेकिन सोशल सपोर्ट और मेडिकल ट्रीटमेंट से वह इस बीमारी से बहुत हद तक पार पा गए. इस मानसिक बीमारी से निकलने के बाद 1994 में उन्हें ‘गेम थ्योरी’ के लिए नोबेल मिला और 2015 में अबेल प्राइज मिला. जिस यूनिवर्सिटी में वे फैकल्टी थे उस यूनिवर्सिटी ने यह जानने के बाद भी कि वे गंभीर मानसिक बीमारी से जूझ रहे हैं, उन्हें अपने साथ जोड़े रखा.
अब जानते चलें वशिष्ठ नारायण की उपलब्धियों के बारे में,
डॉ. वशिष्ठ ने नेतरहाट विद्यालय से मैट्रिक की परीक्षा पास की. संयुक्त बिहार में टॉपर थे. वशिष्ठ जब पटना साइंस कॉलेज में पढ़ते थे, तभी कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जॉन कैली को उनकी प्रतिभा का अंदाजा हुआ. कैली ने उनकी प्रतिभा पहचानी और 1965 में वशिष्ठ को अपने साथ अमेरिका ले गए. 1969 में उन्होंने कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी ऑफ बर्कले से पीएचडी की और वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर बने. इसी दौरान उन्होंने नासा में भी काम किया, लेकिन मन नहीं लगा और 1971 में भारत लौट आए. उन्होंने आईआईटी कानपुर, टाटा इंस्टीट्यूट फंडामेटल रिसर्च (टीआइएफआर) मुंबई और आईएसआई कोलकाता में काम किया. 2014 में भूपेंद्र नारायण मंडल यूनिवर्सिटी में गेस्ट फैकलेटी के तौर पर वे नियुक्त हुए. काश, कि वे भारत ना लौटते तो क्या पता भारत का नारायण भी नैश की तरह किसी नोबेल का हकदार बनता!
कुछ ऐसी बातें जिन्हें जानकर कोई भी उनका मुरीद हो जाएगा
- बीएससी गणित के पहले साल में ही उन्होंने दूसरे साल का कोर्स भी पूरा कर लिया था.
- नासा में अपोलो मिशन की लॉन्चिंग के दौरान अचानक एक साथ 30 कंप्यूटर बंद हो गए थे. वशिष्ठ ने फौरन कापी पेन लिया और कैल्कुलेशन में जुट गए. यकीन नहीं होगा लेकिन जब कंप्यूटर ठीक हुए तो वशिष्ठ और कंप्यूटर के कैल्कुलेशन एक ही थे.
-आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत को उन्होंने चुनौती दी. हालांकि कथित तौर पर चुनौती देने वाले यह सारे कागज किसी ने चोरी कर लिए या खो गए थे.
मानसिक तौर पर अस्वस्थ लोगों के लिए कितने हैं तैयार हम?
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ और न्यूरोसाइंसेज (निमहान्स) के एक सर्वे के मुताबिक ग्रामीण आबादी में 1.05 फीसदी लोगों में सीजोफ्रेनिया होने का खतरा है. यह सर्वे 12 राज्यों में किया गया था.
1982 में नेशनल मेंटल हेल्थ प्रोग्राम के तहत डिस्ट्रिक्ट मेंटल हेल्थ प्रोग्राम (डीएमएचपी) 517 जिलों में शुरू किया गया. इस प्रोग्राम के तहत स्कूलों में काउंसलिंग और कॉलेजों एवं कार्यस्थल में स्ट्रेस मैनेजमेंट, जीवन जीने की कला, आत्महत्या की रोकथाम के साथ ही मानसिक रोगियों के लिए बनी सामाजिक धारणा को तोड़ने के लिए प्रोग्राम चलाए गए. 1982 में शुरू हुआ प्रोग्राम कितना सफल रहा, इसे समझने के लिए कुछ सवालों के जवाब खोजने पड़ेंगे.
गांवों को तो छोड़िए क्या शहरों में भी मानसिक बीमारी के प्रति लोग जागरुक हैं? 2016 की एक रिपोर्ट कहती है कि हर देश में हर पांचवां व्यक्ति अवसाद का शिकार है. यानी आपके साथ कतार में बैठा पांचवां व्यक्ति अवसाद से पीड़ित है. क्या वाकई लोग अपने साथ बैठे इस पांचवें व्यक्ति की तकलीफ समझ पाते हैं?
- केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक एक लाख लोगों पर तीन मनोचिकित्सक भारत में हैं. एक लाख लोगों पर 0.04 फीसदी मनोचिकित्सकों को मदद करने वाली नर्सेज हैं. जबकि आदर्श स्थिति पाने के लिए हमें 8,000 लोगों पर एक मनोचिकित्सक की जरूरत है. यानी 13,000 मनोचिकित्सक हमें तत्काल चाहिए. मनोचिकित्सीय समाज सेवक केवल 900 से हैं जबकि चाहिए 35,000.
-मेंटल हेल्थकयेर ऐक्ट, 2017 में खासतौर पर आत्महत्या रोकने और मानसिक रोगों के प्रति बनी नकारात्मक सामाजिक धारणा को तोड़ने के प्रयास शामिल किए गए हैं.
ये प्रयास सफल होंगे या फिर 1982 के कार्यक्रम की तरह ही दम तोड़ देंगे यह तो वक्त बताएगा. लेकिन विशेषज्ञों की मानें तो भारत में मानसिक स्वास्थ्य कर्मियों की बेहद जरूरत है. भारत में दुनिया के दूसरे देशों के मुकाबले 77 फीसदी मनोचिकित्सकों की कमी है. सरकारी आंकड़े भी कहते हैं, ‘‘भारत में 4,000 से भी कम मनोचिकित्सक हैं.’’
कुमार विश्वास का ही नहीं, बल्कि भारत के हर संवेदनशील नागरिक का यह सवाल है कि, भारत मां क्यों सौंपे ऐसे मेधावी बेटे इस देश को जब हम उन्हें संभाल ही न सकें?
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