मुज्फ्फरपुर के हिराली गांव के किसान सुरेश चौधरी बताते हैं, हमने 12 बीघे में इस बार गन्ना लगाया है. फसल पूरी तरह तैयार है. एक महीने पहले ही हमने चीनी मिल से गन्ना बेचने के लिए पर्ची की अर्जी लगाई. लेकिन अब तक पर्ची नहीं मिली. शामली, मुजफ्फनगर की हरेक मिल में कोशिश कर चुके हैं. लेकिन अब तक पर्ची नहीं मिली. इस बीच में गन्ना खेतों में गिरने से उसे दोबारा बंधवाने में मजदूरों का खर्चा भी 8-10 हजार रु. खर्च हो चुका है. गेहूं की बुआई में पहले से ही बहुत देर हो चुकी है. दरअसल यह व्यथा पूरे उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों की है. शामली के दुल्ला खेरी गांव के किसान रहमत कहते हैं, '' बलकट (किसी दूसरे के खेत को किराए में लेकर) साढ़े तीन बीघा खेत में गन्ना बोया था, आढ़ती से इसके लिए 12 फीसद ब्याज दर पर डेढ़ लाख रु. उधार लिया है. अब जितनी देरी पर्ची मिलने में होगी, ब्याज की रकम तो बढ़ती जाएगी.'' रहमत कहते हैं, हर साल चीनी मिलें पर्ची के लिए दौड़ाती हैं. नतीजतन किसान थकहार कम कीमत में ही गन्ना बेचने को तैयार हो जाता है.
गन्ने की फसल तैयार होने पर किसान चीनी मिल को यह सूचना देता है कि उसने कितने इलाके में गन्ने की बुआई की है. मिल सूचना के आधार पर सर्वे कराती है. फिर मिल किसान को पर्ची देती है. इस पर्ची में मिल किसान को सूचना देती है कि वह कितना गन्ना खरीदने को राजी है. किसान और मिल के बीच समझौता होने पर गन्ना कटकर मिल तक पहुंचता है.
राष्ट्रीय किसान मजदूर महासंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष अभिमन्यु कोहाड़ कहते हैं, अगर गन्ने के खेत में गेहूं बोना है तो दिसंबर के पहले हफ्ते तक हर हाल में खेत खाली हो जाना चाहिए. लेकिन ज्यादातर खेतों में अभी गन्ना खड़ा है. यह पूछने पर कि आखिर मिलें पर्ची देने में लेट-लतीफी क्यों करती हैं? वे कहते हैं,'' दरअसल मिलों के पास चीनी के अलावा कई और तरीके हैं जिनसे वे पैसा कमाती हैं. जैसे लेवी को बेचकर. मिलें लगातार कह रही हैं कि चीनी का उत्पादन मांग से ज्यादा हो रहा है. इसलिए गन्ने की कटाई में देरी से मिलों को कोई फर्क नहीं पड़ता जबकि किसान के ऊपर तो गेहूं की बुआई में देरी और गन्ना लगाने के लिए लिए गए कर्ज में ब्याज के बढ़ने से दोहरी मार पड़ती है.''
उधर, मुजफ्फरनगर की भैसाना चीनी मिल के एक कर्मचारी ने बताया, दरअसल मिल में गन्ना बहुत ज्यादा आ गया है. इसलिए पर्ची देने में देरी हो रही है. हालांकि उसने यह भी बताया कि मिलों को इस लेट-लतीफी की वजह से आर्थिक फायदा भी होता है. किसान खेतों में बर्बाद होते गन्ने और इसकी वजह से दूसरी फसल लगाने में हो रही देरी के चलते कम भुगतान पर भी राजी हो जाते हैं. लेकिन कागजों में दाम में हुई इस कटौती को नहीं लिखा जाता. यानी स्पष्ट है कि मिल मालिक गन्ना बेचने की किसान की मजबूरी का फायदा फसल की कम कीमत देकर भी उठाते हैं.
उधर, इसा बारे में ज्यादातर गन्ना किसानों का कहना है कि अगर चीनी की खपत कम और उत्पादन ज्यादा है तो सरकार को किसानों को इस बारे में पूरी जानकारी देनी चाहिए. गन्ना किसान तो परंपरागत तरीके से फसलों को उगाता और काटता है. सरकारी की उदासीनता का फायदा चीनी मिलों को और नुक्सान किसानों को होता है.
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