
पश्चिमी चंपारण के वाल्मीकिनगर टाइगर रिजर्व के घने जंगलों और छोटी-बड़ी नदियों के बीच बसा 'दोन’ क्षेत्र दिखने में जितना खूबसूरत है, यहां की जिंदगी उतनी ही कठिन है. दो हजार से ज्यादा परिवार पीढ़ियों से यहां रह रहे हैं लेकिन आज भी सड़क, बिजली, स्कूल, अस्पताल और मोबाइल नेटवर्क जैसी बुनियादी सुविधाएं इनके हिस्से नहीं आई हैं.
इन गांवों के लोग अब अपने हालात से थक चुके हैं. हाल ही के विधानसभा चुनाव में उन्होंने फैसला किया कि जब तक सरकार उनकी बुनियादी मांगें नहीं सुनेगी, वे वोट नहीं देंगे. नतीजा? चुनावकर्मी पूरे दिन बैठे रहे, पर दोन के 19 बूथों पर एक भी वोट नहीं पड़ा.
जंगल, नदी, अलग-थलग बस्तियां
रामनगर कस्बे से करीब 20 किलोमीटर आगे बढ़ते ही वाल्मीकिनगर टाइगर रिजर्व की सीमा शुरू हो जाती है. इसी जंगल के भीतर लगभग कटे-छंटे हुए 32 गांव बसे हैं. भारतीय थारू कल्याण महासंघ के अध्यक्ष राजधारी महतो बताते हैं, ''चारों तरफ जंगल, नदी और पहाड़, बीच में हम लोग. पत्तों के दोने की तरह यह इलाका चारों तरफ से बंद है, इसलिए इसे दोन कहते हैं.’’
दोन की तरफ जाते हुए पहले ही गांव अवरहिया में सरकारी स्कूल के बाहर मुकेश उरांव मिलते हैं. वे बिना भूमिका के कहना शुरू कर देते हैं, ''यहां रोड नहीं, बिजली नहीं, सिंचाई नहीं, नेटवर्क नहीं. स्कूल कहां है? एक जर्जर सामुदायिक भवन में पांच क्लास की पढ़ाई एक ही कमरे में होती है.’’ थोड़ा आगे बढ़ते ही रास्ता खुद कहानी कहने लगता है: कच्चे, उबड़-खाबड़, धंसती सड़कें, और दोनों तरफ फैला हुआ जंगल.
गांव के जयकिशन महतो बताते हैं, ''अभी तो आप अच्छे मौसम में आए हैं. चीनी मिल वालों ने गन्ना ढोने के लिए रास्ता ठीक कर दिया है, तभी गाड़ी आ पाई है. बरसात में आएंगे तो मोटरसाइकिल तक नहीं चल पाएगी. जूता हाथ में उठाकर, पैंट मोड़कर लोग चलते हैं. कई बार एक गांव से दूसरे गांव जाने में आधा दिन लग जाता है.’’
बरसात में टापू बनते गांव
दोन में तीन बड़ी और दर्जनभर छोटी नदियां हैं. बरसात में इनमें अचानक बाढ़ आ जाती है: सुबह पानी आया, दोपहर तक उतर गया. लेकिन जब पानी चढ़ता है, तो पूरा इलाका कटकर अलग-थलग पड़ जाता है. किसी नदी पर पुल नहीं है. नावें चलने लायक पानी भी नहीं होता. ऐसे में मरीज, गर्भवती महिलाएं, बुजुर्ग, सब फंस जाते हैं.

इलाके में झोलाछाप इलाज भी करते आ रहे जयकिशन बताते हैं, ''मरीज को अस्पताल ले जाना सबसे मुश्किल है. रामनगर या हरणा टांड़, दोनों 25-30 किलोमीटर दूर. बरसात में यह दूरी पूरा दिन ले लेती है. लोग मरीज को झोलंगी में टांगकर ले जाते हैं.’’ उनके साथ बैठे पंचायत समिति सदस्य भूप नारायण महतो जोड़ते हैं, ''कई रोगी तो रस्ते में ही दम तोड़ देते हैं. डिलिवरी वाली बहू हो या सर्पदंश का मरीज, कुछ नहीं कर पाते.’’
नेटवर्क मेला
नरकटिया दोन की तरफ जाते समय कांपन नदी पड़ती है. नदी में घुटने भर पानी है. गाड़ियां और गन्ना लदे ट्रैक्टर उसे पार करते हुए आगे बढ़ते हैं. लेकिन उस पार एक अजीब दृश्य नजर आता है: सैकड़ों किसान, महिलाएं, बच्चे, युवा, नदी किनारे जुटे हैं, जैसे कोई मेला लगा हो. ये दरअसल मोबाइल नेटवर्क पकड़ने के लिए इकट्ठा होते हैं क्योंकि गांवों में नेटवर्क आता ही नहीं.
गांव के कई युवा लैपटॉप और बैटरी लेकर बैठे दिखते हैं. गन्ना किसान यहां ऑनलाइन 'किसान पंजीकरण’ करवाने आते हैं. डिजिटल काम करवाने वाले कृष्ण रंजन प्रसाद बताते हैं, ''यहां थोड़ा बहुत सिग्नल पकड़ता है. वह भी इतना स्लो कि दिन भर में मुश्किल से 10-11 लोगों का काम कर पाते हैं.’’ लैपटॉप कैसे चलता है? इस पर प्रसाद के साथी रमेश बताते हैं, ''हमने सोलर प्लेट खरीदी है, उसी से चार्ज करते हैं.’’ निवासी रामाधार महतो चार दिन से रोज यहां आ रहे हैं. वे कहते हैं, ''उम्मीद कम ही रहती है, फिर भी आ जाते हैं.’’ बगल में बीएसएफ का कैंप भी लगा था, जहां वे गांव वालों के प्रमाणपत्र और रजिस्ट्रेशन बनवाने में मदद कर रहे थे.
वोट बहिष्कार: एकजुट नाराजगी
नरकटिया दोन पहुंचने पर कई लोग चौपाल लगाकर बैठ जाते हैं. सबके पास शिकायतों की लंबी सूची है. निवासी भूप नारायण महतो कहते हैं, ''हमारी तीन मांगें हैं: बारहमासी सड़क और पुल, बिजली और मोबाइल नेटवर्क.’’ वे बताते हैं कि गांव-गांव जाकर लोगों ने कैंडल मार्च भी निकाला था.''
सरकार को हम लोगों ने लिखित में बता दिया था कि अगर मांगें नहीं मानी गईं तो वोट नहीं डालेंगे. नतीजा देख लीजिए, 19 बूथों पर एक भी वोट नहीं पड़ा’’, वे कहते हैं. गांव के गुमाश्ता (स्थानीय मुखिया) बैदनाथ महतो बताते हैं, ''भोटिंग के रोज पोलिंग पार्टी बूथ पर बैठी रही लेकिन एक भी आदमी नहीं आया. नेता लोग भी इस बार आने की हिम्मत नहीं जुटा पाए. इतने साल में डीएम बस एक बार आए, वह भी आधे रास्ते से लौटा दिए गए.’’
किराने की दुकान चलाने वाली रामभरोसे देवी का दुख साफ दिखता है, ''बरसात में मोटरसाइकिल पानी में फंस जाती है, सामान बह जाता है. हम औरत लोग को सबसे ज्यादा दिक्कत है. बीमारी हो गई तो डॉक्टर नहीं दिखा सकते. डिलिवरी घर में होती है. अभी हमारे पड़ोस में एक बच्चा मर गया. मेरी बेटी फॉर्म भरने गई है, जब तक लौटेगी, दिल धक-धक करता रहता है. अब बताइए, हम काहे भोट दें?’’ आंगनवाड़ी सेविका नजमा देवी बताती हैं, ''हम और आशा पानी में तैरकर काम करते हैं. अस्पताल दूर है. जो स्वास्थ्य उपकेंद्र है, वहां सिर्फ एएनएम आती है. डॉक्टर कभी-कभार. मरीज कहां एडमिट होंगे?’’ 2014 में बने उपकेंद्र में दोपहर बाद सिर्फ सिक्योरिटी गार्ड मिलता है.

वन विभाग से टकराव
दोन के लोग सबसे ज्यादा नाराज वन विभाग पर हैं. राजधारी महतो कहते हैं, ''हमसे अच्छा जीवन तो बगहा जेल के कैदी जीते हैं. उनको बिजली, पंखा, सब सुविधा है. हम लोग? कुछ भी नहीं. वन विभाग सड़क नहीं बनने देता, बिजली नहीं आने देता.’’ 85 साल के कोमल पटवारी गुस्से में कहते हैं, ''बाघ प्रोजेक्ट से फायदा का? खाली नुक्सान ही नुक्सान है.’’
औरहिया गांव के लोगों को तो हैंडपंप लगाने तक की इजाजत नहीं है. अंत में ग्रामीणों ने खुद नदी किनारे हैंडपंप लगा लिया. रामचंद्र उरांव बताते हैं, ''वन विभाग कहता है, जंगल हमारा है, तुम घर हटाओ. पक्का मकान नहीं बनाने देता. जलावन की लकड़ी लाओ तो केस कर देता है.’’ भूप नारायण जोड़ते हैं, ''वाल्मीकिनगर में सड़क-बिजली सब है. मुख्यमंत्री आते हैं न? यहां कोई नहीं आता, इसलिए नियम सिर्फ यही लागू होते हैं.’’
प्रशासन बनाम वन विभाग
जिल प्रशासन कहता है कि विकास रोकने की वजह वन विभाग है. उप विकास आयुक्त सुमित कुमार कहते हैं, ''हम विकास करना चाहते हैं लेकिन वन विभाग अनुमति नहीं देता.’’ दूसरी ओर वन विभाग के क्षेत्रीय निदेशक डॉ. के. नेसामणि का जवाब अलग है, ''विद्युतीकरण का प्रस्ताव आया है, प्रक्रिया जारी है. सड़क या पुल का प्रस्ताव मेरे पास नहीं आया. अगर प्रस्ताव आएगा तो उस पर केंद्र सरकार विचार करेगी.’’
स्थानीय जानकार बताते हैं कि 2010-11 में बारहमासी सड़कें बनाने की अनुमति पहले ही मिल चुकी है. नेसामणि आगे जोड़ते हैं, ''अब सरकार को काम करना है. अगर मुख्य सड़क न बने तो कम से कम गांवों के बीच की अंदरूनी सड़कें तो बनाई ही जानी चाहिए.’’ साफ-साफ दिखता है कि दरअसल दोनों महकमें एक-दूसरे पर जिम्मेदारी डालकर असली समस्या टालते रहे, जबकि भुगतना लोगों को पड़ रहा है.
दोन का भविष्य
दिन भर की बातचीत के बाद भूप नारायण गांव की सीमा पर खड़े आगे की योजना बताते हैं: ''आंदोलन जारी रहेगा. जब तक मांगें नहीं मानी जाएंगी, हर चुनाव में वोट बहिष्कार होगा.’’ उनसे पूछा गया कि पंचायत चुनाव आने वाला है, वे खुद चुनाव लड़ेंगे? वे कहते हैं, ''फैसला दोनवासी करेंगे, अगर वे कहेंगे कि चुनाव नहीं लड़ना है, तो नहीं लडूंगा. विकास पहले, राजनीति बाद में.’’
दोन के लोगों ने पहली बार संगठित होकर अपनी आवाज उठाई है. सड़क, बिजली और नेटवर्क जैसी मूल सुविधाएं आज भी उनके लिए सपना हैं. लेकिन उनका एकजुट विरोध राज्य व्यवस्था तक पहुंचकर यह स्पष्ट कर चुका है कि वे लंबे संघर्ष के लिए तैयार हैं. अगर सरकार और वन विभाग समाधान खोजें, तो यह इलाका विकास की मुख्यधारा में शामिल हो सकता है. लेकिन फिलहाल दोन की जिंदगी वैसी ही है जैसी निवासी मदन पावे बयां करते हैं: ''जैसे जंगल में जानवर जी रहे हैं, उसी तरह हम जी रहे हैं. तो क्यों वोट दें?’’
पचासी साल के कोमल पटवारी गुस्से में कहते हैं, ''(वाल्मीकि नगर) बाघ प्रोजेक्ट से फायदा का है? खाली नुक्सान ही नुक्सान है.’’
हम तो वहां विकास के लिए तत्पर हैं मगर वन विभाग के सख्त नियमों के कारण हम बेबस हो जाते हैं. वे किसी भी तरह के निर्माण की इजाजत नहीं देते.
सुमित कुमार, उप विकास आयुक्त, पश्चिमी चंपारण

