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राजस्थान में 'वन स्टेट, वन इलेक्शन' के लिए कौन-कौन से नियम बदले गए हैं?

राजस्थान में 'वन स्टेट, वन इलेक्शन' के तहत पहली बार हो रहे पंचायत और निकाय चुनाव को लेकर कई महत्वपूर्ण नियम बदले गए हैं.

राजस्थान में 'वन स्टेट, वन इलेक्शन' के तहत पहली बार पंचायत और निकाय चुनाव साथ होंगे
अपडेटेड 18 दिसंबर , 2025

साल 2015 के जनवरी-फरवरी माह में राजस्थान की 9,875 ग्राम पंचायतों में चुनाव हुए मगर उस वक्त अजमेर जिले की दादिया सहित करीब 40 ग्राम पंचायतों में चुनाव नहीं हो पाए. दरअसल, इन पंचायतों में 21 साल से अधिक उम्र का कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जो आठवीं तक पढ़ा हो.

दादिया गांव में सांवरमल नाम का एक युवक आठवीं तक पढ़ा लिखा था मगर चुनाव के वक्त उसकी उम्र 21 साल पूरी नहीं हुई थी. चार माह बाद सांवरलाल की उम्र जब 21 हुई तो घर में शौचालय नहीं होने के कारण वह सरपंच का चुनाव नहीं लड़ पाया.

जुलाई 2016 में घर में शौचालय बनने के बाद उसे दादिया का सरपंच चुना गया. राजस्थान में वसुंधराराजे की अगुआई वाली पूर्ववर्ती भाजपा सरकार ने साल 2015 में ग्राम पंचायतों में सरपंच के लिए आठवीं और नगरीय निकाय प्रतिनिधियों के लिए 10वीं पास होना अनिवार्य कर दिया था. वहीं फरवरी 2019 में अशोक गहलोत सरकार ने राजस्थान पंचायती राज (संशोधन) विधेयक 2019 और राजस्थान नगर पालिका (संशोधन) विधेयक 2019 पारित कर शैक्षणिक योग्यता के प्रावधान को हटा दिया था.

तत्कालीन पंचायतराज मंत्री सचिन पायलट ने विधानसभा में कहा था, ''वसुंधराराजे के कार्यकाल में 200 में से 27 विधायक आठवीं पास नहीं थे. राजे सरकार ने विधायकों को अयोग्य नहीं माना मगर सैकड़ों सरपंचों को आठवीं पास नहीं होने की वजह से अयोग्य घोषित कर दिया.''   

अब बात वर्तमान की. दिसंबर 2023 में राजस्थान में भजनलाल शर्मा के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनने के बाद से शैक्षणिक योग्यता के आधार पर चुनाव कराए जाने की मांग फिर जोर पकड़ने लगी. पंचायत और नगरीय निकाय चुनावों की आहट शुरू होते ही एक बार फिर वही पुरानी बहस जोर पकड़ चुकी है कि क्या जनप्रतिनिधियों के लिए शैक्षणिक योग्यता का नियम जारी रहना चाहिए? हाल ही में राजस्थान के नगरीय विकास मंत्री झाबर सिंह खर्रा के एक बयान ने इस बहस को और ज्यादा गरमा दिया है.

उन्होंने कहा, ''शैक्षणिक योग्यता के समर्थकों का कहना है कि सरपंच और नगरीय निकायों के प्रमुख वित्तीय फैसले और चेक पर हस्ताक्षर करते हैं, इसलिए उनका पढ़ा-लिखा होना जरूरी है. वहीं दूसरे पक्ष का तर्क है कि जब विधायक और सांसद के लिए शैक्षणिक योग्यता अनिवार्य नहीं है तो फिर पंचायत व निकाय प्रतिनिधियों के लिए क्यों?'' मानवाधिकार संगठन पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज की महासचिव कविता श्रीवास्तव कहती हैं, ''सरकार के लिए शर्म की बात है कि अब तक वह सभी लोगों को साक्षर नहीं कर पाई है. ऐसे में चुनाव लड़ने के लिए शैक्षणिक योग्यता की शर्त थोपना संवैधानिक प्रावधानों के खिलाफ है.''

सरपंच की संतानें कितनी हों?
शैक्षणिक योग्यता के साथ ही पंचायत व निकाय चुनाव में दो बच्चों के नियम पर भी सवाल उठ रहे हैं. विभिन्न जनप्रतिनिधियों और संगठनों की मांग इस नियम को हटाने पर मंथन शुरू कर दिया गया है, जिसके लिए पंचायतीराज विभाग और स्वायत्त शासन विभाग से रिपोर्ट्स मंगवाई गई हैं. नगरीय विकास मंत्री झाबर सिंह खर्रा का कहना है, ''सरकार कर्मचारियों और जनप्रतिनिधियों में भेदभाव नहीं कर सकती. सरकारी कर्मचारियों को दो से ज्यादा संतान होने पर नौकरी की छूट मिलने के बाद पंचायत और नगरीय निकाय चुनाव लड़ने के इच्छुक जनप्रतिनिधियों की ओर से भी दो से ज्यादा संतान होने पर भी चुनाव लड़ने की छूट संबंधी मांग की जा रही थी जिस पर सरकार विचार कर रही है.''  

उल्लेखनीय है कि राजस्थान में साल 1994-95 में तत्कालीन भैरोंसिंह शेखावत सरकार ने पंचायती राज अधिनियम 1994 लागू किया था. इस कानून में यह प्रावधान किया गया था कि दो से अधिक बच्चे वाले जनप्रतिनिधि पंचायत और निकाय चुनाव नहीं लड़ पाएंगे. चुनाव जीतने के बाद तीसरा बच्चा पैदा होने पर पंचायत व निकाय प्रतिनिधियों को पद से हटाने का भी प्रावधान किया गया था.

इसी तर्ज पर पूर्ववर्ती अशोक गहलोत सरकार ने 1 जनवरी, 2002 को राजस्थान में दो से ज्यादा संतान होने पर सरकारी नौकरी से अयोग्य घोषित किए जाने का नियम लागू किया था. बाद में 19 जुलाई, 2018 को तत्कालीन वसुंधराराजे सरकार ने इन नियमों में ढील देते हुए दो से ज्यादा संतान होने पर अनिवार्य रूप से सेवानिवृत्ति देने का नियम हटा दिया. वहीं साल 2023 में अशोक गहलोत सरकार ने दो से ज्यादा संतान होने पर पदोन्नति में छूट देने का फैसला किया.  

पिछले दिनों चित्तौड़गढ़ से निर्दलीय विधायक चंद्रभान सिंह आक्या ने सवाल उठाया था कि संतान की संख्या के आधार पर चुनावी प्रतिबंध विधानसभा और लोकसभा में तो नहीं है. इस पर संसदीय कार्यमंत्री जोगाराम पटेल ने कहा था कि सरकार इस प्रतिबंध को हटाने पर विचार कर रही है. इससे पहले, 2019 में कांग्रेस के वरिष्ठ विधायक हेमाराम चौधरी ने पंचायत व निकाय प्रतिनिधियों के चुनाव लड़ने के लिए इस शर्त को हटाने की मांग की थी.

राजनैतिक विश्लेषक त्रिभुवन सवाल करते हैं, ''जब आठ संतानों वाले बाबूलाल खराड़ी राजस्थान के जनजाति विकास मंत्री और पांच से ज्यादा संतानों वाले दयाराम परमार, फूल सिंह मीणा, समाराम, अर्जुन लाल और कैलाश मीणा विधायक हो सकते हैं तो तीन-चार संतानों वाले लोग सरपंच या महापौर क्यों नहीं बन सकते?'' 

चुनावी खर्च में भी छूट
पंचायत और नगरीय प्रतिनिधियों को अब चुनाव में खर्च सीमा में भी छूट मिलने जा रही है. सरपंच पद के लिए चुनावी खर्च को अब 50 हजार से बढ़ाकर 55 हजार रुपए किया जा रहा है, वहीं जिला परिषद सदस्यों के लिए यह सीमा 1.65 लाख रुपए होने जा रही है. राज्य निर्वाचन आयोग की ओर से पंचायत और निकाय चुनाव में खर्च की सीमा तय की जाती है और कोई भी प्रत्याशी तय सीमा से ज्यादा खर्च करता है तो उसकी उम्मीदवारी को खत्म किया जा सकता है. उम्मीदवारों को चुनाव परिणाम आने के 30 दिन के भीतर चुनावी खर्च का ब्यौरा जिला निर्वाचन अधिकारी को पेश करना पड़ता है. 

राजस्थान में 'वन स्टेट, वन इलेक्शन' की संकल्पना के तहत पहली बार पंचायत और निकाय चुनाव एक साथ होने जा रहे हैं. प्रदेश में करीब दो दशक बाद पंचायतों और निकायों का पुनगर्ठन हुआ है, जिसमें 3,416 नई ग्राम पंचायतें बनाई गई हैं.

खास बातें

> वन स्टेट, वन इलेक्शन के तहत पहली बार पंचायत और निकाय चुनाव एक साथ होने जा रहे 

> सरपंच का चुनाव लड़ने के लिए आठवीं और नगरीय निकाय प्रतिनिधियों के लिए 10वीं पास होने की अनिवार्यता पर बहस फिर गर्म 

> दो संतानों से अधिक होने पर भी इन चुनावों में खड़े होने पर लगे प्रतिबंध पर पुनर्विचार

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