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ममता बनर्जी SIR के जरिए BJP समर्थक मतुआ वोटरों को कैसे साध रही हैं?

SIR शुरू होने से लाचार बांग्लादेशी तो लौटने के लिए लाइन में हैं, लेकिन इससे हिंदू शरणार्थियों में भी नागरिकता का खौफ है

पश्चिम बंगाल के हकीमपुर चेकपोस्ट पर बांग्लादेशी नागरिक
अपडेटेड 18 दिसंबर , 2025

उत्तरी 24 परगना के सीमा पर नदी-किनारे दो अलग-अलग नजारें हैं. बशीरहाट सबडिवीजन के हकीमपुर चेकपोस्ट पर गैरकानूनी तरीके से आए बांग्लादेशी लोग लौटने के लिए लाइन में खड़े हैं. वहां से महज 35 किमी अंदर बनगांव में हजारों हिंदू शरणार्थी सड़कों पर हैं, जिनमें ज्यादातर मतुआ लोग हैं.

उनके गुस्से की जद में साफ-साफ वही सरकारी तंत्र है, जो पश्चिम बंगाल में अफरा-तफरी का सबब बना है, जहां कुछ ही महीनों में चुनाव होने हैं. जाहिर है मतदाता सूची में सुधार के लिए विशेष सघन पुनरीक्षण (एसआइआर) कई तरह के विपरीत असर डाल रहा है.

काजल दास बांग्लादेश में अपने गृह जिले जैशोर में अवामी लीग के छोटे-मोटे कार्यकर्ता थे. वे अगस्त 2024 की एक रात भारत आ गए. वे शेख हसीना के खिलाफ आंदोलन के बाद बदले की कार्रवाई के डर से भाग आए थे. बाद में बड़े भाई कालीपद, उनके छोटे बेटे जीत को इलाज के लिए भारत ले आए. एसआइआर की वजह से उनकी शरणस्थली अब मुश्किल जगह बन गई है. काजल और उनका परिवार हकीमपुर में लाइन में लगे लोगों में हैं.

पहला मामला: पलायन
प्रवासियों की कतार में काजल जैसे हिंदू कम हैं. ज्यादातर मुसलमान हैं: राजमिस्त्री, गारमेंट फैक्ट्री में काम करने वाले, घरेलू काम करने वाले, बर्धमान और बेंगलूरू के दूर-दराज के कारखानों में काम करने वाले मजदूर हैं. जहांगीर आलम के साथ उनका परिवार भी है. वहीं शिल्पी अख्तर अकेली खड़ी थीं. उनके हाथ में एक मैला-कुचैला बैग और टूटे हुए सूटकेस में उनके घर का 'हर चिथड़ा' है.

शिल्पी कहती हैं, ''मैं बर्धमान में एक पेपर बैग यूनिट में काम करती थी. महीने के 2,000-2,500 रुपए कमाती थी. मेरे लिए इतना ही काफी था.'' क्या उन्होंने भारतीय कागजात नहीं बनवाए थे? वे कहती हैं, नहीं. इसके बजाए, ये लोग बॉर्डर पार करने के लिए बिचौलियों को हजारों रुपए देने की बात करते हैं, ताकि जिंदा बचे रहें. काजल ने कुल 30,000 रुपए दिए थे, शिल्पी ने 4,000 रुपए दिए थे. वह सब बेकार हो गया.

अमूमन 100 से ज्यादा लोग चेकपोस्ट के पास कई दिनों तक इंतजार करते हैं और तब तक नहीं हटते जब तक सीमा सुरक्षा बल के जवान उन्हें भेजने में मदद नहीं करते. जवान उनके दस्तवेज यानी बांग्लादेश का पहचान-पत्र, जन्म प्रमाण-पत्र की जांच करते हैं. फिर ट्रकों में लादकर उन्हें सीमा चौकी तक ले जाया जाता है, और दूसरी तरफ के अधिकारियों को सौंप दिया जाता है.

आर्थिक शरणार्थियों के इस पलायन के लिए भाजपा के इस नैरेटिव पर जोर है कि बांग्लादेशियों के आने से बंगाल की जनसंख्या का ढांचा बदल गया है. केंद्रीय मंत्री तथा लोकसभा सदस्य सुकांत मजूमदार इस आरोप को दोहराते हैं कि ममता बनर्जी सरकार ने गैर-कानूनी घुसपैठ को आसान बनाने के लिए बॉर्डर फेंसिंग में रुकावट डाली है. वे कहते हैं, ''वे इतने साल से हमारे संसाधन खा रहे हैं.''

उधर, बनगांव में गुस्सा है. यह मतुआ समुदाय की सांस्कृतिक राजधानी जैसा है, जो अनुसूचित जाति शरणार्थी समूह है. ये लोग धार्मिक उत्पीड़न से बचने के लिए पहले पूर्वी पाकिस्तान और बाद में बांग्लादेश से आ गए थे. उनका धार्मिक केंद्र ठाकुरनगर है, जो सीमा से बमुश्किल से 10 किमी भीतर है. पिछले कुछ साल में बहुत सारे मतुआ और दूसरे हिंदू शरणार्थी आए हैं, यह मानकर कि भाजपा का वादा है कि संविधान संशोधन कानून (सीएए) उन्हें पूरी नागरिकता देगा. लेकिन एसआइआर से वे हिल उठे हैं. उनकी फिक्र की वजह एक तकनीकी मामला है कि एसआइआर में भारतीय पूर्वजों से संबंध बताने के लिए 2002 की वोटर लिस्ट में नाम होने का सबूत मांगा गया है. हाल में आए कई लोगों के पास यह नहीं है.

लड़ाई का मतुआ मैदान
राज्यसभा सदस्य ममता बाला ठाकुर की अगुआई में मतुआ महासंघ के तृणमूल कांग्रेस समर्थक गुट ने एसआइआर के मुद्दे पर 13 दिन की भूख हड़ताल की. माकपा और कांग्रेस नेता भी एकजुटता दिखाने वहां पहुंचे. बनगांव में 25 नवंबर को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने पदयात्रा की और कहा कि एसआइआर को 2026 के विधानसभा चुनाव के मद्देनजर किया जा रहा है. उन्होंने जोर देकर कहा, ''एक भी असली वोटर का नाम नहीं हटाया जाएगा.''

भाजपा को लगता है कि वे डर फैलाने में कामयाब हो गई हैं, और अगर वोटरों के नाम गायब होने लगे, तो वे खुद को उन्हें बचाने वाला बताएंगी. एक नेता मानते हैं, ''यह नैरेटिव का खेल है. इसमे तृणमूल हमसे बहुत आगे है.'' भाजपा के मतुआ चेहरा, केंद्रीय मंत्री शांतनु ठाकुर ने माहौल शांत करने की कोशिश की, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. पार्टी के राज्य अध्यक्ष समिक भट्टाचार्य की अगुआई में एक टीम ने चुनाव आयोग को एक ज्ञापन दिया है, जिसमें उभरते खतरे को रोकने के लिए अपील की गई है.

सीएए का क्या हुआ?
भाजपा से जुड़े महासंघ गुट के मोहितोश बैद्य खुलेआम अफसोस जता रहे हैं. वे कहते हैं, ''एसआइआर सेल्फ-गोल साबित हो रहा है. हमारे सामने बहुत सारे ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब हमारे पास नहीं हैं.'' बैद्य चेतावनी देते हैं, ''सैकड़ों मतुआ और दूसरे हिंदू बाहर हो जाएंगे. बहुत सारे लोग अपील भला कहां कर पाएंगे. उन्हें डर है कि उनके पास जो भी कागजात हैं, वे छीन लिए जाएंगे.''

सीएए के तहत अर्जी में अचानक बढ़ोतरी—करीब 40,000—एक और तरह की अफरा-तफरी की ओर इशारा करती है. लेकिन सर्टिफिकेट करीब 1,500 ही जारी किए गए हैं. अब, कलकत्ता हाइकोर्ट ने नागरिकता के प्रोविजनल प्रूफ के तौर पर ऑनलाइन सीएए की पावती को मंजूर करने से मना कर दिया है. ममता बाला कहती हैं, ''हाल के वर्षों में कई हिंदू शणार्थी भारत में आए. लगभग सभी भाजपा के वोटर हो गए थे. अब वे अपना वोटिंग अधिकार खो देंगे.'' 

खास बातें

> भाजपा आरोप लगाती आई है कि ममता सरकार ने गैर-कानूनी घुसपैठ को आसान बनाया है 

> सीएए के जरिए नागरिकता पाने के भरोसे आए हिंदू शरणार्थी एसआइआर से हिल उठे हैं 

> भाजपा के लिए एसआइआर सेल्फ-गोल साबित होने का डर

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