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बिहार में सम्राट चौधरी को कैसे मिला गृह मंत्रालय?

पहली बार सीएम नीतीश कुमार ने गृह मंत्रालय की कमान छोड़ी है

सख्त दारोगाः इलस्ट्रेशन: सिद्धांत जुमडे
अपडेटेड 9 दिसंबर , 2025

किसी को अंदेशा तक नहीं था, मगर बिहार को भविष्य बताने के धंधे में शरीक हर शख्स को हैरत में डाल देने की आदत है. दसवीं बार मुख्यमंत्री बने नीतीश कुमार ने जब 21 मई को मंत्रियों को विभाग बांटे, तो जिस एक फैसले ने ध्यान खींचा वह गृह विभाग उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी को दिया जाना था. हैरानी दो अलग-अलग सियासी वजहों से ज्यादा थी.

एक तो यह कि जब नीतीश ने भाजपा के साथ मिलकर कुशलतापूर्वक विशाल जनादेश हासिल किया, तो सभी ने आने वाली सरकार की कद-काठी को लेकर कुछ अंदाज लगाए थे. नीतीश का मुख्यमंत्री बने रहना तो पक्का था और इसके साथ ही वह एक बात भी खत्म हो गई जिसे लेकर कुछ वक्त पहले तक कमोबेश धुंधलका था. ऐसे में यही लगा कि वे पूरे दमखम से वापस आ गए हैं.

इससे दूसरी बातों के अलावा उस लकीर की याद भी ताजा हो गई जो 2005 में उन्होंने रेत पर उकेरी थी, और वह था गृह विभाग अपने पास रखना. यह वह महकमा है जो उनकी उस बहुप्रचारित छवि का अभिन्न हिस्सा था जिसमें उन्हें 'अराजक' मान लिए गए राज्य की साफ-सफाई करने वाले शख्स के तौर पर पेश किया गया, भले ही जमीन पर हकीकत कुछ ज्यादा धुंधली थी.

इससे पुलिस, खुफिया एजेंसियां, भ्रष्टाचार की जांच और दंगों पर नियंत्रण उनकी मुट्ठी में था. अपने लंबे मुख्यमंत्री काल के काफी समय भाजपा से जुड़े रहते हुए भी उन्होंने सांप्रदायिक कलह को पैर पसारने का मौका नहीं दिया, और 1990 के दशक में लालू प्रसाद यादव के हाथों स्थापित उस परंपरा को जारी रखा जिसने बिहार को उत्तर भारत में एक अपवाद बना दिया था. मगर जिन लोगों ने यथास्थिति के बरकरार रहने पर दांव लगाया, वे गलत निकले. ज्यों-ज्यों समूची शख्सियत पर भगवा रंग चढ़ रहा, कुछ लोगों की नजरों में नीतीश की ताकत फीकी पड़ गई है.

जब चाहो दागो
वे जिस रणनीतिक समझौते के लिए राजी हो गए, वह नई दिल्ली की तरफ से जोरदार मान-मनौवल का नतीजा है. 'दोस्ताना गोलीबारी' ने भी अपनी भूमिका अदा की, खासकर जब लोक जनशक्ति पार्टी के चिराग पासवान अब भी स्वच्छंद पखेरू की तरह उड़ते हुए 'कानून और व्यवस्था के ढहने' को लेकर बाल की खाल निकाल रहे थे.

नीतीश की सेहत को लेकर चर्चाओं के साथ एक नैरेटिव यह गढ़ा गया कि अफसरों के अधीन यह महकमा ज्यादातर ऑटोपाइलट मोड में चला गया है और सियासी नियंत्रण नहीं रहा. भाजपा का मकसद इसे दुरुस्त करना है.

अब आती है हैरानी की दूसरी वजह, यानी वह आदमी जिसे उन्होंने यह जिम्मेदारी सौंपी है. चुनाव अभियान के दौरान 'दिग्गजों को धराशायी करने वालों' की फेहरिस्त में सम्राट सबसे बड़ा नाम थे. तभी तो जनसुराज के नेता प्रशांत किशोर उनके अतीत के कुछ काले चिट्ठे खोद लाए थे. सम्राट ने बिना किसी लागलपेट के बस इतना कहा कि यह सब वैसे भी सार्वजनिक जानकारी में था. तब भी किसी को भनक तक नहीं लगी कि गृह मंत्रालय उनके हाथ में होगा.

बिहार में और खासकर नेपाल की सरहद से सटे इलाकों में कानून-व्यवस्था के काम में कुछ चुस्ती लाने के लिए नई दिल्ली उपमुख्यमंत्री पर भरोसा करती है. उन्होंने अपनी पसंदीदा शैली की मुनादी अक्सर उन शब्दों में की है जो सख्त दारोगा पर फबते हैं: ''अपराधी या तो जेल में होंगे या कब्र में.'' कामकाज संभालने के 24 घंटों के भीतर लोगों को समझ आ गया कि इसका क्या मतलब था. बेगूसराय में पुलिस ने एक अपराधी को पकड़ने के लिए गोली चला दी, तो मुजफ्फरपुर में कथित तौर पर हिरासत में लिए गए अपराधियों के 3 लाख रुपए चुराने के लिए चार कॉन्स्टेबलों को गिरफ्तार कर लिया गया. उन्होंने ऐलान किया कि अपराधियों को जल्द ही बिहार छोड़कर भागना पड़ेगा.

सम्राट दिग्गज समाजवादी शकुनि चौधरी के बेटे और कुशवाहा हैं जो कि 4.21 फीसद हिस्सेदारी के साथ यादवों के बाद सबसे ज्यादा आबादी वाला ओबीसी धड़ा है. उनके उदार सियासी इतिहास ने भाजपा के भीतर उनके आगे बढ़ने की संभावनाओं पर संदेह खड़े कर दिए थे, मगर फिर भी उन्हें अव्वल नेता का भावी दावेदार होने का मौका दे दिया गया है.

नतीजे मायने रखेंगे, खासकर शराबबंदी और जेलों के मामले में. तब तो और भी जब शराबबंदी गैर-बराबर ढंग से लागू किए जाने और भूमिगत नेटवर्क के फलने-फूलने से बेअसर हो गई है और जेल संगठित अपराध के बेरोकटोक अड्डे बन गए हैं. अगर 'योगी मॉडल' की चर्चाएं पूरी तरह सही साबित न हों, तब भी सम्राट उस किस्म के दारोगा हो सकते हैं जो किसी को नहीं बख्शते.

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