
दीजी, मैं अपने घर वापस जाना चाहती हूं.’’ यह आवाज उस भीड़ के शोर को चीरती हुई निकली जो 13 सितंबर को चुड़ाचांदपुर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देखने जुटी थी. मई 2023 में मणिपुर में हुई जातीय हिंसा के 28 महीने बाद प्रधानमंत्री यहां आए थे. हिंसा में 258 लोग मारे गए, 62,000 बेघर हुए और 4,786 घर जला दिए गए.
यह पुकार दो स्कूली बच्चों की मां और कांगपोकपी के लोइबोल खुन्नौ गांव की कुकी महिला, 40 साल की होइतमनेइंग हाउकिप की थी, जो चुड़ाचांदपुर के संगाई राहत कैंप के बाहर खड़ी थीं. लेकिन प्रधानमंत्री से यही सवाल 48 वर्षीय आर.के. बिलासना का भी था, जो मोरेह बॉर्डर टाउन के एक मैतेई हैं और इंफाल के थोंजू केंद्र राहत कैंप में जिंदगी जैसे-तैसे काट रहे हैं.
प्रधानमंत्री मोदी का यह चिरप्रतीक्षित दौरा मुश्किल से आधे दिन चला और उसका अंत 8,500 करोड़ रुपए के विकास पैकेजों के ऐलान के साथ हुआ. सुलह या पुनर्वास पर एक भी शब्द नहीं कहा गया. कमेटी ऑन ट्राइबल यूनिटी (सीओटीयू) के प्रवक्ता एन.जी. लुन किपगेन ने कहा, ''हमें ऐलान नहीं, भरोसा चाहिए था.’’ प्रधानमंत्री के जाने के बाद बिलासना का गुस्सा फूट पड़ा, ''अगर आपको सच में मणिपुर की परवाह है तो आकर देखें कि हम कैसे जी रहे हैं, प्रधानमंत्री. आपका चार घंटे का दौरा हमारे जले पर नमक छिड़कने जैसा था.’’
केस स्टडी: 1
सेम्मिनले खोंगसईः 35 वर्ष, कुकी, यैगंगकोपकी गांव, कांगपोकपी
अब, तुइबौंग सामुदायिक हॉल राहत शिविर, चुराचांदपुर
जहां हरी-भरी चोटियां बादलों में घुल-मिल जाती हैं, वहां कभी सेम्मिनले खोंगसई छोटे-से खेत को जोतते-बोते थे और उपज मैतेई व्यापारियों को बेचते थे.
लेकिन झगड़ा शुरू हुआ तो खेत युद्ध के मैदान में बदल गए. उनका घर फूंक दिया गया, मवेशी चुरा लिए गए. अब राहत शिविर में वे पत्नी और तीन बच्चों के साथ तिरपाल के शामियाने में फटे चिथड़ों में दैनिक मजदूरी और सरकार की खैरात पर आश्रित हैं. उनकी दुनिया छह कदमों की जगह में सिमट गई है.
अगर होइतमनेइंग और बिलासना को उम्मीद थी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक (आरएसएस) संघ के प्रमुख मोहन भागवत 20 नवंबर को मणिपुर आकर उनके जख्मों पर मरहम लगाएंगे, तो उन्हें फिर निराशा ही मिली. भागवत का दौरा आधिकारिक तौर पर आरएसएस के सौ साल पूरे होने से जुड़ा था और उसका बहुत राजनैतिक महत्व था. लेकिन इसने उन करीब 58,000 बेघर लोगों की बेचैनी खास कम नहीं की, जो अब भी पूरे राज्य में फैले 351 राहत कैंपों में फंसे हुए हैं.
मणिपुर में अब भी राष्ट्रपति शासन है और उसका भविष्य अनिश्चित है. शांति है, लेकिन वह सुरक्षा बलों के सहारे बनी हुई है. एक अदृश्य लकीर राज्य को दो हिस्सों में बांटती है—इंफाल घाटी अब मैतेई इलाका बन चुकी है और उसके चारों तरफ की पहाड़ियां कुकी-ज़ो समुदायों के कब्जे में हैं. दोनों के बीच बफर जोन है, जहां केंद्रीय बल तैनात हैं, और एक-दूसरे के इलाकों में पहुंचना लगभग नामुमकिन है.
इसका मतलब है कि चुराचांदपुर में रहने वाले कुकी अब इंफाल एयरपोर्ट नहीं जा सकते, जबकि वह मुश्किल से 60 किमी दूर है. उन्हें कहीं भी उड़ान भरने के लिए टूटी-फूटी सड़कों पर 10 घंटे का सफर करके 300 किमी दूर आइजॉल जाना पड़ता है. मैतेई लोगों की आवाजाही भी सीमित हो गई है. उनके रास्ते कुकी इलाकों में रुक जाते हैं, जहां से निकलना अब संभव नहीं है.
केस स्टडी: 2
कामचा वाइफी 77 वर्ष, आरेम बुइते 62 वर्ष, कुकी, तोरबंग गांव, चुड़ाचांदपुर
अब, तीन किमी दूर एक राहत शिविर में
मणिपुर बिजली बोर्ड के रिटायर लाइनमैन कामचा और उनकी व्हीलचेयर पर आश्रित पत्नी आरेम ने अपनी जिंदगी की जमा-पूंजी जोड़कर अपनी जरूरत का एक घर बनाया था. कामचा कहते हैं, ''हमने सोचा था कि इसी घर में मरेंगे.’’
वह मई 2023 में फूंक दिया गया. वे एक राहत शिविर में आए, जहां कामचा का दमा रोग बढ़ा और आरेम का चलना-फिरना बंद हुआ तो संकट गहरा गया. कामचा कहते हैं, ''मन में एक ही सवाल गूंजता है, यह हमारे साथ क्यों हुआ?’’
लकवा उस कारोबार तक को भी मार गया है जिस पर मैतेई व्यापारी मोरेह और तामू के बीच चलने वाले भारत-म्यांमार बॉर्डर रूट के जरिए निर्भर थे. बरसों तक चीन और कुछ हद तक आसियान देशों से आने वाला अनौपचारिक सीमा आर-पार व्यापार मणिपुर की अर्थव्यवस्था की जान था.
अनिल के हिसाब से हिंसा से पहले ''रोज करीब 250 से 300 वैन और छोटे वाहन इस रूट पर चलते थे, हर गाड़ी में 3-4 व्यापारी होते थे.’’ आज यह रास्ता मैतेई लोगों के लिए बंद है और उनकी रोजी-रोटी खतरे में है. वे कहते हैं, ''कई लोग अपने परिवार के भरण-पोषण तक के लिए जूझ रहे हैं. सरकार शांति बहाल नहीं कर पा रही है, इसलिए उन्हें नहीं लगता कि वे जल्दी वापस अपने धंधे में लौट पाएंगे.’’
इंफाल पूरब, इंफाल पश्चिम, थाउबल, काकचिंग और बिष्णुपुर के 62 गांवों में खेती बुरी तरह चौपट हो गई है. करीब 3,894 हेक्टेयर खेतों की फसल बर्बाद हुई है. राज्य के इकनॉमिक्स ऐंड स्टैटिस्टिक्स विभाग के मुताबिक, संघर्ष के बाद लगातार दो साल तक खेती में वृद्धि नकारात्मक रही है.
मणिपुर यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्री हंजाबम इस्वोरचंद्र शर्मा कहते हैं कि इन गांवों ने दो साल की फसल और नकद कमाई, दोनों गंवा दीं, और सरकार का मुआवजा नाकाफी है. इस साल कुछ किसानों ने सुरक्षा के बीच धान की खेती तो कर ली, लेकिन सर्दियों की नकदी फसलों पर बड़ा सस्पेंस है: जोखिम भी ज्यादा है और हालात भी अनिश्चित.
शर्मा कहते हैं कि बॉर्डर और पहाड़ी इलाकों में किसान अब जंगल पर निर्भर कामों की तरफ जा रहे हैं, क्योंकि खेती चल ही नहीं पा रही है. वे चेतावनी देते हैं कि इसका असर लंबे समय तक दिखेगा. खेती का संकट और गहरा होगा, गांवों में गरीबी बढ़ेगी, गांवों के बीच असमानता बढ़ेगी और जंगलों का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल होने लगेगा.
हालात संभालने के लिए बहुत से परिवार इलाज और पढ़ाई पर खर्च कम कर रहे हैं, अपनी चीजें बेच या गिरवी रख रहे हैं और किसी तरह गुजारे पर टिके हैं. शर्मा कहते हैं कि अगर यह कमी लंबे समय तक चली, तो युवा और कामकाजी लोग, खासकर महिलाएं, मजबूरी में ड्रग या मानव तस्करी जैसे गैर-कानूनी कामों की तरफ धकेली जा सकती हैं. इससे इंसानी पूंजी टूटेगी और समाज में अस्थिरता और बढ़ेगी.
केस स्टडी: 3
पेपे कोनसम 16 वर्ष, मैतेई, सादु येंगखुमन, इंफाल पूरब
अब, सजीवा राहत शिविर, इंफाल पूरब
सादु येंगखुमन इंफाल घाटी के पूरबी किनारे पर है, जो कुकी के पहाड़ी इलाकों से सटा है. दिव्यांग 16 साल की पेपे के लिए भूगोल कोई मायने नहीं रखता, सिर्फ पिता की गैर-मौजूदगी खलती है.
अपने पांच एकड़ खेत से दर-बदर उसके किसान पिता ने अगस्त में खुदकशी कर ली. उसके दादा बुधी कहते हैं, ''वह नहीं झेल पाया.’’ अब 70 साल के बुजुर्ग काम की तलाश में भटकते हैं और उनकी 45 साल की बहू कानन घरों में बर्तन साफ करके घर चलाती हैं. पेपे अब शिविर में रह रहे लोगों की दया के सहारे है. उसका छोटा भाई को अनाथालय भेज दिया गया है. बुधी कांपती आवाज में कहते हैं, ''हम बूढ़े हैं. बेघर हैं, रोजी-रोटी का साधन नहीं है. हमारे जाने के बाद कानन और पेपे का क्या होगा?’’
पर्यटन, जो कभी विकास का उभरता सहारा था, पूरी तरह ठप हो गया है. सिर्फ दो साल पहले मणिपुर ने इंफाल में जी20 बिजनेस (बी20) कॉन्फ्रेंस, तीन देशों का फुटबॉल टूर्नामेंट और फेमिना मिस इंडिया जैसे बड़े आयोजन कराए थे, वह उम्मीद अब गायब हो चुकी है. 2024-25 में मणिपुर आने वाले पर्यटकों की संख्या रिकॉर्ड गिरावट पर पहुंच गई. 2023-24 के आंकड़े दिखाते हैं कि 2019-20 यानी महामारी से ठीक पहले वाले साल के मुकाबले टूरिस्ट करीब 80 फीसद कम हो गए.
गुर्बत के कैंप
मणिपुर की त्रासदी सबसे साफ दोनों तरफ बने 351 राहत कैंपों में दिखती है. जिंदगी यहां हिम्मत और थकान के बीच किसी तरह संतुलन पर टिकी है. 150 से 700 लोगों तक ठूंस दिए गए ज्यादातर कैंप स्कूलों या कम्युनिटी हॉल को बदलकर बनाए गए हैं, जहां तिरपाल, बांस, कार्डबोर्ड या कभी-कभी फटे-पुराने पर्दे बड़े कमरों को छोटे-छोटे खाने में बांटते हैं. हर खाने में 5-10 लोगों का एक परिवार होता है, इतनी कम जगह में कि सब साथ मुश्किल से ही लेट पाते हैं. खाना भी उसी कमरे में पकता है, जो सोने, रहने और सामान रखने की जगह है.
कपड़े तारों पर टंगे रहते हैं, पानी प्लास्टिक के ड्रमों में जमा किया जाता है. इन तंग कमरों में नम दीवारों पर महीनों की आग और नमी के निशान दिखते हैं. खाने और पसीने की मिली-जुली गंध हर समय फैली रहती है. कुछ कैंप प्रीफैब्रिकेटेड यूनिट जैसे हैं, जिनमें टॉयलेट लगे हैं, लेकिन ज्यादातर को बाहर बने अस्थायी बाथरूम पर निर्भर रहना पड़ता है, जिन्हें सैकड़ों लोग शेयर करते हैं. साफ-सफाई रोज की जद्दोजहद है. साफ पानी मिलना मुश्किल है, कूड़ा उठाने की व्यवस्था लचर है, और खुली नालियां या जमा पानी मच्छरों को न्योता देते रहते हैं.
सरकार डिप्टी कमिशनरों के दफ्तरों के जरिए राहत राशि और राशन देती है, और सिविल सोसाइटी ग्रुप उन्हें बांटने और बाकी जरूरतें पूरी करने में मदद करते हैं. लेकिन रिलीफ कमेटी मणिपुर के मुख्य संयोजक बोन थोइडिंगजाम कहते हैं, ''रोज के 100 रुपए में गुजारा करना बेहद मुश्किल है, जिसमें सिर्फ 16 रुपए दूसरे खर्चों के लिए हैं, बाकी में खाना, पढ़ाई और इलाज सब कुछ चलाना होता है.’’
इसका असर साफ दिखता है. बच्चों की पढ़ाई बाधित हो रही है, कर्ज बढ़ रहे हैं, और सेहत बिगड़ती जा रही है. थोइडिंगजाम बताते हैं, ''कई लोग स्ट्रोक, किडनी रोग, डिप्रेशन और कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों से जूझ रहे हैं और साथ ही कर्ज में डूबते जा रहे हैं.’’ बच्चों पर इसका असर और भी गहरा है—मानसिक, सामाजिक और शैक्षिक हर तरह से.
मणिपुर चाइल्ड राइट्स कमिशन (एमसीपीसीआर) के चेयरपर्सन कैसाम प्रदीपकुमार कहते हैं, ''हिंसा ने ऐसी पीढ़ी खड़ी कर दी है जो खोने, डर और बेघर होने के बीच बड़ी हो रही है.’’ प्रदीपकुमार चेतावनी देते हैं कि कई विस्थापित बच्चों के ट्रैफिकिंग या उग्रवादी संगठनों में भर्ती होने का अंदेशा है.
एक वरिष्ठ पुलिस अफसर मानते हैं कि कुछ लड़के और युवा कैंपों से निकलकर अंडरग्राउंड संगठनों में शामिल हो गए हैं. प्रदीपकुमार की नौ जिलों में की गई फील्ड स्टडी बताती है कि जिन बच्चों ने घर जलते, लोग मारे जाते और अपनी बस्ती तबाह होते देखी है, उनमें डिप्रेशन, पीटीएसडी और एंग्जायटी बहुत आम है. अक्तूरबर 2024 में जर्नल ऑफ फैमिली मेडिसिन ऐंड प्राइमरी केयर में छपी एक स्टडी भी यही दिखाती है: इंफाल वैली के कैंपों में रहने वाले 66 फीसद लोगों में पोस्ट-ट्रॉमैटिक स्ट्रेस के लक्षण हैं और 40 फीसद में मध्यम से गंभीर एंग्जायटी. सिर्फ 2025 में ही कैंपों में छह आत्महत्याएं दर्ज हुईं.
सरकार की महत्वाकांक्षी तीन चरणों की पुनर्वास योजना के तहत सभी कैंप दिसंबर 2025 तक बंद होने थे. पहला चरण 1 जुलाई में शुरू हुआ, दूसरा चरण अक्तूबर में और तीसरा चरण दिसंबर में शुरू होना है. योजना के मुताबिक, जिन 7,000-8,000 परिवारों के घर तबाह हो चुके हैं, उन्हें 3.03 लाख रुपए मिलेंगे और जो लोग अपने घर नहीं लौट सकते, उनके लिए 3,000 प्रीफैब्रिकेटेड घर बनाए जाएंगे.
फिर भी, जगह-जगह से बेघर हुए लोगों की संक्चया 62,000 से सिर्फ 58,000 पर आ पाई है. 3,000 प्रीफैब्रिकेटेड घरों में से सिर्फ 400 ही तैयार हो सके हैं. लेइतानपोकपी और तोरबुंग जैसे 'फ्रिंज’ इलाकों में, जहां मैतेई और कुकी गांव एक-दूसरे के सामने फौजी बफर जोन के पार खड़े हैं, अपने घर लौटना हिम्मत का काम है.
कुकी-ज़ो समुदाय के बीच राहत कार्य में जुटे युवाओं के संगठन कुकी खांगलाई लावंपी के सूचना सचिव 37 साल के केनेडी हाओकिप कहते हैं, ''लोगों को सिर्फ कुछ सुरक्षा बलों के दम पर घर नहीं भेजा जा सकता, उन्हें सुरक्षित महसूस होना चाहिए. जब आवाजाही पर रोक है या आवाजाही ही नहीं है, तो लोग अपना रोजगार कैसे चलाएंगे. वे जिंदा कैसे रहेंगे?’’
कानों पर जूं तक नहीं
केंद्र सरकार ने दो साल से दोनों समुदायों के साथ अलग-अलग बातचीत की है, जिसका नतीजा 5 अप्रैल को दिल्ली में मैतेई और कुकी प्रतिनिधियों की पहली आमने-सामने बैठक के तौर पर निकला. सरकारी प्रतिनिधि ए.के. मिश्रा ने एक छह-सूत्रीय रोडमैप रखा, जिसमें दोनों पक्षों से हिंसा से दूर रहने, हथियारों की रिकवरी में मदद करने और बंद पड़े हाइवे फिर से खोलकर आवाजाही बहाल करने की अपील की गई. इस योजना के तहत बेघर लोगों की सुरक्षित वापसी, हिंसाग्रस्त इलाकों में विकास को प्राथमिकता देना और राजनैतिक तथा इलाकाई विवादों को बातचीत के जरिए सुलझाने का प्रस्ताव भी था.
कुकी-ज़ो समूहों की मूल मांग अब भी वही है: अलग प्रशासन. नवंबर में उनकी लीडरशिप ने नम्पी कॉन्क्लेव डिक्लेरेशन अपनाया, जिसमें केंद्र शासित क्षेत्र के दर्जे के साथ विधानसभा की मांग को औपचारिक रूप दिया गया, साथ ही कुकी-ज़ो काउंसिल, जोमी काउंसिल, चुने हुए विधायक, एसओओ (सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशंस) में शामिल समूहों और सिविल सोसाइटी संगठनों के बीच तालमेल को केंद्रीकृत किया गया.
एक वर्किंग ग्रुप और संयुक्त राजनैतिक आंदोलन कमेटी को अधिकार दिया गया है कि वे बातचीत में केएनओ (14 कुकी और नगा समूहों का संगठन) और 10 समूहों के संगठन यूनाइटेड पीपल्स फ्रंट (यूपीएफ) की ओर से बोलें. केएनओ के प्रवक्ता सेइलन हाओकिप का कहना है, ''बेघर लोगों की बहाली का कोई मतलब तभी होगा जब कुकी-ज़ो लोगों को केंद्र शासित क्षेत्र का दर्जा मिलेगा.’’
बेनजामिन मेट का कहना है कि दोनों समुदाय अब अलग-अलग, सुरक्षा वाले जोन में रहते हैं. एक-दूसरे पर भरोसा लगभग खत्म हो चुका है, और पूरी तरह एकीकृत मणिपुर की बात पर टिके रहना सिर्फ संघर्ष को अस्थायी तौर पर दबाना भर है. उनके मुताबिक, ऐसा ढांचा 'भारतीय संघ के भीतर संघर्ष प्रबंधन’ होगा, अलगाव नहीं. वे कहते हैं, ''दिल्ली जानती है कि 3 मई, 2023 से पहले वाली स्थिति लौट नहीं सकती, लेकिन केंद्र ने राजनैतिक समाधान की जगह अभी तक सिर्फ धीरे-धीरे बढ़ने वाले, सुरक्षा-आधारित कदम चुने हैं.’’ हालांकि गृह मंत्रालय ने पहले ही साफ कर दिया है कि कोई नया केंद्र शासित क्षेत्र नहीं बनाया जाएगा.

दूसरी तरफ, मैतेई समूहों ने नौ बड़ी मांगें रखी हैं, जिनका मकसद मणिपुर की क्षेत्रीय अखंडता बचाए रखना है. इनमें 1951 को आधार साल मानकर एनआरसी लागू करना, अवैध प्रवासियों को वापस भेजना, कुकी उग्रवादियों के साथ हुए एसओओ समझौतों को खत्म करना, अफीम की खेती को मिटाना, मैतेई समुदाय को एसटी दर्जा देना और कुकी समुदाय को एसटी सूची से हटाना शामिल है. मणिपुर के बंटवारे के खिलाफ आवाज उठाते हुए अथोउबा कहते हैं, ''फोकस मौजूदा प्रशासनिक ढांचे को मजबूत करने पर होना चाहिए, ताकि फैसलों में हर समुदाय की हिस्सेदारी हो और ऐसी योजनाएं लागू हों जिनका फायदा घाटी और पहाड़ी इलाकों दोनों को मिले.’’
लेकिन इससे पहले भरोसा बनाना पड़ेगा. फिलहाल दोनों पक्ष मानते हैं कि केंद्र स्थाई समाधान ढूंढने को लेकर गंभीर नहीं दिखता. अथोउबा कहते हैं, ''केंद्र की प्रतिक्रिया हमेशा घटना के बाद आती है, पहले से कोई तैयारी नहीं दिखती. बैठक और भरोसा दिलाने की बातें तो हैं, लेकिन असली समझ और जल्द कदम उठाने की इच्छा नहीं दिखती, चाहे सुरक्षा हो, राजनीति हो या स्थानीय लोगों के मानवीय हालात.’’ कुकी भाजपा विधायक पाओलिएनलाल हाओकिप तो अपनी ही पार्टी की लीडरशिप पर आरोप लगाते हैं. वे कहते हैं, ''मई 2023 में गृह मंत्री अमित शाह से एक बार मिलने के बाद, हमारी तमाम कोशिशों के बावजूद न प्रधानमंत्री और न ही गृह मंत्री ने हमसे मुलाकात की.’’
भागवत ने भी इशारों में इसी तरह का भाव जताया जब उन्होंने मणिपुर में कहा, ''सरकार को पता हो या न हो, हमें चिंता है.’’ लंबे समय से आरएसएस से जुड़े एक मैतेई सिविल सोसाइटी सदस्य कहते हैं कि आरएसएस लगातार शांति की कोशिश कर रहा है, लेकिन केंद्र सरकार उसकी बातों को ज्यादा तवज्जो नहीं देती, ''शायद भू-राजनैतिक मजबूरियों की वजह से ऐसा है.’’
उधर मैतेई भाजपा विधायक चुनी हुई सरकार की वापसी की मांग कर रहे हैं, लेकिन कुकी-ज़ो भाजपा विधायक किसी भी ''लोकप्रिय सरकार’’ में शामिल होने या उसे समर्थन देने को तैयार नहीं हैं. 12 नवंबर को भाजपा के राष्ट्रीय संगठन महासचिव बी.एल. संतोष और पूर्वोत्तर मामलों के प्रभारी संबित पात्रा ने तीन दिन के लिए इंफाल जाकर हालात का जायजा लिया और सत्ताधारी पार्टी विधायकों से बातचीत की. भाजपा के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि केंद्रीय नेतृत्व फिलहाल मौजूदा व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं करेगा, कम से कम तब तक नहीं, जब तक अगले साल की शुरुआत में पांच बड़े राज्यों के चुनाव खत्म नहीं हो जाते, जिनमें असम और पश्चिम बंगाल भी शामिल हैं.
दो हिस्सों में बंटा राज्य
मणिपुर का टकराव असल में दो समुदायों के बीच लंबे समय से चल रही खींचतान का नतीजा है: इंफाल और आसपास की घाटियों में रहने वाले मैतेई, और पहाड़ियों में बसे जनजातीय कुकी-ज़ो समूह. मणिपुर की कुल 32.2 लाख आबादी में मैतेई, जो ज्यादातर हिंदू हैं, करीब 53 फीसद हैं, लेकिन वे राज्य की सिर्फ 9 फीसद जमीन पर रहते हैं. इसी असंतुलन को वे अपनी सबसे बड़ी शिकायत बताते हैं.
दूसरी ओर, कुकी-ज़ो, जो ज्यादातर ईसाई हैं, और उनके साथ नगा जैसे दूसरे जनजातीय समूह मिलकर 47 फीसद आबादी बनाते हैं. लेकिन राज्य की लगभग 90 फीसद जमीन उन्हीं के इलाकों में आती है, भले ही उसका बड़ा हिस्सा पूर्वी हिमालय की ऊबड़-खाबड़, मुश्किल और कम आबादी वाली पहाड़ियां हों. मैतेई लोगों का कहना है कि जनजातीय इलाकों से जुड़े कानून उन्हें इन जिलों में जमीन खरीदने नहीं देते, और यही उनके गुस्से की जड़ है.
कुकी-ज़ो समुदाय की नाराजगी की जड़ यह है कि सघन आबादी वाली इंफाल घाटी मैतेई वोटरों को इतनी ताकत देती है कि वे 60 में से 40 विधानसभा सीटों पर चुनाव नतीजों को प्रभावित कर राज्य की राजनीति में हावी रहते हैं.
हालात मई 2023 में तब फट पड़े जब मणिपुर हाइकोर्ट ने राज्य सरकार से मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने पर विचार करने को कहा. इससे उन्हें पहाड़ी इलाकों में जमीन खरीदने का अधिकार मिल जाता. कुकी-ज़ो समुदाय के लोगों ने इसे अपनी जमीन और पहचान पर सीधा हमला माना.
नगा समूह भी मैतेई लोगों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने के विचार के खिलाफ हैं, लेकिन वे उसे अपने वजूद पर फौरी खतरा नहीं मानते. मैतेई-नगा संबंध घुसपैठ-ड्रग्स व्यापार के आरोपों से मुक्त हैं, जिससे मैतेई और कुकी-ज़ो संबंधों में दरार है. टकराव वाले इलाकों से सीधा संबंध न होने से नगा लोगों के इस लड़ाई में कूद पड़ने की कोई वजह नहीं है. मैतेई और कुकी-ज़ो समुदायों के बीच विरोध कुछ ही घंटों में हिंसा में बदल गया और राज्य के इतिहास के सबसे बुरे जातीय संघर्षों में से एक शुरू हो गया.
तनाव और अविश्वास वाले ऐसे माहौल में ही भागवत की इंफाल यात्रा पर सबकी नजर थी. मैतेई समुदाय ने इसे एक तरह की आश्वस्ति की तरह देखा, जब भागवत ने कहा कि ''हिंदू हमेशा रहेंगे.’’ उनके लिए यह संकेत था कि आरएसएस मणिपुर के संकट को एक बड़े सभ्यतागत संघर्ष का हिस्सा मानता है.

दूसरी तरफ, ईसाई कुकी-ज़ो समुदाय के लिए यही बात उनकी पुरानी आशंकाओं को और मजबूत करती दिखी कि आरएसएस का मकसद मेल-मिलाप नहीं, बल्कि उन्हें अपने ढांचे में ढालना है. भागवत का पहाड़ी कुकी इलाकों में न जाना भी इसी डर को पुख्ता करता है कि दिल्ली की सत्ता पूरी तरह घाटी के साथ खड़ी है. एक कुकी नेता के मुताबिक, ''भागवत के दौरे ने खाई कम करने के बजाए यह सोच और गहरी कर दी कि शांति मैतेई-आरएसएस की शर्तों पर ही होगी, जिससे पहाड़ और ज्यादा अलग-थलग पड़ जाएंगे.’’
इससे पहले एन. बीरेन सिंह, जो मैतेई हैं और इस साल फरवरी तक मुख्यमंत्री रहे, पर यह आरोप लगा कि उन्होंने अवैध घुसपैठ और ड्रग्स के खिलाफ अभियान के नाम पर ऐसी नीतियां चलाईं जो कुकी-ज़ो जनजातियों के हितों के खिलाफ थीं. हालांकि वेस्ट वर्जिनिया यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर अजैलियू न्यूमाई, जो समाजशास्त्री और मणिपुर की नगा स्कॉलर हैं, इसे 'बहाना’ नहीं मानतीं. उनके मुताबिक, इस संघर्ष की गहरी वजहों में अवैध घुसपैठ, तेजी से फैलता ड्रग नेटवर्क और पहाड़ी इलाकों, खासकर कुकी-ज़ो इलाकों में बड़े पैमाने पर होती पोस्ते (पॉपी) की खेती शामिल है.
पुलिसिया राज्य
फरवरी में राष्ट्रपति शासन लागू होने के बाद से मणिपुर अब लगभग एक पुलिस-राज्य में तब्दील हो गया है. सभी ऑपरेशन एक यूनिफाइड कमांड स्ट्रक्चर के जरिए चलाए जा रहे हैं, जिसकी कमान केंद्रीय गृह मंत्रालय के सुरक्षा सलाहकार, पूर्व सीआरपीएफ प्रमुख कुलदीप सिंह के हाथ में है. इसमें करीब 80,000 सुरक्षा कर्मी तैनात हैं, जिनमें भारतीय सेना, असम राइफल्स, सीआरपीएफ, बीएसएफ, आइटीबीपी, एसएसबी और आरएएफ के जवान शामिल हैं. उनका मुख्य काम हाइवे सुरक्षित रखना, काफिलों को एस्कॉर्ट करना और बफर जोन में किसी भी तनाव को भड़कने से रोकना है.
सुरक्षा बल अब पहाड़ी और मैदानी दोनों इलाकों में 115 चेकपॉइंट संभाल रहे हैं. इंफाल से चुराचांदपुर जाने वाली सड़क पर ही ऐसे सात नाके पड़ते हैं, जहां हर जगह नाम, आधार नंबर और गाडिय़ों का पूरा ब्योरा दर्ज किया जाता है ताकि कोई मैतेई या कुकी 'वर्जित जोन’ में न जा सके.
यह विभाजन शासन-प्रशासन के भीतर भी घुस गया है. अफसरों और पुलिसकर्मियों के तबादले अब जातीय आधार पर हो रहे हैं. मैतेई अधिकारियों को घाटी में और कुकी अधिकारियों को पहाड़ों में भेजा जा रहा है. इससे दो समानांतर नौकरशाही खड़ी हो गई हैं, जिसने इस बंटवारे को लगभग औपचारिक रूप दे दिया है.
शांति का प्रदर्शन
जिन लोगों के घर उजड़ गए, वे आज भी जवाबों का इंतजार कर रहे हैं, लेकिन अपने-अपने अलग-थलग इलाकों में एक तरह की नकली सामान्य स्थिति दिखती है. इंफाल में बच्चे पार्कों में फुटबॉल खेलते नजर आते हैं; चुराचांदपुर में औरतें बाजारों में खरीदारी करती हैं; गांवों में दावतें फिर शुरू हो गई हैं, जैसे जिंदगी अपनी पुरानी लय में लौट आई हो.
सरकार भी ऐसे ही आयोजनों और दिखावटी भव्यता के जरिए इस माहौल को शांत दिखाने की कोशिश कर रही है. अक्तूबर में इंफाल ने मणिपुर ग्लोबल बायर्स ऐंड सेलर्स समिट और मेरा होऊ चोंगबा महोत्सव की मेजबानी की. यह महोत्सव कभी पहाड़ और घाटी के रिश्तों की पहचान हुआ करता था. लेकिन इन आयोजनों में कुकी-ज़ो प्रतिनिधियों की गैर-मौजूदगी अलग ही कहानी बयान करती है.
जब 21 नवंबर को सालाना संगाई फेस्टिवल साल 2022 के बाद फिर शुरू हुआ तो विस्थापित परिवारों ने उसे जबरन दिखाई जा रही 'सामान्य स्थिति’ मानकर ठुकरा दिया. इंफाल में सैकड़ों लोग अपने घरों की ओर कूच करने की कोशिश करते हुए सुरक्षा बलों से भिड़ गए. उनका तर्क था कि अगर राज्य पर्यटन महोत्सव के लिए सुरक्षित है, तो उन्हें वापस लौटने देने के लिए क्यों नहीं?
नागरिक संगठनों ने भी यही गुस्सा जताया कि सरकार त्योहार मनाने के बजाए पहले जातीय संघर्ष सुलझाए और बेघर हुए लोगों के पुनर्वास को प्राथमिकता दे. इस बीच, गवर्नर अजय कुमार भल्ला ने फेस्टिवल के उद्घाटन में दावा किया कि इससे आर्थिक बहाली तेज होगी, लेकिन बाहर आंसू गैस, बैरिकेड और घायल बेघर लोग कुछ और ही कहानी बता रहे थे: सरकारी 'सुधार’ की कहानी और मणिपुर के विस्थापितों की हकीकत के बीच की गहरी खाई है.
केंद्र की खुद की रिपोर्ट से हालात की अनिश्चितता साफ दिखती है. इसी वजह से 1 अक्तूबर से सिर्फ घाटी के पांच जिलों—इंफाल पश्चिम, इंफाल पूरब, विष्णुपुर, थाउबल और काकचिंग के 13 थानों को छोड़कर पूरे राज्य में सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) कानून को छह महीने के लिए बढ़ाया गया है. इस बीच, मणिपुर में बंदूकें अब भी तनी हुई हैं.
टकराव के शुरुआती महीनों में जिन छह हजार से ज्यादा हथियारों को राज्य के खजाने से लूटा गया था, उनमें से मुश्किल से आधे—करीब तीन हजार—ही वापस मिल पाए हैं. बाकी अब भी लोगों के पास हैं.
जब तक कोई राजनैतिक हल निकलकर असली सुलह और खुद-से हथियार छोड़ने का रास्ता नहीं बनाता, मणिपुर की यह नाजुक सी शांति सिर्फ फौज की मौजूदगी पर टिकी रहेगी. कोकोमी (कोऑर्डिनेटिंग कमेटी ऑन मणिपुर इंटेग्रिटी) के संयोजक खुराइजम अथौबा कहते हैं कि राष्ट्रपति शासन ने आम लोगों को कोई खास सुरक्षित महसूस नहीं कराया है. उनका कहना है कि सुरक्षा अगर लोगों को बराबरी और अधिकार न दे, तो उससे शांति नहीं, सिर्फ खामोशी और डर पैदा होता है.
कुकी समुदाय की शिखर संस्था कुकी इंपी के एच.एस. बेंजामिन मेट भी यही मानते हैं. उनका कहना है कि राष्ट्रपति शासन ने ऊपर-ऊपर तो एक तरह की तटस्थ प्रशासनिक परत बना दी है, लेकिन जमीन पर जो पुरानी पक्षपात वाली सोच जमी हुई है, उसे हटाने में नाकाम है.
खस्ताहाल अर्थव्यवस्था
एक तो मणिपुर की अर्थव्यवस्था पहले ही कोविड के असर से जूझ रही थी, ऊपर से 2023 की हिंसा ने उसे पूरी तरह डगमगा दिया. हालात ऐसे थे कि कमाई घटती गई और इमरजेंसी जरूरतें बढ़ती गईं, जिसकी वजह से सरकारी खजाना बुरी तरह संकट में आ गया.
जून में राज्यपाल अजय कुमार भल्ला ने यह कहकर कि हिंसा के बाद आर्थिक गतिविधियां लगभग ठप हो गई हैं और टैक्स आमदनी बुरी तरह गिर गई है, केंद्र से 1,000 करोड़ रुपए की खास मदद मांगी. राज्य में 2024-25 के लिए 1,554 करोड़ रुपए का टैक्स घाटा बताया गया, जो पिछले साल के 1,528 करोड़ रुपए से ज्यादा है. दिसंबर 2023 से दिसंबर 2024 के बीच मणिपुर की जीएसटी वसूली 8 फीसद गिर गई. जो राज्य कभी 2018 से 2020 के बीच जीएसटी बढ़ोतरी में टॉप पर था, वह अब सबसे नीचे पहुंच गया है.
पहाड़ और घाटी को जोड़ने वाली बाजार की धड़कती धमनियां अब टूट चुकी हैं. पीढ़ियों से घाटी से चावल, मछली, न्गारी (फर्मेंटेड फिश) और दूसरी प्रोसेस्ड चीजें जाती थीं, जबकि पहाड़ों से वनोपज, जलावन, फल और सब्जियां नीचे आते थे. यही लेन-देन दोनों इलाकों को जोड़कर रखता था और उनकी चीजें इंफाल, मोइरांग, बिष्णुपुर, लमलोंग, सिंगजामेई, थाउबल, काकचिंग, सेक्माई और चुराचांदपुर जैसे रौनकदार बाजारों में मिलती थीं.
अब यह पूरा नेटवर्क बिखर गया है. मणिपुर चैंबर ऑफ कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्री के सचिव हाओरकचम अनिल कहते हैं, ''रोजाना का कारोबार खत्म हो गया है.’’ उनके मुताबिक हजारों एक-दूसरे जिलों के मजदूर और प्रोफेशनल ड्राइवर, मैतेई और कुकी दोनों, अपनी रोजी-रोटी खो बैठे हैं.
मणिपुर को चाहिए क्या
प्रशासन, सुरक्षा और शांति प्रक्रिया से जुड़े ज्यादातर विशेषज्ञ मानते हैं कि मणिपुर की जातीय दरार को भरने का कोई भी रास्ता तभी शुरू हो सकता है जब सैन्य मौजूदगी कम की जाए और वे लूटे गए हथियार वापस लिए जाएं जिनके भरोसे मैतेई और कुकी इलाकों में आज भी उग्रवादी ताकतें सक्रिय हैं.
जब तक ये हथियार वापस नहीं किए जाते और उग्र संगठनों को बेअसर नहीं किया जाता, यह सुकून असल में डर की चुप्पी रहेगा, शांति नहीं. विशेषज्ञ यह भी चेतावनी देते हैं कि अगर शांति वार्ता ऐसे ही चलती रही तो उसका नियंत्रण उन पुराने सिविल सोसाइटी समूहों के हाथ में आ जाएगा, जो अपने-अपने समुदाय के हितों के लिए लड़ते हैं. इसलिए जरूरत निष्पक्ष और संविधान आधारित मध्यस्थों की है जो दोनों तरफ बातचीत को संतुलित रख सकें.
एक केंद्रीय विश्वविद्यालय के प्रोफेसर का कहना है कि दोनों ही खेमों में आम लोगों की सच्ची आवाज रखने वाले प्रतिनिधि मौजूद नहीं हैं. वे कहते है, ''केंद्र के लिए लोगों का भरोसा वापस पाना लंबा और मुश्किल सफर होगा. हिंसा के बाद लगभग दो साल तक बीरेन सिंह सरकार को समर्थन देते हुए, भाजपा नेतृत्व वाले केंद्र ने बड़ी संख्या में मैतेई लोगों और पूरी कुकी आबादी का भरोसा खो दिया है. अब उसे पारदर्शी कार्रवाई और साफ संवाद के जरिए अपनी नीयत दिखानी होगी.’’
विशेषज्ञों की राय है कि राहत, पुनर्वास और भरोसा बहाल करने वाले उपायों को तेज करना चाहिए, ताकि कैंपों में रह रहे बेघर लोगों की सुरक्षित वापसी तय हो सके. वरिष्ठ केंद्रीय नेताओं के लगातार दौरे, जो सिर्फ औपचारिक न हों, बहुत जरूरी मानी जा रही है ताकि राजनैतिक इच्छा और सहानुभूति का साफ संकेत मिले.
सुधार का दूसरा रास्ता बंद पड़ी सड़कों को खोलना है. मणिपुर चैंबर ऑफ कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्री के अनिल चेतावनी देते हैं, ''जिलों और हाइवे पर आवाजाही शुरू हुए बिना, अर्थव्यवस्था और डूबेगी. जब पेट खाली होता है तो गुस्सा और नफरत ही बढ़ती है. कारोबार और ट्रांसपोर्ट वापस शुरू करना सिर्फ आॢथक जरूरत नहीं, भरोसा बहाल करने की पहली सीढ़ी है.’’ और यह बेहद जरूरी भी लगता है.
लंबे समय की शांति के लिए जानकार गहरे ढांचे वाले सुधारों की सलाह देते हैं: ऐसी व्यवस्था, जिसमें भूमि संबंधी नियम घाटी और पहाड़ी इलाकों दोनों के मालिकाना हक को एक साथ संतुलित करे, सभी समुदायों में राजनैतिक ताकत और विकास का ज्यादा न्यायपूर्ण बंटवारा करे, सीमा को मजबूत करे, ताकि अवैध घुसपैठ रुके और मादक पदार्थों-हथियार की तस्करी पर सख्त कार्रवाई हो. उनका कहना है कि अगर ये कदम नहीं उठाए गए तो मौजूदा जातीय बंटवारा स्थाई राजनैतिक हकीकत बन सकता है.

