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गुजरात: अपने ही गढ़ में चौतरफा खतरे में क्यों है कपास?

अपने ही गढ़ गुजरात में कपास का भविष्य अनिश्चित दिख रहा है. ढुलमुल अर्थव्यवस्था और नई फसलों की वजह से किसान कपास से दूर जा रहे हैं

अहमदाबाद में उतारी जा रही कपास की गांठें
अपडेटेड 26 नवंबर , 2025

एक धागा जो प्राचीन व्यापार से आज की भूआर्थिकी तक आता है. जी हां, भारत के कपास की कहानी दर्ज इतिहास जितनी ही पुरानी है, यह पीछे हड़प्पा सभ्यता के दिनों तक जाती है, और गुजरात हमेशा इस बुनाई का हिस्सा रहा.

उस सभ्यता की तरह लुप्त होते जाने का खतरा इसके सिर पर भले न मंडरा रहा हो, लेकिन इसका तानाबाना छिन्न-भिन्न हो रहा है. अगस्त में केंद्र की तरफ से कच्चे कपास पर आयात शुल्क माफ किए जाने से कुछ दिन पहले गुजरात में खरीफ की बुआई के आंकड़ों से कपास की खेती के क्षेत्र में 15 फीसद की गिरावट आने का पता चला.

यह 20.3 लाख हेक्टेयर में की गई, जो लगातार तीसरे साल वार्षिक आधार पर गिरावट थी. कपास के संकट की विसंगति इसके तानेबाने में है, यानी भंडार की प्रचुरता के साथ सिकुड़ता रकबा. भारत के कपास उत्पादन में 2020-21 से चार वित्तीय साल में 20 फीसद की गिरावट आई, जो 371 लाख गांठों से घटकर करीब 294 लाख गांठें रह गया है.

तिस पर भी कॉटन एसोसिएशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष अतुल गनात्रा का कहना है कि यह क्षेत्र सदी की सबसे ज्यादा 56 लाख गांठें पिछले साल से नए साल में लेकर जाने की तरफ देख रहा है. आम तौर पर अगले साल के लिए 39 लाख से 40 लाख के बीच गांठें बचती थीं.

बेमेल हिसाब-किताब
तो ऐसा कैसे है कि कम उत्पादन के बावजूद आपूर्ति इतनी ज्यादा है? इसकी वजह आयात और निर्यात से समझिए. 2024-25 में निर्यात में सालाना आधार पर 13 फीसद की गिरावट आई. यह अपने आप में कम न थी, फिर भी दशकीय पैमाने पर फीकी पड़ जाती है. 2014-2015 से चौंका देने वाली 82 फीसद की गिरावट आई है. इसी निराशा की स्थिति में डोनाल्ड ट्रंप ने अपना डोलता कदम रखा. गनात्रा कहते हैं, ''अमेरिकी टैरिफ के बाद कपड़ा निर्यातकों को राहत देने के लिए केंद्र ने कच्चे कपास पर आयात शुल्क दिसंबर 2025 तक माफ कर दिया, ताकि मिलें ब्राजील, ऑस्ट्रेलिया और अफ्रीकी देशों से सस्ता कपास आयात कर सकें.''

राजकोट में अपनी मूंगफली की फसल के साथ एक किसान

गनात्रा के मुताबिक दिक्कत यह है कि भारतीय कपास निगम (सीसीआइ) के ''भंडार में एक करोड़ से ज्यादा गांठें'' हैं. गुजरात में किसानों का प्रमुख संगठन आरएसएस से जुड़ा भारतीय किसान संघ (बीकेएस) राज्य के 15 लाख कपास किसानों के लिए बदतरीन की आशंका से घिरा है. इस साल मध्यम रेशे वाले कपास का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एसएसपी) 7,710 रुपए और लंबे रेशे वाले कपास का 8,110 रुपए तय किया गया है. गुजरात में बीकेएस के महामंत्री आर.के. पटेल कहते हैं, ''अधिकता के कारण हम उम्मीद कर रहे हैं कि खुले बाजार में कीमत करीब 2,400 रुपए प्रति क्विंटल तक गिर जाएगी, जो चल नहीं सकता.'' यूनियन ने केंद्र को पत्र लिखकर कच्चे कपास पर आयात शुल्क तत्काल बहाल करने की मांग की है ताकि कपास किसानों को बचाया जा सके. वे कहते हैं, ''अगर ऐसा नहीं किया गया तो कपास फसल के तौर पर कम से कम गुजरात से गायब हो जाएगा.''

नकली 'बीटी कॉटन' का असर इसके अलावा, 2002 से गुजरात और दक्कन में उगाई गई 95 फीसद फसल आनुवांशिक तरीके से रूपांतरित बीटी कॉटन रही है. अमेरिकी फर्म मोनसैंटो के हाथों भारत लाई गई इस टेक्नोलॉजी की खासकर गुजरात के स्थानीय बीज निर्माताओं ने गैरकानूनी ढंग से नकलें तैयार कीं और भारत भर के किसानों को इनकी आपूर्ति कर दी. नवसारी कृषि विश्वविद्यालय से जुड़े सेवानिवृत्त कपास वैज्ञानिक डॉ बी.जी. सोलंकी का कहना है कि इसकी वजह से पैदावार में लगातार कमी आई. बीते दो साल में सौराष्ट्र के कुछ हिस्सों में पूरी फसल बर्बाद हो गई.

विडंबना यह है कि नकली बीटी कपास में मीली बग, सफेद मक्खी और हाल ही में गुलाबी बॉलवर्म सरीखे कीटों का प्रतिरोध करने की शक्ति नहीं है. प्राकृतिक खेती के समर्थक कार्यकर्ता कपिल शाह कहते हैं, ''इसने फसलों को बर्बाद कर दिया. कीटनाशकों के ज्यादा इस्तेमाल से मिट्टी को हुए नुक्सान की भरपाई में सालों लगेंगे.'' पटेल दु:ख के साथ कहते हैं कि अगर सरकार समय रहते नई बीज तकनीक या मिट्टी की बहाली की सलाहें लेकर आगे आई होती तो भारत कपास में अपना शीर्ष स्थान बरकरार रख पाता.

खास बातें

> गुजरात में कपास की खेती का रकबा तेजी से घटा, इस साल 15 फीसद गिरावट आई. भारत की शीर्ष वैश्विक रैंक का भविष्य अंधकारमय.

> कम पैदावार और आयात के कारण कीमत में बिगाड़ के चलते किसानों ने तिलहन का रुख किया. पर्यावरणवादी इससे खुश हैं.

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