लखनऊ नगर निगम के मुख्यालय में पिछले कुछ हफ्तों से माहौल असामान्य है. कमरे वही हैं, फाइलें वही हैं, लेकिन बातचीत का लहजा बदल गया है. मेयर सुषमा खर्कवाल और नगर आयुक्त गौरव कुमार के बीच चल रही तनातनी अब सिर्फ फाइलों तक सीमित नहीं रही. यह विवाद शहर की सड़कों, लाइटों और विकास योजनाओं तक पहुंच चुका है. नगर निगम की कार्यकारिणी समिति की बैठकें स्थगित हो रही हैं और लखनऊ नगर निगम का प्रशासनिक पहिया धीरे-धीरे जाम होता जा रहा है. 24 अक्तूबर की दोपहर इसका खुला प्रदर्शन हुआ. नगर निगम की कार्यकारिणी बैठक में जब मेयर खर्कवाल ने सवालों की झड़ी लगाई तो अफसरों की पंक्ति में सन्नाटा फैल गया. बैठक में उन्होंने साफ कहा, ''नगर निगम के अधिकारी काम नहीं करना चाहते.'' जवाब में नगर आयुक्त गौरव कुमार ने ठंडे स्वर में नियमों की किताब खोल दी. उन्होंने कहा, ''सारे अधिकार नियमावली में दर्ज हैं, जिसे कोई भी देख सकता है.'' इसके बाद बैठक स्थगित करनी पड़ी.
असल विवाद नगर निगम के अधिकार क्षेत्र को लेकर है. कार्यकारिणी समिति की अध्यक्ष मेयर हैं, जो शहर के नीतिगत फैसले लेती हैं, लेकिन उन पर अमल कराने की जिम्मेदारी नगर आयुक्त की होती है. कागज पर यह साझेदारी दिखती है, लेकिन हकीकत कुछ और है.
हालांकि तनाव की शुरुआत नई नहीं है. ठीक साल भर पहले अक्तूबर 2024 में खर्कवाल ने नगर निगम के कुछ अधिकारियों की शिकायत शासन से की थी. इस साल जून में उन्होंने नगर आयुक्त की कार्यशैली पर सवाल उठाते हुए लिखित स्पष्टीकरण मांगा था. लेकिन इस बार टकराव ज्यादा बढ़ गया. 24 अक्तूबर की बैठक में जब कार्यकारिणी के पिछले निर्णयों की समीक्षा हुई, तो सामने आया कि अगस्त में हुए संकल्पों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है. महापौर ने कहा था कि दशहरे तक 25 फीसद और दीपावली तक 100 फीसद स्ट्रीटलाइटें लग जानी चाहिए थीं पर कई मोहल्लों में अब भी अंधेरा है. उन्होंने इसे 'शर्मनाक स्थिति' कहा. साथ ही पद्म विभूषण अमृतलाल नागर के नाम पर चौराहे के नामकरण और मार्ग प्रकाश कर्मचारियों को न्यूनतम मजदूरी देने के निर्णय पर अमल न होने को लेकर भी नाराजगी जताई थी. मुख्य अभियंता सिविल ने सफाई दी थी कि ढाई अरब रुपए की व्यवस्था होने पर ही सड़कों के गड्ढे भरे जा सकते हैं. लेकिन महापौर का जवाब सख्त था, ''मुख्यमंत्री ने दीपावली से पहले गड्ढे भरने का आदेश दिया था, फिर देरी क्यों?''
तनाव का अगला दौर 29 अक्तूबर को सामने आया, जब मेयर कैंप कार्यालय में तैनात बाबू सुखदेव का वेतन रोक दिया गया. कारण था, उन्होंने नगर निगम की ओर से भेजे गए पुनरीक्षित बजट की प्रति रिसीव करने से मना कर दिया था. इस कार्रवाई से मेयर भड़क उठीं. उन्होंने कहा, ''मेरे कार्यालय के किसी कर्मचारी पर नगर आयुक्त या अपर नगर आयुक्त तब तक कार्रवाई नहीं कर सकते जब तक मैं संस्तुति न दूं. यह नियमों के खिलाफ है.'' महापौर ने नगर निगम से यह कार्रवाई वापस लेने की मांग की. जानकारों के मुताबिक, यह इन दोनों के लिए नाक का सवाल बन गया. 30 अक्तूबर की बैठक में मेयर ने नाराजगी जताई कि अफसरों ने पुनरीक्षित बजट की प्रति उन्हें पहले चपरासी से, फिर डाक से और आखिर में ईमेल से भेजी. ''क्या मैं ईमेल से बजट पास करूंगी?'' उन्होंने तंज भरे लहजे में कहा.
इस टकराव का सबसे बड़ा असर आम लोगों पर पड़ा है. लखनऊ की सड़कों की हालत खराब है, स्ट्रीटलाइटें बंद हैं और कई वार्डों में सफाई का काम आधा-अधूरा है. करीब 50 करोड़ रुपए के मरम्मत और प्रकाश कार्य की फाइलें कार्यकारिणी समिति की मंजूरी का इंतजार कर रही हैं. जब तक महापौर बैठक नहीं बुलातीं या लिखित आदेश नहीं देतीं, पैसा खर्च नहीं किया जा सकता. शहर के एक वरिष्ठ पार्षद कहते हैं, ''हमारे वार्ड में दो महीने से सड़क खुदी है, लेकिन फंड रिलीज नहीं हो रहा. जनता हमसे सवाल करती है, और हम कुछ नहीं कर पाते.''
मेयर और नगर आयुक्त के बीच टकराव की जड़ अधिकारों की सीमाएं हैं. मेयर के पास नीतिगत फैसले लेने का अधिकार है, जैसे सड़क, पार्क या मोहल्ले के नामकरण, वार्ड विकास निधि का उपयोग और कार्यकारिणी समिति की अध्यक्षता. दूसरी ओर, नगर आयुक्त के पास प्रशासनिक और वित्तीय अधिकार हैं. वे पत्रावलियों को मंजूरी देते हैं, भुगतान स्वीकृत करते हैं और फाइलों पर अंतिम हस्ताक्षर उन्हीं के होते हैं. दोनों पक्ष अपने-अपने अधिकारों की सीमा में रहना चाहते हैं, लेकिन सीमा की परिभाषा ही विवाद का केंद्र बन गई है. एक सीनियर ब्यूरोक्रेट कहते हैं, ''नियमों में स्पेस बहुत है और इसे संवाद से भरना चाहिए, लेकिन लखनऊ में संवाद की जगह अब टकराव ने ले ली है.'' लखनऊ नगर निगम के इतिहास में ऐसा विवाद पहले भी हुआ है लेकिन इतना सार्वजनिक शायद ही कभी हुआ हो. नगर निगम के पुराने अफसर बताते हैं कि पिछले 25 साल में पहली बार ऐसा हुआ है जब मेयर और नगर आयुक्त इस तरह आमने-सामने हैं.
फिलहाल हालात में सुधार के संकेत नहीं दिख रहे. 30 अक्तूबर की कार्यकारिणी बैठक भी अधूरी रही. मेयर ने कहा कि अगली बैठक तभी होगी जब नगर आयुक्त लंबित मामलों पर रिपोर्ट देंगे. दूसरी ओर नगर आयुक्त का कहना है कि ''सभी प्रस्तावों पर नियमों के तहत कार्रवाई की जा रही है.''
फिलहाल लखनऊ का नगर निगम उसी मोड़ पर खड़ा है, जहां संवाद की जगह अविश्वास ने ले ली है. और जब संस्थागत अविश्वास बढ़ जाता है, तो शहर का विकास सबसे ज्यादा नुकसान झेलता है.
हर तरफ विवाद
> वाराणसी : 1 नवंबर को नगर निगम के पुनरीक्षित बजट की बैठक में मेयर अशोक कुमार तिवारी का अफसरों से विवाद हो गया
> आगरा: सितंबर में एक आउटसोर्सिंग कंपनी का कार्यकाल बढ़ाने पर मेयर हेमलता दिवाकर और नगर आयुक्त भिड़े
> मेरठ : 19 अप्रैल को बजट स्वीकृति का मेयर हरिकांत अहलूवालिया अधिकारियों से विवाद हुआ
> गाजियाबाद: शासकीय कार्यों की पत्रावलियों को देखने को लेकर महापौर सुनीता दयाल और नगर आयुक्त विक्रमादित्य मलिक के बीच विवाद सामने आया
व्यवस्था की उलटबांसी
> 74वें संविधान संशोधन ने शहरी स्थानीय निकायों को 12वीं अनुसूची में सूचीबद्ध 18 कार्यों को करने का अधिकार दिया. यह मेयर को ताकतवर बनाता है
> उत्तर प्रदेश में 74वां सविधान संशोधन पूरी तरह लागू नहीं हुआ. इस कारण मेयर और नगर आयुक्तों के बीच टकराव रहता है
> मेयर शहर का प्रथम नागरिक है और मिनी सदन का मुखिया भी लेकिन यदि उसने कोई प्रस्ताव पारित कराया है तो नगर आयुक्त उसका परीक्षण कराकर लागू कराएगा. यहीं से विवाद शुरू होता है.
> सारे वित्तीय और प्रशासनिक निर्णय भी नगर आयुक्त ही लेने में सक्षम है.
> नगर निगम पर अनियोजित कालोनियों के विकास का जिम्मा है लेकिन मेयर को विकास प्राधिकरणों के साथ इन क्षेत्रों के विकास कराने का अधिकार नहीं है.
> केंद्र सरकार का शासनादेश है कि नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम (एन कैप) का अध्यक्ष मेयर को होना चाहिए लेकिन उत्तर प्रदेश में इसे लागू ही नहीं किया गया.

