अब क्या जाति-आधारित आरक्षण योग्यता खत्म कर देता है या भविष्य में योग्यता का निर्माण करता है? यह इस पर निर्भर करता है कि आप सवाल किससे पूछते हैं, लेकिन कोई इस बात से इनकार नहीं करेगा कि जब भी नया आरक्षण लागू होता है, तो वह समाज और राजनीति दोनों के लिए संघर्ष की स्थिति पैदा कर देता है.
सुप्रीम कोर्ट में चल रहे एक मामले में अगर मोहन यादव सरकार का रुख ऐसा ही रहता है तो मध्य प्रदेश भी एक ऐसे मोड़ पर होगा. दरअसल, यह अप्रत्याशित नहीं है जो सभी दल नौकरी और शिक्षा में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का आरक्षण 14 से बढ़ाकर 27 फीसद किए जाने का समर्थन कर रहे हैं.
इसके साथ ही यह भी अनहोनी बात नहीं कि कुछ छात्र संगठन इसका विरोध कर रहे हैं, लेकिन सत्तारूढ़ भाजपा ऊहापोह में फंसी है. सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हलफनामे में राज्य ने इसमें बढ़ोतरी के समर्थन में तर्क दिए हैं, इससे अगड़ी जातियों—जो भाजपा का पारंपरिक आधार है—में नाराजगी आ रही है.
सामाजिक लिहाज से बात करें तो ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में विद्वेष के संकेत दिखाई दे रहे हैं, जहां जातिगत पहचान सबसे ज्यादा गहरी है. यादव के मामले में एक अतिरिक्त नाजुक पहलू है. वे खुद इस बात की मिसाल हैं कि कैसे राज्य में प्रमुख दल नेतृत्व की भूमिका में ओबीसी समर्थन की पैरवी करते हैं.
वोट पर नजर
यह कांग्रेस ही थी जिसने सबसे पहले इस नीति के जरिए ओबीसी की सहानुभूति बटोरने की कोशिश की थी और उसके तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ ने मार्च 2019 में, लोकसभा चुनाव से ठीक पहले, इसकी घोषणा की थी. इसके बावजूद चुनाव नतीजों में ओबीसी समूहों ने कांग्रेस को कोई खास तवज्जो नहीं दी. लेकिन पार्टी इस कदम का बचाव करती रही और अभी भी इसका श्रेय लेने के लिए संभावित दावेदार बनी हुई है. जो भी हो, सामाजिक न्याय के मुद्दे पर राहुल गांधी के पूरी तरह ताकत लगाने से यह खतरा और बढ़ जाता है. इसलिए इस मामले में यादव का आगे आना समझदारी भरा कदम था.
उन्होंने अगस्त में एक सर्वदलीय बैठक बुलाई, फिर वहां बनी आम सहमति के आधार पर सरकार शीर्ष अदालत पहुंची. आरक्षण का यह मामला 2019 में शुरू हुआ जब कमलनाथ की नीति के तुरंत बाद छात्रों के एक समूह—अशिता दुबे और अन्य—ने इसे हाइकोर्ट में चुनौती दे दी. उनका आधार यह था कि इससे 1992 के ऐतिहासिक इंदिरा साहनी फैसले में सुप्रीम कोर्ट की ओर से निर्धारित 50 फीसद सीमा का उल्लंघन होगा. अभी अंतिम फैसला आना है मगर अदालत ने आदेश दिया कि मेडिकल पीजी परीक्षा में आरक्षण का पुराना स्तर ही जारी रहेगा.
इस साल जनवरी में, मध्य प्रदेश हाइकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश सुरेश कैत ने मामले से जुड़ी सभी याचिकाओं को मिलाने का फैसला किया. राज्य सरकार ने तुरंत सुप्रीम कोर्ट में स्थानांतरण याचिकाएं दायर कर दीं.
मध्य प्रदेश में मिली-जुली आबादी है जहां इस समय अनुसूचित जातियों के लिए 16 और अनुसूचित जनजातियों के लिए 20 फीसद का कोटा है, जो उनकी जनसंख्या के लगभग बराबर है. इससे ओबीसी के लिए केवल 14 फीसद कोटा बचता है जिनकी संख्या 2011 की जनगणना में 48 फीसद थी. 2019 में एक केंद्रीय कानून के बाद उसने 10 फीसद ईडब्ल्यूएस कोटा भी लागू किया था. कुल मिलाकर, मध्य प्रदेश में अभी 60 फीसदी आरक्षण है—ओबीसी के लिए वृद्धि से कोटा 73 प्रतिशत हो जाएगा.
इन सबके बावजूद, ओबीसी नेताओं को लगता है कि सरकार उनके लिए कोटा बढ़ाने को लेकर ईमानदार नहीं है. हाइकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता रामेश्वर ठाकुर कहते हैं, ''यह संशोधन कांग्रेस के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने किया था. भाजपा सरकार को लगता है कि अगर अदालत इसको मंजूरी दे देती है तो इसका श्रेय कांग्रेस को जाएगा, जिससे वे बचना चाहते हैं.'' ओबीसी एडवोकेट्स वेलफेयर एसोसिएशन, जिसके वे अध्यक्ष हैं, ने सुप्रीम कोर्ट में एक अर्जी दायर कर मांग की है कि ओबीसी कोटा जनसंख्या के अनुरूप 50 फीसद तक बढ़ाया जाए.
इसका कारण: पिछले 25 वर्षों में मध्य प्रदेश में ओबीसी पहचान की राजनीति का फिर से उभार हुआ है. 21 साल के शासनकाल में भाजपा के सभी चार मुख्यमंत्री—उमा भारती, बाबूलाल गौर, शिवराज चौहान और मोहन यादव—ओबीसी रहे हैं. दूसरी ओर, कांग्रेस के दो गैर-ओबीसी मुख्यमंत्री रहे हैं, दिग्विजय सिंह और कमलनाथ. लेकिन उसके तीन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष—सुभाष यादव, उनके बेटे अरुण यादव और निवर्तमान जितेंद्र पटवारी-ओबीसी थे.
खास बातें
> मोहन यादव सरकार सुप्रीम कोर्ट में 27 'ओबीसी कोटा का समर्थन कर रही है ताकि कांग्रेस इसका श्रेय न ले पाए.
> ओबीसी की आबादी करीब आधी लेकिन 16+20 'एससी/एसटी आरक्षण के बाद उसके पास बचता है सिर्फ 14 ', ऊपर से ईडब्ल्यूएस भी.

