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उत्तर प्रदेश : दलित उत्पीड़न के मामले भगवा खेमे के लिए कैसे बने बेचैनी की वजह?

लखनऊ, रायबरेली और ग्रेटर नोएडा की घटनाओं ने सूबे में दलित असंतोष को फिर उभारा है. कानून-व्यवस्था से आगे अब यह योगी सरकार के लिए नया सामाजिक और राजनैतिक संकट बन गया है

फतेहपुर में हरिओम वाल्मीकि की मां से मिलकर उन्हें सांत्वना देते लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी
अपडेटेड 19 नवंबर , 2025

लखनऊ के ऐतिहासिक काकोरी कस्बे में 20 अक्तूबर को दीपावली की शाम थी. लोग घरों को रोशनी से सजा रहे थे, मिठाइयों की खुशबू गलियों में फैली थी. लेकिन उसी रात, शीतला माता मंदिर के सामने रहने वाले 65 वर्षीय दलित रामपाल के लिए यह त्योहार अपमान का अंधेरा बन गया. मूत्र असंयम से पीड़ित रामपाल को स्थानीय दुकानदार स्वामीकांत उर्फ पम्मू ने मंदिर की सीढ़ियों से मूत्र चाटने के लिए मजबूर किया.

वजह: रामपाल ने सांस लेने के लिए नीचे बैठते वक्त गलती से मंदिर की सीढ़ी गंदी कर दी थी. गवाहों के मुताबिक, पम्मू ने उन्हें गालियां दीं, मारा-पीटा और 'शुद्धिकरण' के नाम पर सीढ़ियां चाटने को कहा. डर से कांपते रामपाल ने वैसा ही किया. रामपाल के शब्दों में, ''वह बोला, 'मंदिर गंदा किया है, इसे साफ करो.' मैं बीमार हूं लेकिन उसने मेरी हालत का मजाक उड़ाया.'' उन्होंने अगले दिन पुलिस में शिकायत दर्ज कराई. काकोरी थाने में मामला भारतीय दंड संहिता (बीएनएस) और अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत दर्ज हुआ. आरोपी गिरफ्तार हो गया. 

लेकिन क्या यह केवल एक घटना है? या उस सामाजिक ढांचे का लक्षण, जो आज भी दलितों को समान इंसान मानने से इनकार करता है? इस घटना के कुछ ही दिन पहले, रायबरेली के ऊंचाहार इलाके के दांडेपुर जमुनापुर गांव में 2 अक्तूबर को 28 वर्षीय दलित युवक हरिओम वाल्मीकि को भीड़ ने 'ड्रोन चोर' समझकर नंगा करके बेल्ट और बेंत से पीटकर मार डाला. हरिओम की मौत के बाद रायबरेली की सियासत में हलचल मच गई. हरिओम की मां सुशीला देवी रोते हुए कहती हैं, ''मेरे बेटे ने किसी का कुछ नहीं लिया. उन्होंने जाति देखकर उसे मारा.

पुलिस आई तब तक वह मर चुका था.'' घटना के 10 दिन बाद 12 अक्तूबर को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ खुद हरिओम के परिवार से मिले. उन्होंने परिजनों को सांत्वना दी और मृतक की पत्नी संगीता को स्थायी नौकरी, मकान और कई अन्य सरकारी योजनाओं का लाभ देने का वादा किया. लोकसभा में विपक्ष के नेता, कांग्रेस के राहुल गांधी 17 अक्तूबर को फतेहपुर पहुंचे और वहां हरिओम के परिवार से मुलाकात की. राहुल ने कहा, ''यह उत्तर प्रदेश नहीं, अन्याय प्रदेश है. सरकार ने दलितों को इंसान नहीं, वोट बैंक समझा है.'' उनके साथ प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय और पार्टी विधायक आराधना मिश्रा मोना भी थीं. कांग्रेस ने इस घटना को 'दलित असंतोष' का प्रतीक बताया.

रायबरेली में दलित की हत्या से उपजे असंतोष को थामने के लिए मुख्यमंत्री ने उच्चस्तरीय बैठक बुलाई और कहा, ''किसी भी समाज के व्यक्ति के साथ जातिगत भेदभाव अस्वीकार्य है. दोषियों को ऐसी सजा दी जाएगी जो मिसाल बने.'' उन्होंने एससी-एसटी ऐक्ट के मामलों में सात दिन के भीतर चार्जशीट दाखिल करने का निर्देश दिया. लेकिन विपक्ष ने इसे 'राजनैतिक फायरफाइटिंग' बताया. सपा प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने कहा, ''सरकार हर बार बयान देती है, लेकिन जमीनी हकीकत नहीं बदलती. दलितों को अपमान और हिंसा दोनों झेलनी पड़ रही है.'' भाजपा के प्रवक्ता राकेश त्रिपाठी ने पलटवार किया, ''जहां अपराध हुआ, वहां कार्रवाई हुई. विपक्ष सिर्फ कैमरे के लिए सहानुभूति दिखाता है, समाधान के लिए नहीं.''

काकोरी के दलित रामपाल

योगी सरकार दलित अपराध के अचानक आए मामलों के डैमेज कंट्रोल में जुटी ही थी कि ग्रेटर नोएडा में माहौल गरम हो गया. वहां 15 अक्तूबर को रबूपुरा इलाके में 22 वर्षीय दलित युवक अनिकेत जाटव को रॉड और हॉकी से मारा गया. दस दिन बाद 24 अक्तूबर की सुबह दिल्ली के अस्पताल में उसकी मौत हो गई. अनिकेत के चाचा सुमित ने बताया, ''पिछले महीने रामलीला में कुछ ऊंची जाति के लड़कों ने हमारे दोस्त से बदतमीजी की थी. अनिकेत ने विरोध किया, तभी से धमकियां मिल रही थीं.'' पुलिस ने पहले मारपीट की धारा लगाई, फिर हत्या और एससी-एसटी ऐक्ट की धाराएं जोड़ी गईं.

दलित अपराध पर नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े चौंकाने वाले हैं. वर्ष 2023 में दलितों पर अत्याचार के 13,146 मामले सिर्फ उत्तर प्रदेश में दर्ज हुए. यानी देश में होने वाले कुल ऐसे अपराधों का लगभग एक-चौथाई हिस्सा. इनमें हत्या, बलात्कार, सार्वजनिक अपमान, सामाजिक बहिष्कार और मंदिरों में प्रवेश रोकने जैसी घटनाएं शामिल हैं. दलित अधिकार कार्यकर्ता मनोज पासवान कहते हैं, ''ये आंकड़े सिर्फ रिपोर्टेड केस हैं. गांवों में डर और दबाव के कारण असली संख्या सामने नहीं आती.'' काकोरी का मंदिर अब पुलिस निगरानी में है. गांव के कुछ लोग आरोपी के पक्ष में हैं. एक दुकानदार बोला, ''रामपाल को राजनीति का केंद्र बनाया गया है. पूरा प्रकरण मंदिर परिसर में बीते दिनों हुई नौटंकी के दौरान अश्लील नृत्य के विरोध से जुड़ा हुआ है.'' 

रायबरेली, ग्रेटर नोएडा और काकोरी की घटनाओं ने प्रदेश की राजनीति को झकझोर दिया है. कांग्रेस इसे अपनी 'दलित पुनर्वापसी' रणनीति के रूप में देख रही है. सूबे में कहीं भी दलित अत्याचार के मामले आने पर लोकसभा में राहुल गांधी पीड़ित परिवारों से मिल रहे हैं. सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने भी कहा, ''योगी सरकार में दलितों का जीना मुश्किल हो गया है.'' पिछले लोकसभा चुनाव में निर्दलीय जीत हासिल कर चर्चा में आए आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद भी दलितों के मुद्दे पर मुखर हैं. हालांकि बसपा प्रमुख मायावती दलित अत्याचार के मुद्दे पर उतनी मुखर नहीं दिख रहीं जिसके लिए वे जानी जाती हैं. दलितों के बीच बढ़ते अत्याचार और उस पर इंडिया गठबंधन के नेताओं की सक्रियता ने भाजपा के लिए चिंता की लकीरें खींच दी हैं.

भाजपा के लिए सबसे बड़ी मुश्किल पार्टी के दलित चेहरों की निष्क्रियता भी है. दलितों में जाटव बिरादरी की सबसे बड़ी आबादी आगरा और पश्चिमी यूपी में है. भाजपा ने इस समाज से कई चेहरे आगे किए, कैबिनेट मंत्री बेबी रानी मौर्य, विधायक डॉ. जी.एस. धर्मेश, पूर्व आयोग अध्यक्ष डॉ. रामबाबू हरित और संगठन में अशोक पिप्पल जैसे नेता. फिर भी पार्टी के अंदर चिंता है कि ये चेहरे दलित वर्ग तक प्रभावी संदेश नहीं पहुंचा पा रहे. सपा सांसद और जाटव बिरादरी से आने वाले रामजी लाल सुमन और फैजाबाद से सपा सांसद और पासी नेता अवधेश प्रसाद के आक्रामक तेवर भाजपा पर भारी पड़ रहे हैं. भाजपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ''हर दलित अत्याचार के मामले में मुख्यमंत्री को ही सामने आना पड़ता है. हमारे दलित नेता वैचारिक मोर्चे पर उतने मुखर नहीं हैं.''

वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान यूपी में संविधान की किताब को हाथ में लेकर 'संविधान बचाओ' का नारा देने वाले राहुल गांधी और अखिलेश यादव का ही असर था कि विपक्षी इंडिया गठबंधन ने दलितों के मतों में भारी सेंधमारी कर दी थी. दलित वोटों के शिफ्ट होने से पिछले दो लोकसभा चुनावों में आरक्षित सीटों पर एकतरफा प्रदर्शन करने वाली भाजपा की सीटें घटकर आधी (8) हो गईं. बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय, लखनऊ के समाजशास्त्र विभाग में प्रोफेसर अजय कुमार बताते हैं, ''पिछले दो विधानसभा चुनावों में आरक्षित सीटों में हो रही गिरावट भाजपा के लिए चेतावनी है. अगर दलितों में सम्मान का सवाल हावी हुआ तो भाजपा को आने वाले चुनावों में नुक्सान होगा.'' मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने खतरे को भांपते हुए पूर्व आइपीएस अधिकारी और मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) असीम अरुण को दलित क्षेत्रों में जनसंपर्क के मिशन पर लगाया है. वे जाटव और वाल्मीकि बस्तियों में सभाएं कर रहे हैं, सरकारी योजनाओं की जानकारी दे रहे हैं.

एक वरिष्ठ आइएएस अधिकारी बताते हैं, ''दलित अत्याचार से जुड़े मामलों में स्थानीय स्तर पर अफसर सामाजिक दबाव झेलते हैं. जब आरोपी प्रभावशाली जाति के होते हैं, तो पुलिस भी असहज हो जाती है. यही असली चुनौती है.'' एनसीआरबी के अनुसार, दलित उत्पीड़न के मामलों में सजा की दर सिर्फ 27 फीसद है. मानवाधिकारवादी आरटीआइ वकील शैलेंद्र सिंह चौहान बताते हैं, ''अधिकांश मामलों में जांच अधिकारी पक्षपात करते हैं, गवाह पलट जाते हैं, या सामाजिक दबाव में केस कमजोर हो जाता है. कई बार पुलिस समझौते की सलाह देती है. काकोरी का केस भी शुरुआत में दबा दिया गया था, मीडिया के दबाव के बाद ही एफआइआर हुई.''

लखनऊ पुलिस कमिशनरेट में तैनात एक पुलिस अधिकारी के मुताबिक काकोरी जैसी घटनाएं याद दिलाती हैं कि समाज सुधार सिर्फ सरकार का काम नहीं. पुलिस कानून लागू कर सकती है, सोच नहीं बदल सकती. मुख्यमंत्री का राजनैतिक ब्रांड 'कानून का राज' और 'समान न्याय' पर टिका है. लेकिन दलित अत्याचारों की बढ़ती घटनाएं इस छवि को चुनौती दे रही हैं. प्रशासन सख्ती दिखा रहा है, लेकिन समाज की सोच अभी वहीं अटकी है जहां सदियों पहले थी.

राज्य के राजनैतिक विश्लेषक मानते हैं कि अगर ऐसे मामले बार-बार सामने आए, तो भाजपा की 'सबका साथ' वाली छवि को गहरी चोट लग सकती है. खासकर तब, जब विपक्ष इन्हें 'सिस्टम की नैतिक विफलता' के रूप में पेश कर रहा है. अजय कुमार कहते हैं, ''दलितों के लिए सम्मान की राजनीति अब भावनात्मक नहीं, निर्णायक बन रही है. भाजपा के पास अभी समय है. उसे सामाजिक जुड़ाव पर काम करना होगा, सिर्फ राहत पैकेजों से भरोसा नहीं लौटेगा.''

दलित अधिकार संगठनों की मांग है कि राज्य में दलितों से जुड़े अत्याचारों पर एक विशेष निगरानी प्रकोष्ठ बनाया जाए जो सीधे मुख्यमंत्री कार्यालय को रिपोर्ट करे. अगर सरकार यह कदम उठाती है, तो यह सिर्फ प्रशासनिक नहीं, नैतिक जीत होगी. दलितों पर अत्याचार की हर खबर उत्तर प्रदेश की सामाजिक हकीकत को उजागर करती है. मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के लिए यह अब केवल कानून का मुद्दा नहीं, बल्कि सामाजिक स्वीकार्यता की कसौटी है. जब तक रामपाल और हरिओम जैसे लोगों के दर्द को सिर्फ 'घटना' समझा जाएगा, समानता सिर्फ किताबों में रहेगी, समाज में नहीं.

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