बंगाल की नसों में जैसे किसी ने डर पैदा करने वाले हार्मोन का इंजेक्शन लगा दिया है—एक अस्पष्ट लेकिन तगड़ी बेचैनी, इस बात की कि शर्तिया कुछ ऐसा होने को है जिससे खलबली मच जाए.
उत्तर 24 परगना स्थित नाजत के 30 वर्षीय बिवाश पात्रा इसकी जिंदा मिसाल हैं. हैरान-परेशान वे पुराने सरकारी दफ्तर के चक्कर काट रहे हैं. उनके मतदाता फोटो पहचानपत्र (ईपीआइसी) में नाम बिवाश की जगह बिभास लिखा है.
अब यह ऐसा मामला नहीं कि कोई फर्क नहीं पड़ता कहकर खारिज कर दिया जाए. दस्तावेजों में इस तरह की दर्जनों गलतियां मिलेंगी. अब इनसे ही तय हो सकता है कि सूची में नाम रहेगा या नहीं.
सियासी तंत्र में इसका प्रभाव समान रूप से दिख रहा है. दूसरी ओर चुनाव आयोग का फॉर्म 8 पीड़ितों के लिए समस्या का समाधान है. अनिवार्य दस्तावेज में सुधार के लिए पात्रा स्थानीय बीडीओ के पास पहुंचे, उन्हें बताया गया कि उनका जन्म का वर्ष मेल नहीं खाता.
उनके स्कूल छोड़ने के प्रमाणपत्र में यह 1989 दर्ज है, जबकि आधार में 1986 लिखा है. पत्नी और बच्चे के साथ दफ्तर से बाहर निकलते पात्रा हताश होकर कहते हैं, ''मेरे पिता राजमिस्त्री थे. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि जन्म प्रमाणपत्र कैसे दिलवाएं. स्कूल में दाखिले के दौरान उन्होंने अंदाजे से 1989 लिखा दिया. आधार में 1986 क्यों लिखा है? अब मेरे लिए मुश्किल हो गई है.''
हर जगह अफरा-तफरी
चुनाव आयोग ने अभी तक बंगाल में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआइआर) की अधिसूचना जारी नहीं की है लेकिन दहशत का आलम पहले से ही बन गया है. ग्रामीण बंगाल में—खासकर उत्तर और दक्षिण 24 परगना, मालदा, मुर्शिदाबाद और उत्तर तथा दक्षिण दीनाजपुर आदि सीमावर्ती जिलों में—लोग अपने मतदाता कार्ड और पहचानपत्रों में विसंगतियां ठीक कराने के लिए प्रखंड और पंचायत कार्यालयों में उमड़ने लगे हैं.
चुनाव प्रकोष्ठ संभालने वाले अधिकारियों का कहना है कि फॉर्म 8 के आवेदनों में यह वृद्धि अभूतपूर्व है. दक्षिण 24 परगना के एक अधिकारी कहते हैं, ''पहले हम महीने भर में पचासेक ऐसे मामले निबटाते थे. अब रोजाना 100-150 लोग वर्तनी की छोटी-छोटी गलतियां तक ठीक कराने के लिए आ रहे हैं.'' वे आगे जोड़ते हैं कि खासतौर पर मुस्लिम बहुल इलाकों में भीड़ ज्यादा दिखाई दे रही है.
जिले के सरबेरिया गांव के अधेड़ दंपति रशीदा बीबी और ऐजोद्दी खान इन्हीं लोगों में शुमार हैं. वे दशकों से मतदान कर रहे हैं. हाल में वे अपने दस्तावेजों में वर्तनी की गलती ठीक कराने स्थानीय कार्यालय पहुंचे. रशीदा बीबी गंभीरता से पूछती हैं, ''क्या आपको नहीं पता? अब मतदाता पहचानपत्रों पर नाम बांग्ला में नहीं होंगे. सभी नाम अंग्रेजी में होंगे. क्या यह जरूरी नहीं है कि वर्तनी पूरी तरह सही हो?'' किसी आधिकारिक बयान के बजाय अफवाहें व्यापक स्तर पर बदलाव का डर बढ़ा रही हैं.
डिजिटल दस्तावेज चाहिए
चिंता का आलम यह है कि डिजिटल जन्म और निवास प्रमाणपत्रों की मांग तेजी से बढ़ी है. पुराने जन्म प्रमाणपत्र अक्सर बाद में बनते थे और उनमें त्रुटियां भी होती थीं—पंचायत कार्यालयों में डिजिटल सफाई को प्रमाणीकरण की एक नई परत के तौर पर देखा जा रहा है. निवास प्रमाणपत्र के लिए भी मारामारी मची है. जैसा कि दक्षिण दीनाजपुर के एक बीडीओ ने बताया, ''जुलाई में बिहार के एसआइआर की जानकारी सामने आने के बाद से आवेदनों में भारी वृद्धि हुई है.''
अधिकारियों ने नियम कड़े करने शुरू कर दिए हैं. प्रधान के हस्ताक्षर वाले किसी भी सहायक दस्तावेज पर पंचायत के कार्यकारी अधिकारी—जो सरकार की तरफ से नियुक्त होता है—के प्रतिहस्ताक्षर अनिवार्य होंगे. 21 वर्ष से ज्यादा आयु के जो लोग पहली बार मतदाता पहचानपत्र बनवाना चाहते हैं, उन्हें अनुलग्नक-जमा करना होगा. यह एक स्व-घोषित दस्तावेज होता है जिसमें बताना होगा कि उन्होंने 18 वर्ष की आयु पूरी होने पर आवेदन क्यों नहीं किया. एक अधिकारी ने कहा, ''प्रवासी मजदूर अक्सर कम उम्र में घर छोड़ देते हैं और 18 वर्ष की अवधि चूक जाते हैं. इसलिए हम 21 वर्ष तक की अनुमति दे रहे हैं. इसके बाद अनुलग्नक-3 अनिवार्य होगा.''
एक अन्य अधिकारी ने बताया, ''कभी-कभी पुराने पहचानपत्रों की तस्वीरों की तुलना में चेहरे काफी बदल जाते हैं. पहले मुस्लिम महिलाएं बुर्का हटाने में हिचकिचाती थीं. लेकिन अब ज्यादा सहयोग कर रही हैं.'' इस प्रशासनिक कवायद ने एक आकर्षक सहायक उद्योग को भी जन्म दे दिया है. फोटोकॉपी की दुकानें और साइबर कैफे 2002 की मतदाता सूची के मुद्रित अंश बेच रहे हैं—जो कि राज्य चुनाव कार्यालय की वेबसाइट पर मुफ्त में ही उपलब्ध हैं. दलाल दफ्तरों के आसपास मंडराते हैं और 2,000 रुपए तक में काम करने के वादे के नाम पर अपनी कमाई बढ़ा रहे हैं. निजी और राजनीतिक पहचान कायम रखने का यह अभियान एक व्यवसाय भी बन चुका है.
खास बातें
> चुनाव आयोग की ओर से अभी बंगाल में एसआइआर की घोषणा की जानी है लेकिन लोगों में बेचैनी.
> सीमावर्ती इलाकों में पहचान के दस्तावेज सुधरवाने की होड़.
> अफसर कह रहे हैं कि मुस्लिम बहुल इलाकों में भागदौड़ साफ तौर पर देखी जा सकती है.
> डिजिटल दस्तावेजों की होड़ के बीच भाजपा ने स्थानीय निकायों पर फर्जी कागजों को बढ़ावा देने का आरोप लगाया.
> तृणमूल कांग्रेस कह रही कि आयोग का कदम राजनीति प्रेरित