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गुजरात: 5 बड़े ब्रिजों के गिरने से कैसे सरकारी खामियों का हुआ खुलासा?

ढहते-भरभराते पुल, जानलेवा बनते गड्ढे और शहरी इलाकों में अक्सर आ रही बाढ़ कैसे BJP के बहुप्रचारित गुजरात मॉडल पर ग्रहण लगा रहे हैं?

गुजरात के मोरबी ब्रिज हादसे के समय की तस्वीर (फाइल फोटो)
गुजरात के मोरबी ब्रिज हादसे के समय की तस्वीर (फाइल फोटो)
अपडेटेड 17 अक्टूबर , 2025

गंभीरा ब्रिज, वडोदरा, 9 जुलाई
वडोदरा और आणंद जिलों को जोड़ने वाला 40 साल पुराना पुल 10-15 मीटर लंबे स्लैब के गिरने के कारण टूट गया और पुल से गुजर रहे कई वाहन महीसागर नदी में जा गिरे. ''छोटी-मोटी मरम्मत’’ के बावजूद पुल की हालत खस्ता थी लेकिन चेतावनियों पर किसी ने कान ही नहीं दिया.


कारण
रोड और बिल्डिंग डिपार्टमेंट की प्राथमिक जांच में पता चला कि खंभों के ऊपरी हिस्से और जोड़ों में खराबी हादसे की वजह बना. संभव है भारी बारिश ने भी इसे कमजोर किया हो

गुजरात में वडोदरा जिले के पादरा में 9 जुलाई को टूटे हुए गंभीरा पुल के कगार से खतरनाक ढंग से लटके टैंकर की तस्वीर विश्वासघात और आधे-अधूरे वादों का खौफनाक प्रतीक बन गई. पुल के 23 खंभों में से दो के बीच 10-15 मीटर का कंक्रीट स्लैब अचानक ढह गया, जिससे चंद मिनटों में कुछ वाहन महीसागर नदी में जा गिरे. 20 लोग मारे गए.

यह कोई ऐसा इकलौता वाकया नहीं था. बीते तीन साल में शहरी बुनियादी ढांचे के प्रमुख हिस्सों से जुड़ी इमारतों के ढहने के हादसों ने उस 'गुजरात मॉडल’ पर  गंभीर संदेह खड़े कर दिए हैं जिसका ढिंढोरा लगातार पीटा जाता रहा था. यह मॉडल मोटे तौर पर चौड़ी सड़कों, विशाल फ्लाइओवर और साबरमती रिवरफ्रंट सरीखी जानी-मानी परियोजनाओं के दिखावे पर रचा गया नैरेटिव था.

इस दौरान कम से कम छह पुल—नदियों पर बने, निर्माणाधीन या फ्लाइओवर—ढह गए, जिसमें 160 से ज्यादा लोगों की जान चली गई. अगस्त, 2024 में विश्वामित्री नदी के उफान से वडोदरा का ज्यादातर हिस्सा 72 घंटों तक पानी में डूबा रहा तो जून, 2025 में सूरत का भी यही हश्र हुआ. सड़कों के गड्ढों का तो जिक्र ही क्या जो रोज हादसों का सबब बनते हुए जनाक्रोश पैदा कर रहे हैं.

जुलाई की 8 तारीख को उस वक्त विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए जब वलसाड के नजदीक राष्ट्रीय राजमार्ग 48 पर गड्ढों की वजह से फिसलकर गिरे एक बाइक सवार की ट्रक से कुचले जाने पर मौत हो गई. स्थानीय लोगों ने सड़क को 'जहन्नुम का हाइवे’ और 'मौत का फंदा’ करार देकर जगह-जगह प्रदर्शन किए. गौरतलब है कि सड़कों पर गड्ढों के कारण हुई मौतों को 'दुर्घटना’ के खाने में रखा जाता है, जिनकी न कोई जांच होती है और न जवाबदेही.

शहरी मध्यम वर्ग में बढ़ते जनाक्रोश ने सरकार को चिंता की खासी वजह दे दी है, खासकर जब यही वर्ग भाजपा का मूल वोटर आधार है और शहरी स्थानीय निकायों के चुनाव अगले साल की शुरुआत में होने हैं. इत्तेफाकन शहरी विकास और सड़क तथा निर्माण विभाग मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल के पास है. गंभीरा हादसे के बाद चार अफसरों को निलंबित कर दिया गया और 1,800 पुलों का निरीक्षण करने के बाद 133 बंद कर दिए गए.

सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड ने नहरों पर बने अपने सैकड़ों पुलों का जायजा लिया, उनमें से पांच बंद कर दिए, चार पर भारी यातायात पर पाबंदी लगा दी और 36 की फौरन मरम्मत के लिए पहचान की. कई जिला कलेक्टरों ने ठेकेदारों को अपने खर्च पर टूटी-फूटी सड़कों की तुरंत मरम्मत करने का निर्देश दिया. नगर आयुक्तों को गड्ढों भरी सड़कों पर किए गए काम का निरीक्षण करने को कहा गया और उसकी लाइव तस्वीरें भाजपा की आइटी टीम ने सोशल मीडिया पर ताबड़तोड़ फैलाईं.

भीतर की सड़ांध
आखिर बुनयादी ढांचे के इस तरह अचानक ढहने की क्या वजह है? छोटा-सा उत्तर है सिस्टम में जड़ों तक पैठा भ्रष्टाचार. उद्योग जगत के एक अंदरूनी जानकार कहते हैं, ''बात अब महज पैसे की नहीं रही. सरकारी इंजीनियर प्रभावी देखरेख के लिए न केवल अनिच्छुक बल्कि अयोग्य भी हैं और उनके पास जरूरी साजो-सामान भी नहीं है.

तकरीबन सारे सरकारी काम प्रोजेक्ट मैनेजमेंट कंसल्टेंट्स (पीएमसी) को आउटसोर्स कर दिए गए हैं और देखरेख भी थर्ड पार्टी इंस्पेक्टर (टीपीआइ) करते हैं. इंजीनियर तो बस रिपोर्ट पर दस्तखत भर करते हैं और हादसा होने पर दोषी ठहराए जाते हैं. इस गोरखधंधे को ठेकेदारों, पीएमसी और टीपीआइ का राजनैतिक तौर पर एकजुट गठजोड़ नियंत्रित करता है.’’

हर हादसे के बाद इंजीनियरों को निलंबित कर दिया जाता है लेकिन तब तक वे दो नंबर की इतनी दौलत जुटा चुके होते हैं कि उन्हें वेतन में 25 फीसद की कटौती खलती नहीं. निलंबन उन्हें सेवानिवृत्ति के फायदों से वंचित नहीं करता. एक ठेकेदार कहते हैं, ''यह कंसल्टेंट कल्चर 1980 के दशक में शुरू हुआ. पहले इंजीनियर निरीक्षण करते थे और हर दस्तखत की जिम्मेदारी लेते थे. हम तब भी उन्हें घूस देते थे लेकिन अब जब रिपोर्ट कंसल्टेंट तैयार करते हैं, इंजीनियरों को पता तक नहीं होता कि असल में हो क्या रहा है.’’

गंभीरा का हादसा नवंबर, 2022 में मोरबी में पैदल पुल के ढहने की घटना से मिलता-जुलता है, जिसमें 141 लोग मारे गए थे. 19वीं सदी में बना यह पुल स्थानीय घड़ी बनाने वाली कंपनी के हाथों की गई मरम्मत के बाद और जरूरी सुरक्षा प्रमाणपत्र के बिना ही फिर से खोला गया था.

तीन साल बाद जब 40 साल पुराना गंभीरा पुल धराशायी हुआ, स्थानीय सियासतदानों और ग्रामीणों ने बहुत सारे दस्तावेज पेश करके बताया कि पुल की असुरक्षित हालत स्थानीय अधिकारियों के ध्यान में लाई गई थी लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की गई. सड़क और निर्माण विभाग के अफसर बताते हैं कि 'थोड़ी मरम्मत की गई थी’ लेकिन स्थानीय लोगों का दावा है कि कुछ दरारों को बस ऊपर-ऊपर से भर दिया गया जबकि बहुत जरूरी ढांचागत मरम्मत की अनदेखी कर दी गई.

विशेषज्ञों की मानें तो पुल की बिगड़ती हालत के कई साफ संकेत थे, जिन्हें अनदेखा कर दिया गया लगता है. गुजरात इंस्टीट्यूट ऑफ सिविल इंजीनियर्स ऐंड आर्किटेक्ट्स (जीआइसीईए) के कोषाध्यक्ष यश मजीठिया कहते हैं, ''परिसंपत्तियों की साजसंभाल बेहद जरूरी है.

एक दशक पहले ज्यादातर ट्रक दो या तीन एक्सल वाले होते थे, और वे अपनी क्षमता से डेढ़ गुना ज्यादा वजन ढोते थे, जिससे पुल पर दबाव पड़ता था. अब ओवरलोडिंग पहले से ज्यादा नियमित है लेकिन दो, तीन और कई एक्सल वाले ट्रक चलते हैं. कई मौजूदा पुल इतना वजन को संभालने के लिए बने नहीं हैं. इसका रखरखाव नहीं किया जाता, तो हादसे का जोखिम बना रहता है.’’

उद्योग जगत के एक दिग्गज का कहना है कि नियमित रखरखाव और चौकन्ने इंजीनियर आपदाओं को रोक सकते हैं लेकिन आजकल मौजूदा परिसंपत्तियों के रखरखाव की बजाए नए बुनियादी ढांचे पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है. वे कहते हैं, ''वित्तीय आवंटन भी पर्याप्त नहीं है.

आदर्श तो यही है कि परियोजना की लागत का 1 फीसद रखरखाव के लिए रखा जाए लेकिन 0.5 फीसद रखा जाता है. नई परिसंपत्तियों के लिए मूल ठेकेदार का जिम्मा अमूमन पांच साल का होता है, इसलिए वह तब तक परिसंपत्ति पर कम से कम खर्च करेगा. उसके बाद नया ठेकेदार खर्चों में कटौती के उपाय खोजने लगता है क्योंकि रखरखाव के ठेके ज्यादा रकम के नहीं होते.’’

मगर 2017 में उद्घाटित अहमदाबाद के हाटकेश्वर फ्लाइओवर का मामला, जो सरकार की पहले ही काफी फजीहत करा चुका है, व्यवस्थागत खामियों को उघाडऩे में नई मिसाल स्थापित करता है. ठेकेदार की दोष दायित्व अवधि उद्योग के मानक से काफी कम महज एक साल थी.

चार साल के भीतर ढांचे में गंभीर टूट-फूट की रिपोर्ट मिलने लगीं और मई 2022 तक इसे इस्तेमाल के नाकाबिल मान लिया गया. तब से तीन साल हो गए, इसका भविष्य अधर में लटका है. 34 करोड़ रुपए की लागत से बने इस फ्लाइओवर को 3.9 करोड़ रुपए खर्च करके गिराया जाएगा, जिसकी वसूली मूल ठेकेदार से की जाएगी, और करीब 52 करोड़ रुपए की लागत से इसे दोबारा बनाए जाने की उम्मीद है.

दो नंबरी ऑपरेटर
काली सूची में डालना ठेकेदारों के लिए असल खतरा है लेकिन काली सूची में डाले गए ठेकेदारों के काम करते रहने के उदाहरण चौतरफा मौजूद हैं. हाटकेश्वर के विवाद में मूल ठेकेदार अजय इंजीनियरिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर प्राइवेट लिमिटेड और पीएमसी एसजीएस इंडिया प्रा. लि. को काली सूची में डाल दिया गया. मगर अजय इंजीनियरिंग को दी गई बुनियादी ढांचे की दूसरी सार्वजनिक परियोजनाएं तब तक वापस नहीं ली गईं जब तक मीडिया में मचे हो-हल्ले ने अधिकारियों को इसके लिए मजबूर नहीं कर दिया.

सूत्रों का कहना है कि काली सूची में डाली गई फर्म का किसी और नाम से काम शुरू कर देना आम है. एक अंदरूनी सूत्र कहते हैं, ''समाधान फर्म को ब्लैकलिस्ट करना नहीं, बल्कि ऑपरेटर को ब्लैकलिस्ट करना है, ताकि उसका भ्रष्ट गठजोड़ टूटे.’’ इसमें उत्तरी गुजरात के दर्जन भर सिविल ठेकेदारों का कार्टेल भी शामिल है, जिसने निविदा की लागत से 10-15 फीसद कम बोली लगाकर सार्वजनिक निर्माण परियोजनाओं पर दबदबा बना रखा है.

तकनीकी सलाहकार और जीआइसीईए के पूर्व प्रेसिडेंट वत्सल पटेल कहते हैं, ''यह खतरे की पहली झंडी है. इसीलिए हमने सरकार से ऐसी व्यवस्था लाने की सिफारिश की है जिसमें सबसे कम बोली लगाने वाले को नहीं बल्कि दूसरी सबसे कम बोली लगाने वाले को ठेके दिए जाएं.’’

ठेकेदार भ्रष्टाचार को परियोजना की कुल लागत का '5-6 फीसद’ बताकर खारिज कर देते हैं. एक सेवानिवृत्त इंजीनियर कहते हैं, ''हम इस (सीमा) में भी अच्छा काम कर सकते हैं लेकिन परियोजनाओं की गुणवत्ता इतनी खराब इसलिए निकलती है क्योंकि सरकार की व्यवस्था इस कदर ढीली-ढाली है कि ठेकेदार विशुद्ध लालच के चलते और ज्यादा चोरी करके बच निकलते हैं.

यह समाज की ही झलक है. इंजीनियर हों या ठेकेदार, आने-जाने वालों की बुनियादी सुरक्षा तक सुनिश्चित करने की उनकी जिम्मेदारी नदारद हो गई है.’’ गुजरात के चरमराते बुनियादी ढांचे में सबसे ज्यादा क्षरण जिन बुनियादों का हुआ है, वे राजकाज की बुनियादें हैं.

बीते तीन साल में कम से कम छह ब्रिज गिरे और इन हादसों में 160 लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा.

समाधि लेते सेतु

गुजरात में हाल के दिनों में पुलों के गिरने का सिलसिला सरकारी उदासीनता, व्यवस्था के क्षरण और भ्रष्टाचार का जीता जागता प्रमाण है.

सस्पेंशन ब्रिज, मोरबी, अक्तूबर 2022
19वीं सदी में पैदल गुजरने वालों के लिए मच्छू नदी पर बना पुल मरक्वमत के बाद खोले जाने के कुछ दिनों में ही गिर गया. दीपावली के आयोजन पर ज्यादा भीड़ आ जाने को इसके गिरने की वजह बताया गया. फोरेंसिक रिपोर्ट में जंग लगे केबल, टूटे ऐंकर और ढीले बोल्ट इसका कारण बताए गए. दस लोगों पर गैर इरादतन हत्या का केस हुआ.
141 मरे, 180 घायल

मिंढोला रिवर ब्रिज, तापी, जून 2023
उद्घाटन के लिए तैयार दो साल पुराने पुल का हिस्सा गिरने से सनसनी फैल गई क्योंकि जल्द ही इसे वाहनों के लिए खोला जाने वाला था. सूरत के कॉन्ट्रैक्टर अक्षय कंस्ट्रक्शन को घटिया सामग्री इस्तेमाल के कारण काली सूची में डाला और परियोजना से जुड़े कुछ सीनियर इंजीनियरों को सस्पेंड किया गया.
जान का कोई नुक्सान नहीं

भोगावो रिवर ब्रिज
सितंबर  2023

वढवाणा सिटी के पास 40 साल पुराना एक ब्रिज उस वन्न्त गिर गया जब 40 टन वजनी एक डंपर उस पर से गुजरने की कोशिश कर रहा था. भारी वाहनों के लिए प्रतिबंधित होने के संकेत के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं हुई.
4 जख्मी
 

निर्माणाधीन फ्लाइओवर, पालनपुर
अक्तूबर 2023

घटिया सामग्री के इस्तेमाल के कारण आरटीओ सर्कल के पास ओवरब्रिज के दो गर्डर गिर गए. ठेका एजेंसी जीपीसी इन्फ्रास्ट्रक्चर के चार इंजीनियरों और डायरेक्टरों के खिलाफ गैर-इरादतन हत्या का केस दर्ज.
1 मरा, 2 जख्मी

हबियासर चोटिला ब्रिज, सुरेंद्रनगर
अगस्त 2024

हबियासर गांव में पांच साल पुराना पुल बांध से एकाएक पानी छोड़े जाने के कारण ढह गया. संयोग से सड़क आवाजाही के लिए बंद थी. सरपंच ने दावा किया कि उन्होंने इसकी निर्माण गुणवत्ता के बारे में आवाज उठाई थी लेकिन ठेकेदार ने इन बातों को खारिज कर दिया.
जान का कोई नुक्सान नहीं

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