
अपनी चार साल की बेटी का हाथ थामे बैठे रामसेवक को देखते हैं तो कुछ भरोसे जैसा दिखता है. बच्ची का भरोसा, कि पिता ने हाथ थाम रखा है. लेकिन इस दृश्य में भरोसा दूसरी तरह से बरता गया है.
रामसेवक को भरोसा है कि किसी ने हाथ थाम रखा है. साल 2022 के नवंबर महीने में रामसेवक को मध्य प्रदेश पुलिस ने गिरफ्तार करके जेल भेजा. जेल में महीनों गुजारने के बाद जमानत पर जो लौटे, तो रामसेवक अंधेरा होते ही अकेले होने से घबराते हैं. किसी का भरोसा चाहिए होता है.
मध्य प्रदेश के ग्वालियर जिला मुख्यालय से 40 किलोमीटर दूर जरदान सिंह का पुरा गांव तक आजादी के इतने दशकों बाद भी पक्की सड़क नहीं पहुंची. मिट्टी के ढूहों और पेड़ों के बीच से निकलती सड़क जैसी जो दिखाई देती है वह चंबल के जीवटता की लकीर है, जो बारिश के बाद मुश्किल से पैदल चलने लायक बची है. इसी रास्ते कई किलोमीटर पैदल चलकर जरदान सिंह का पुरा पहुंची इंडिया टुडे के सामने रामसेवक कई घंटे चुप्पी साधे बैठे रहते हैं.
मध्य प्रदेश पुलिस ने 3 नवंबर, 2022 को रामसेवक और इसी गांव के रिंकू को 'मध्य प्रदेश डकैती एवं व्यपहरण प्रभावित क्षेत्र अधिनियम 1981’ की धारा 11,13 के तहत गिरफ्तार किया. स्पेशल कोर्ट में पेश की गई रिपोर्ट में पुलिस ने लिखा कि इन दोनों को जंगल में रोक कर तलाशी ली गई तो इनके पास ''एक शंकर बीड़ी का पैकेट, दो माचिस के पैकेट, पांच राजश्री, दस लखपति तंबाकू की पुड़िया’’ मिली.
रामसेवक के साथी के पास से ''दो किलो आटा, एक किलो चावल, एक नमक की थैली और एक किलो अरहर की दाल’’ जब्त की गई. आरोप था कि ये सामान इनामी बदमाश गुड्डा गुर्जर को पहुंचाने के 'इरादे से’ खरीदा गया था. यह आरोप लगते ही रामसेवक और रिंकू एक ऐसे कानून की जद में आ जाते हैं जिसकी एक धारा 'डकैतों को आश्रय देने या जरूरत का सामान पहुंचाने को गंभीर अपराध’ घोषित करती है.
कभी बागियों-डकैतों की समस्या से जूझ रहे चंबल में 'मध्य प्रदेश डकैती एवं व्यपहरण प्रभावित क्षेत्र अधिनियम’ या आम जन की भाषा में 'डकैती ऐक्ट’ साल 1981 में लागू किया गया था. दस्यु समस्या से आर-पार करने का मन बना चुकी प्रदेश सरकार ने इस कानून से पुलिस को अकूत ताकत दी. डकैती के मामलों की सुनवाई के लिए ग्वालियर, भिंड, मुरैना, शिवपुरी और दतिया समेत पूरे चंबल में 11 विशेष अदालतें बनाई गईं.
बिना वारंट गिरफ्तारी, अग्रिम जमानत की मनाही, मुखबिरों की 'विशेष सहायता’, शक के आधार पर छापेमारी जैसे अधिकार मिलते ही पुलिस ने स्थानीय लोगों की मदद के भरोसे चल रहे डकैतों के गैंग्स और ग्रामीणों के बीच की कड़ी तोड़ने में कामयाबी हासिल की. इसी ऐक्ट के ठीक बाद 1982 में बागियों का बड़ा समर्पण हुआ और मलखान सिंह ने अपने गैंग के साथ मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह की मौजूदगी में हजारों की भीड़ के सामने हथियार डाल दिए.

मध्य प्रदेश पुलिस और प्रदेश सरकार की कामयाबियों का यह सिलसिला साल 2007 में चंबल के आखिरी 'लिस्टेड डकैत’ जगजीवन परिहार की पुलिस एनकाउंटर में मौत पर आकर रुका. चंबल 'डकैत मुक्त’ हुआ.
बस यहीं से नई समस्या की शुरुआत हुई. डकैतों को राख करने वाले ऐंटी डकैती ऐक्ट की लपट को अब भी ईंधन चाहिए था. अपने गांव में बेटी का हाथ थामे बैठे डर से कांपते रामसेवक इस लपट में ईंधन होने का इकलौता उदाहरण नहीं हैं. डकैती उन्मूलन के डेढ़ दशक बाद भी लागू इस ऐंटी डकैती ऐक्ट को चंबल के मध्य प्रदेश क्षेत्र में 'ग्यारह बटे तेरह’ के नाम से जाना जाता है.
डकैती की विशेष अदालतों में चल रहे हजारों मामलों की तफसील देखें तो मालूम पड़ता है कि मोबाइल छिनैती, मामूली झूमाझटकी, जमीन के विवाद और यहां तक कि मैरिटल डिस्प्यूट तक के मामलों में डकैती ऐक्ट के 'ग्यारह बटे तेरह’ का इस्तेमाल बेधड़क जारी है. रामसेवक और रिंकू के मामले का फैसला 18 अक्तूबर, 2024 को आया, जिसमें ये दोनों निर्दोष करार दिए गए.
स्पेशल कोर्ट ने अपने फैसले में लिखा कि ''प्रकरण में गवाह ने स्वीकार किया कि उससे कोरे कागज पर हस्ताक्षर करवाए गए.’’ कोर्ट में पुलिस नहीं बता पाई कि जब्त की गई ''माचिस किस कंपनी की थी, बीड़ी के बंडल छोटे थे या बड़े, तंबाकू के पैकेट का क्या वजन था.’’ कोर्ट में पेश किया गया ये सामान सीलबंद नहीं था.
रामसेवक बताते हैं, ''मैं अपने घर में सो रहा था जब 25-30 पुलिसवाले आकर मुझे घसीटते हुए थाने ले गए...मुझे नहीं मालूम था और ना बताया गया कि आखिर मेरी गलती क्या थी...’’ अपनी बच्ची का माथा सहलाते हुए रामसेवक अपनी नम हुई आंखें हथेली से ढंक लेते हैं. रामसेवक जब गिरफ्तार हुए उससे ठीक पहले उनके हिसाब से उन्होंने अपनी मेहनत और लगन से अपने परिवार की जिंदगी सुधार दी थी. फलों के कारोबार में खुद को दिन-रात झोंकने का फल बस मिलना शुरू ही हुआ था. ''
लेकिन गांव के दबंगों को यह किसी हाल बर्दाश्त नहीं था...’’ रामसेवक यह कहते हुए अपनी तीन बहनों की तरफ इशारा करके कहते हैं, ''इनकी शादी के लिए पैसे इकट्ठे कर रहा था...सब खत्म हो गया’’ मुकदमा लडऩे में रामसेवक की सारी जमा पूंजी स्वाहा हो गई.
इसी गांव के दूसरे मुहाने पर मौजूद इसी मामले के सह-आरोपी रिंकू का घर उजाड़ है. कच्चे घर के आंगन में उगी घुटने भर की खर-पतवार मुनादी पीटती है: 'जिन्हें रहना था वो चले गए.’ रिंकू अदालत से बरी होते ही गांव छोड़कर शहर चले गए और अब किराए के कमरे में परिवार के साथ रहते हुए दिहाड़ी पर काम करते हैं. ''मेरी हिम्मत नहीं गांव वापस आने की...यहां मेहनत से गुजारा तो हो रहा है’’, कह कर रिंकू फोन रख देते हैं.
चंबल में करीब 50 वर्षों से वकालत कर रहे और धन-बल से लाचार फरियादियों का 'पहला और अंतिम विकल्प’ माने जाने वाले 80 वर्षीय एडवोकेट देवेंद्र सिंह चौहान इंडिया टुडे से बातचीत में कहते हैं, ''अगर इस ऐक्ट का गलत इस्तेमाल समझना हो तो, डकैती के मामले सुनने वाली विशेष अदालतों के पिछले कुछ वर्षों के फैसले पढि़ए. ज्यादातर मामले आपसी रंजिश या उन छिटपुट अपराधों के होते हैं जिनके लिए पहले ही भारतीय न्याय संहिता में पर्याप्त प्रावधान हैं.
चंबल के आम लोग, वकील यहां तक कि जज भी चाहते हैं कि इस गैर-जरूरी ऐक्ट को खत्म कर दिया जाए. अगर कोई नहीं चाहता तो वह है पुलिसिंग सिस्टम. क्योंकि इससे उनकी ताकत छिन जाएगी.’’ इस बेजा कानून की ताकत को और समझने इंडिया टुडे कभी डकैतों का गढ़ माने जाने वाले जिला मुरैना पहुंचा. मुरैना जिला मुख्यालय से 26 किलोमीटर दूर कुल्हाड़ा दिमनी गांव. चंबल नदी के ठीक किनारे बसे इस गांव की फसलें बर्बाद करते हुए भीतर तक आया पानी अभी-अभी चेहरों पर मायूसी के निशान छोड़कर लौटा है.
इसी गांव के रामबृज को साल 2022 के सितंबर में ऐंटी डकैती ऐक्ट के तहत पुलिस ने गिरफ्तार किया था. एक महीने आठ दिन जेल में काटने के बाद रामबृज को जमानत मिल सकी और 27 जुलाई, 2024 को आए विशेष न्यायालय के फैसले में रामबृज निर्दोष साबित हुए. कोर्ट में पेश की गई रिपोर्ट में पुलिस ने लिखा है कि फरियादी को मोटरसाइकिल पर बैठाने के बहाने रामबृज ने उसका मोबाइल छीनने की कोशिश की, जिससे मोबाइल गिरकर टूट गया. फरियादी को चार हजार रुपए का नुक्सान हुआ.
एक साल दस महीने तक कोर्ट में चले इस मामले में फरियादी ने आरोपी रामबृज को पहचानने से साफ मना कर दिया. पुलिस की तरफ से आए गवाह ने कोर्ट को बताया कि उसके सामने कोई जब्ती या गिरफ्तारी नहीं हुई और उससे कोरे कागज पर हस्ताक्षर करवाए गए. कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि ''सिर्फ पुलिस के साक्ष्य पर विश्वास करके अभियुक्त को दोषी नहीं ठहराया जा सकता.’’
''मेरी मोटरसाइकिल दबंगों की गाड़ी से टकरा गई थी जरा सी...बस इतने पर हमें थाने में जमा करवा दिया और जेल भेज दिया...’’ यह कहते हुए रामबृज ही नहीं उनके साथ खड़ा लगभग सारा गांव बिफर पड़ता है. इसी गांव में मिले बल्लू कहते हैं, ''हम लोग अनपढ़ हैं. क्या लिखत-पढ़त होती है कोर्ट कचहरी थाने में हमको तो पता पड़ता नहीं है और ना वकील बताता है. वकील बस अपनी फीस बताकर कचहरी बुला लेता है तारीख पर.’’ हैरत की बात है कि जेल और मुकदमा झेलने के बाद भी रामबृज को इंडिया टुडे से पहली बार मालूम चला कि उन पर ऐंटी डकैती ऐक्ट लगाया गया था.
डिस्ट्रिक्ट ऐंड सेशन कोर्ट, मुरैना के पब्लिक प्रॉसिक्यूटर (लोक अभियोजक) महेंद्र कुमार अग्रवाल कहते हैं, ''चंबल में बागियों-डकैतों से सबसे ज्यादा प्रभावित यही मुरैना और भिंड के इलाके थे. जब डकैतों को खत्म हुए ही जमाना हो गया तो क्यों नहीं सरकार एक कमेटी बनाकर इस ऐक्ट को खत्म कर देती है? दूर दराज से आए ग्रामीणों की दशा देखकर दुख भी होता है कि बड़े वकील के पास जाकर ज्यादा खर्च करने पर मजबूर हैं. जो अपराधी नहीं है वह भी जमानत मिलने तक अपराधी बनकर निकलता है.’’
चंबल संग्रहालय के डायरेक्टर जनरल डॉ. शाह आलम राणा डेढ़ दशक से चंबल में स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा ले चुके क्रांतिकारियों की विरासत सहेजने का काम कर रहे हैं. डॉ. राणा कहते हैं, ''चंबल में बगावत भारत की आजादी के बाद पनपी हो, ऐसा नहीं. ईस्ट इंडिया कंपनी के समय मध्य भारत में ठग और डकैतों का बोलबाला था. तभी ठगी ऐंड डेकॉइटी सप्रेशन ऐक्ट 1836 बनाया गया था.
1981 में जो ऐंटी डकैती ऐक्ट बना, जिसकी तर्ज पर उत्तर प्रदेश और राजस्थान के डकैती प्रभावित इलाकों के लिए भी ऐसे कानून बने, आप पाएंगे कि ठगी और डकैती ऐक्ट 1836 से यह काफी मिलता-जुलता है. ठगी और डकैती जैसे अपराध से निबटने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी के पहले से चल रहे कानून काफी थे, ठीक वैसे ही आजाद भारत में डकैतों के लिए पहले इंडियन पीनल कोड और अब भारतीय न्याय संहिता में कई धाराएं हैं, फिर अलग से ऐक्ट की क्या जरूरत थी?’’
करीब डेढ़ दशक से राज्य सरकार और प्रधानमंत्री कार्यालय तक इस ऐक्ट को हटाने की अपील कर चुके डॉ. राणा और तफसील में जाते हैं: ''असल में यह ऐक्ट अपराधियों के लिए कम, उनकी मदद करने वाले लोगों के लिए ज्यादा बनाए गए थे. और दोनों बार इसका असर हुआ भी. लेकिन अब इसका दूसरा पहलू समझिए. डकैती ऐक्ट में डकैतों के लिए जासूसी करने को भी गंभीर अपराध माना गया है. इसका नतीजा आज की तारीख में चंबल में खाली हाथ घर जा रहे किसी भी शख्स को भुगतना पड़ सकता है. लॉ ऑफ लैंड का मतलब व्यवस्था कानून के सहारे चले, नसीब के सहारे नहीं.’’
अकेले ग्वालियर चंबल क्षेत्र की स्पेशल कोर्ट मुरैना में आज की तारीख में जिला मुख्यालय के 161 मामले डकैती ऐक्ट के चल रहे हैं. इनमें मुरैना के अम्बा तहसील में 73, तहसील जौरा के 38 और सबलगढ़ के 17 मामले जोड़ लें तो सिर्फ मुरैना के 289 मामले हैं, जिनमें सुनवाई चल रही है. इससे बाकी अदालतों में मुकदमों का अंदाजा लगाया जा सकता है.
इंडिया टुडे ने ग्वालियर, मुरैना और भिंड के 50 से ज्यादा, उन मामलों के बारे में जानकारी ली जो साल 2020 के बाद दर्ज हुए और जिनमें अदालत का फैसला आ चुका है. हैरत की बात है कि डकैती ऐक्ट के इन मामलों में 48 ऐसे मामले थे जिनमें आरोपी निर्दोष साबित हुआ. इन सभी 48 मामलों में पुलिस की तरफ से चोरी, मारपीट या वसूली जैसे आरोप लगाए गए थे. एक महीने से लेकर एक साल तक की जेल भुगतने और दो से चार साल तक मुकदमा लड़ने के बाद आरोपी बरी हो जाता है.
इन सभी मामलों की फाइनल रिपोर्ट पढ़ें तो एक पैटर्न सा दिखाई देता है. आरोपी के जमानत पर जेल से छूटने के बाद धीरे-धीरे सुबूत और गवाह कमजोर होते जाते हैं. उत्तर प्रदेश और राजस्थान के डकैती प्रभावित घोषित क्षेत्र में मामले उतने प्रभावी नहीं, लेकिन चंबल के मध्य प्रदेश क्षेत्र में लगातार केस दर्ज हो रहे हैं. नाम नहीं छापने की शर्त पर डकैती के मामलों की सुनवाई करने वाली विशेष अदालतों में से एक के कोर्ट अधिकारी कहते हैं, ''यह सब पुलिस की करामात है.
जब कोर्ट में मामले पेश हो जाते हैं तो कोर्ट को सुनवाई करनी ही पड़ती है. सब जानते हैं कि ज्यादातर मामले तर्कहीन होते हैं लेकिन पूरे प्रोसेस के बाद ही फाइनल जजमेंट आता है और आरोपी बरी हो जाता है. डकैती ऐक्ट के हटने से न्यायालयों पर भी बोझ कम होगा.’’
एक ऐसे ही मामले का तुक समझने के लिए इंडिया टुडे चंबल क्षेत्र के मुरैना शहर पहुंची. कभी दुर्दांत डकैतों के सफाए के लिए बनाए गए इस धारदार ऐक्ट से अब कैसे घरेलू मामले निबटाए जा रहे हैं, यह मामला इसकी भी नजीर है. ज्यादातर ग्रामीण मामलों से अलग यह न सिर्फ शहर का मामला है बल्कि एक समृद्ध परिवार से जुड़ा है.
साल 2021 में रोहित सिंह तोमर की पत्नी प्रवीणा की शिकायत पर रोहित को पुलिस ने डकैती ऐक्ट 'ग्यारह बटे तेरह’ के तहत गिरफ्तार किया. पुलिस ने स्पेशल कोर्ट में पेश की गई अपनी रिपोर्ट में लिखा कि कोलकाता में नौकरी कर रहा रोहित अपने बच्चे को 'टॉफी खिलाने के बहाने’ प्रवीणा की जानकारी के बिना अपने साथ कोलकाता ले गया. इस वजह से रोहित बच्चे के अपहरण का आरोपी बना.
एक साल जेल में रहने के बाद रोहित सिंह तोमर और सह-आरोपी रूबी खाटा को स्पेशल कोर्ट ने डकैती ऐक्ट से बरी कर दिया. कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि फरियादी प्रवीणा ने कोर्ट में माना कि उसका अपने पति से झगड़ा हुआ और उसने गुस्से में आकर अपने पति रोहित के खिलाफ शिकायत दर्ज करवा दी. प्रवीणा ने कोर्ट को यह भी बताया कि रोहित अपने बच्चे को इलाज के लिए अकेले कोलकाता लेकर गया था.
''हमें तो बर्बाद किया ही, अपनी पत्नी और बच्चे का भविष्य भी खराब कर दिया लड़के ने...’’ रोहित के पिता यह कहते हुए सिर झुका लेते हैं. रोहित के पिता बताते हैं कि रोहित ने कोलकाता में दूसरी शादी कर ली थी, हम उसे जेल भिजवाकर 'सबक सिखाना’ चाहते थे.
मध्य प्रदेश पुलिस में सेवा दे चुके और एडिशनल इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस (एआइजी) के पद से रिटायर हुए डॉ. रणधीर सिंह रुहल ने इस ऐक्ट पर इंडिया टुडे से बातचीत की. डकैती उन्मूलन का बड़ा चेहरा रहे एनकाउंटर स्पेशलिस्ट डॉ. रुहल राष्ट्रपति वीरता पदक से सम्मानित हैं और उन कुछ अफसरों में से हैं जिन्होंने सब इंस्पेक्टर से एआइजी के पद तक का सफर किया है.
डॉ. रुहल कहते हैं, ''डकैतों के दौर में डकैती ऐक्ट का इस्तेमाल डकैतों पर दबाव डालने के लिए पुलिस करती थी, जैसे उनके रिश्तेदार पर डकैती ऐक्ट लगा दिया तो जमानत हो नहीं सकती और ऐसे में डकैत के सरेंडर करने का मौका बन जाता था. अब पुलिस छोटे अपराधों में भी यह ऐक्ट सिर्फ इसलिए लगा रही है कि आरोपी की जमानत न हो सके, जो कि गलत है. स्वतंत्रता का अधिकार तो आम नागरिक से नहीं छीना जाना चाहिए.’’
मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के सामने और हजारों लोगों की मौजूदगी में 1982 में सरेंडर करने वाले बागी मलखान सिंह के साथ उसी दिन उनके डिप्टी कमांडर मुन्ना सिंह मिर्दा ने भी सरेंडर किया था. इंडिया टुडे से बातचीत में बागी मुन्ना सिंह कहते हैं, ''हम जब तक बीहड़ में रहे ना कभी अपना आत्मसम्मान कम होने दिया और ना बीहड़ के लोगों का. जोर दिखाकर कभी किसी की रोटी नहीं छीनी. पुलिस इस वजह से गांव के लोगों पर मुकदमे करती थी कि बागियों पर दबाव बने.
अगर गरीब को सताने की बात होगी तो चंबल का कोई आदमी बता देगा कि उन्हें बागियों से भय था या पुलिस से. और अब जब बीहड़ सुनसान पड़े हैं तो काहे का डकैती ऐक्ट?’’ पान सिंह तोमर की पुलिस मुठभेड़ में मौत के हफ्ते भर बाद लागू हुए इस ऐंटी डकैती ऐक्ट पर पान सिंह के भतीजे बलवंत सिंह तोमर ने बातचीत में कहा कि ''इस कानून की वजह से बीहड़ में बागियों की जगह अपराधियों ने ले ली, जिनका कोई ईमान धर्म नहीं था. बागपन (बगावत) के नाम पर बीहड़ों से अपराधियों का गैंग चलाने वालों और पुलिस की चालबाजियों के बीच गांव के भले लोग इस ऐक्ट के शिकार बने.’’
मुरैना के जौरा में देश का इकलौता गांधी आश्रम है जो डकैतों के पुनर्वास के लिए 1970 में बनाया गया था. इतिहास में बागियों के दो ही बड़े सरेंडर हुए: एक 1960 में आचार्य विनोबा की देखरेख में और दूसरा 1972 में जय प्रकाश नारायण की अपील पर. जौरा के गांधी आश्रम में हुए 1972 के सबसे बड़े इस समर्पण में माधो सिंह और मोहर सिंह जैसे बागियों समेत 554 बागियों ने महात्मा गांधी की मूर्ति के सामने सरेंडर किया था.
इसी सरेंडर में माधो सिंह के डिप्टी कमांडर बहादुर सिंह ने भी अपनी बंदूक हमेशा के लिए रख दी थी. तभी से अहिंसा को अपना धर्म बना चुके बहादुर सिंह ने इंडिया टुडे से बातचीत में कहा, ''1972 में हम सबके आत्मसमर्पण के बाद चंबल पूरी तरह शांत हो चुका था. उसके बाद शुरू हुआ डकैतों का दौर. जैसे-जैसे पुलिस का आतंक बढ़ता गया, उसके जवाब में बागियों का भेष धरे अपराधियों ने भी जनता को अपने बचाव का जरिया बनाया.’’
ग्वालियर संभाग के आइजी पुलिस अरविंद कुमार सक्सेना का कहना है, ''मध्य प्रदेश पुलिस इसका इस्तेमाल इसलिए करती है क्योंकि ये ऐक्ट अब भी लागू है. संगठित अपराध जैसे बड़े मामलों में इससे हमें कुछ मदद मिलती है क्योंकि जमानत को लेकर इसमें कड़े नियम हैं. ये ऐक्ट खत्म हो जाए तब भी भारतीय न्याय संहिता में ऐसे अपराधों के लिए पर्याप्त और प्रभावी धाराएं हैं.’’
11 दिसंबर, 2023 की रात एक अनूठा मामला इस ऐक्ट से जुड़ गया.
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के दो छात्र सुकृत शर्मा और हिमांशु श्रोत्रिय दिल्ली अधिवेशन में शामिल होकर ग्वालियर लौट रहे थे. उसी ट्रेन में एक यात्री को दिल का दौरा पड़ा. सुकृत ने बातचीत में बताया कि मरीज को जल्द से जल्द अस्पताल ले जाने के लिए उन्होंने स्टेशन के बाहर खड़ी एक कार, जिसे ''वापस लौटाने का बोल दिया था’’, से मरीज को नजदीकी अस्पताल ले गए. लेकिन जब सुकृत और हिमांशु अस्पताल से बाहर निकले तो सुकृत के मुताबिक, 25 से 30 गाड़ियों में पुलिस ने इन दोनों को ऐसे घेर कर पकड़ा जैसे ये ''आतंकवादी हों’’. वजह: जो गाड़ी ये दोनों अस्पताल लेकर चले आए थे वह हाइकोर्ट के जज की थी.
अगले ही दिन सुकृत और हिमांशु पर ऐंटी डकैती ऐक्ट की धारा 'ग्यारह बटे तेरह’ लगाकर उन्हें जेल भेज दिया गया, जबकि राज्य और केंद्र दोनों में भाजपा की सरकार है. ऐंटी डकैती ऐक्ट के मामलों में संभवत: यह इकलौता केस है जिसमें दस दिन के भीतर आरोपियों को जमानत मिल गई. इस मामले में पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और वर्तमान मुख्यमंत्री मोहन यादव, दोनों ने न्यायालय से 'मानवता के आधार पर’ फैसला लेने की गुजारिश करते हुए चिट्ठी लिखी.
ठीक तभी जब सुकृत सिस्टम से अपनी निराशा जाहिर करते हैं तब इस पावर सेंटर से कई मील दूर, सब कुछ गंवा कर एक बे-रास्ता गांव में किसी का हाथ थामे बैठे होंगे रामसेवक. चंबल का पानी पूरी तरह उतरने का इंतजार कर रहे होंगे रामबृज. क्योंकि दावों और वादों के पंख लगाकर सूरज चूमने का सपना देखने वाली सरकारों की आंख में पानी कब आएगा, यह कौन कह सकता है.
क्या है ऐंटी डकैती ऐक्ट
● मध्य प्रदेश डकैती और व्यपहरण प्रभावित क्षेत्र अधिनियम 1981, मध्य प्रदेश के डकैती प्रभावित क्षेत्र में 7 अक्तूबर 1981 को लागू हुआ.
● ये ऐक्ट डकैती, लूट, अपहरण जैसी वारदातों के लिए जिम्मेदार डकैतों और समूह डकैती के लिए लाया गया.
● डकैती अधिनियम की धारा 11,13 के तहत दर्ज हो रहे हैं मामले
● मध्य प्रदेश के ग्वालियर, शिवपुरी, श्योपुर, दतिया, भिंड, मुरैना, रीवा और सतना जिलों में प्रभावी है
● 'ग्यारह बटे तेरह’ के तहत गिरफ्तारी के बाद अग्रिम जमानत नहीं मिल सकती
● डकैती अधिनियम की धाराओं में दर्ज प्रकरण की सुनवाई विशेष अदालतों में की जाती है.