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गुजरात: कच्छ का छोटा रन एक खारी झील में कैसे बदल गया?

कच्छ का छोटा रन 'समुद्र बन चुका है', जिससे पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंच रहा है. ऐसा इसलिए क्योंकि नदी का बेशकीमती पानी बिना इस्तेमाल के यूं ही बर्बाद हो रहा है

कच्छ के छोटे रन में बनी झीलें
अपडेटेड 13 अक्टूबर , 2025

कुल 65 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला कच्छ का छोटा रन नर्मदा के पानी से भरी एक खारी झील में कैसे बदल गया? इस सवाल का जवाब पता करने से पहले गुजरात की एक पुरानी दुविधा को समझना होगा: नर्मदा का पानी राज्य के कोने-कोने तक पहुंचाने के लिए नदी का प्रबंधन कैसे किया जाए.

इसका जवाब तो मिला लेकिन केवल सैद्धांतिक तौर पर. नतीजा: एक दशक से भी ज्यादा समय से सीमावर्ती गांवों के खेतों की सिंचाई के लिए बनाई गई नर्मदा नहरों से लाखों लीटर ताजा पानी लगभग पूरे साल रेगिस्तान जैसे छोटे रन में गिरता रहता है.

सैद्धांतिक तौर पर नर्मदा के पानी का इस्तेमाल सख्त मानदंडों से बंधा है, हर बूंद का हिसाब रखा जाता है. और किसान-नीत जल उपयोग संघ (डब्ल्यूयूए) सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड (एसएसएनएनएल) से अपनी जरूरत के हिसाब से पानी मांगते हैं. लेकिन व्यावहारिक तौर पर सब कुछ राम भरोसे ही चलता है. गुजरात हाइकोर्ट के निर्देशों पर राज्य मानवाधिकार आयोग (एसएचआरसी) की तरफ से गठित विशेष समिति में शामिल पर्यावरणविद् रोहित प्रजापति कहते हैं, ''सामान्य तौर पर स्थानीय विधायक या कोई कद्दावर व्यक्ति किसी एसएसएनएल अधिकारी को बुलाकर किसानों के लगाए अनुमान के आधार पर कुछ गांवों के लिए पानी छोड़ने को कहता है. मांग हमेशा जरूरत से ज्यादा होती है. फिर भी इंजीनियर मान लेते हैं.''

इससे बहुत सारा पानी अनुपयोगी रह जाता है और 15-20 किलोमीटर की दूरी तय कर अंतत: रन में जाकर गिरता है. प्रजापति कहते हैं, ''वहां यह एक विशाल खारे पानी की झील में जमा तो होता ही है, अपने साथ नमक के तालाबों को भी बहा ले जाता है. इस बाढ़ के कारण तकरीबन 5,000 अगरिया (नमक के तालाबों में काम करने वाले लोग) अपनी आजीविका गंवा चुके हैं.''

पसंदीदा पेशा गंवाया
पटाडी तालुका स्थित वछराजपुरा गांव के नमक किसान कालूभाई ठाकोर बताते हैं कि जून में उनकी आधी जमीन बाढ़ में डूब गई क्योंकि पानी उम्मीद से पहले ही आ गया था. वे कहते हैं, ''रन समुद्र का रूप ले चुका है. हमें अपना सामान लेने के लिए नाव से आना पड़ा.'' उनका अस्थायी घर और सौर पैनल सब कुछ बर्बाद हो गया. कालूभाई बताते हैं, ''मेरे जैसे कई लोगों ने नमक की खेती छोड़कर निर्माण स्थलों पर काम करने के लिए गांव जाने का फैसला किया.''

हैरानी की बात यह है कि बाढ़ की स्थिति 2014 में उत्पन्न होनी शुरू हुई थी लेकिन इससे निबटने के उपाय 2025 में उठाने शुरू किए गए. अगरिया से सामाजिक कार्यकर्ता बने सुरेंद्रनगर जिले के रन की सीमा से लगे पटाडी कस्बे के निवासी भरत सोमेरा कहते हैं, ''सिंचाई, कृषि, वन विभाग, एसएसएनएनएल, जिला कलेक्टरेट...सभी इस बात से इनकार कर रहे थे कि यह नर्मदा का पानी है. लेकिन हमने जमीनी और ड्रोन वीडियो दस्तावेजीकरण के जरिए इसे साबित किया.''

प्रजापति बताते हैं कि मिट्टी में घुले लवण की मात्रा को देखते हुए दर्जनों गांवों से होकर बहने वाले अतिरिक्त पानी का इस्तेमाल सिंचाई के लिए नहीं किया जा सकता.

पारिस्थितिकी क्या बला है?
समुद्री जल की वजह से पारिस्थितिकी भी खासी प्रभावित हुई है. यह विदेशी खरपतवारों को बढ़ाती है, जिससे रन के घास के मैदानों की स्थानीय प्रजातियां विस्थापित होती हैं. इसके अलावा, आइयूसीएन के दस्तावेजों में भी इस बात को दर्ज किया गया है कि यह एशियाई जंगली गधों और अन्य प्रजातियों के उनके अनोखे सूक्ष्म आवासों में आने-जाने से कैसे रोकता है. नतीजा: मानव-पशु संघर्ष हुआ क्योंकि जंगली गधे, जिनकी संख्या 2024 की जनगणना में 7,672 थी, आसपास के खेतों में अपना बसेरा बनाने लगे हैं.

हताश कार्यकर्ताओं का कहना है कि वन विभाग मन ही मन खुश है, क्योंकि आर्द्र रन प्रवासी पक्षियों को आकर्षित कर रहा है. विलायती कीकर भी बहुतायत में बढ़ रही है. अचानक इस क्षेत्र का इस तरह हरा-भरा होना पहली नजर में अच्छा लगता है. सोमेरा कहते हैं, ''जैसे-जैसे यह बात पक्षी प्रेमियों के बीच फैल रही है, पर्यटन भी बढ़ रहा है.''

राज्य मानवाधिकार आयोग को जुलाई में सौंपी अपनी रिपोर्ट में प्रजापति और सह-पैनलिस्ट नेहा सरवटे ने सुझाव दिया कि अनिवार्य ग्राम-स्तरीय जल संरक्षण संघ (डब्ल्यूयूए) जल्द से जल्द बनाए जाएं. सिफारिशों पर सभी विभागों ने भी हामी भर दी है, जिसमें नर्मदा नहर और रन के बीच मौजूदा चेकडैम की सफाई और नए चेकडैम बनाना, गांव के तालाबों की क्षमता बढ़ाना, अतिरिक्त पानी को समायोजित करने के लिए नदियों की सफाई आदि शामिल है.

शुरुआती याचिकाकर्ताओं में शामिल अगरिया हितरक्षक समिति की पंक्ति जोग कुछ और मुद्दे गिनाती हैं, ''कई गांवों में खेतों तक छोटी नहरें और उप नहरें नहीं बनाई गई हैं. इससे पानी की भारी बर्बादी होती है.'' एसएसएनएनएल अधिकारी इस पर किसी टिप्पणी से इनकार करते हैं और इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि अफसरों की लंबी-चौड़ी फौज के बीच उसके अधिकार बहुत सीमित हैं. इस बीच, '90 के दशक में नर्मदा बचाओ आंदोलन से जुड़े प्रजापति के लिए जिंदगी अब पूरी तरह बदल चुकी है. वे हताश भाव में कहते हैं, ''उस समय पानी की बर्बादी हमारी प्रमुख चिंताओं में से एक थी.''

खास बातें

नर्मदा के जल के बेकार बहाव से दुर्लभ पर्यावास वाले कच्छ के छोटे रन में सैलाब.

कामचलाऊ तरीके की वजह से पानी की बड़े पैमाने पर बर्बादी, सदियों पुराने नमक के तालाब बर्बाद.

निरंतर बाढ़ से रन की पारिस्थितिकी बदली: विदेशी खर-पतवार, पेड़ से स्थानीय प्रजातियों को दिक्कत.

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