इन दिनों गुजरात में कॉलेज परिसर एक अजीब किस्म की अराजकता से गुजर रहे हैं. मानो किसी चीज पर कोई नियंत्रण ही नहीं रह गया है. शैक्षणिक सत्र शुरू हुए महीने भर से ज्यादा का समय बीत चुका है लेकिन सरकारी और सहायता प्राप्त विश्वविद्यालयों में स्नातक पाठ्यक्रमों में प्रवेश प्रक्रिया पूरी होने का नाम ही नहीं ले रही. बारहवीं बोर्ड के नतीजे मई मध्य में ही आ गए थे लेकिन अब तक कम से कम 40 फीसद सीटें खाली पड़ी हैं. इसमें ऊंची रैंकिंग वाले कॉलेज भी शामिल हैं.
इस अफरा-तफरी की वजह क्या है? यह है उच्च शिक्षा विभाग की तरफ से अपनाई गई डिजिटल व्यवस्था—गुजरात केंद्रीकृत प्रवेश प्रणाली (जीसीएएस). इसके पोर्टल पर 3.65 लाख से ज्यादा छात्रों ने पंजीकरण कराया है लेकिन जुलाई के आखिरी हफ्ते में 22 राउंड के बाद 4.71 लाख स्नातक सीटों में से केवल 56 फीसद ही भरी जा सकी हैं. कारण है जीसीएएस में तकनीकी खामियां, प्रॉसेसिंग प्रक्रिया दुरुस्त न होना और समन्वय तथा सर्वर क्रैश जैसी सामान्य समस्याएं.
सरकार लगातार दूसरे वर्ष 15 राज्य विश्वविद्यालयों और उनसे संबद्ध कॉलेजों में स्नातक, स्नातकोत्तर और पीएचडी में प्रवेश के लिए यह प्रणाली लागू करने का प्रयास कर रही है. पिछले साल आठ दौर की अव्यवस्थित और निरर्थक प्रक्रिया के बाद सरकार ने यह काम कॉलेजों के हाथों में ही लौटा दिया था. इस साल वे इसे पूरा करने पर अड़े हैं. हजारों छात्र परेशान हैं. नई व्यवस्था से कोई उम्मीद न दिखने पर वे स्व-वित्तपोषित कोटे के तहत प्रवेश ले चुके हैं या फिर महंगे निजी कॉलेजों का विकल्प चुन रहे हैं.
जीसीएएस का घोषित उद्देश्य निश्चित तौर पर खासा नेक था—प्रवेश प्रक्रिया सुव्यवस्थित करना ताकि पूरे राज्य के छात्रों को समान पहुंच और अवसर मिल सकें. हर संस्थान में व्यक्तिगत रूप से आवेदन करने में होने वाली परेशानी और खर्च कम हो. इसमें उम्मीदवारों की शैक्षणिक योग्यता के आधार पर स्वचालित मेरिट सूची के जरिए प्रवेश देने का वादा किया गया है, जिसे पारदर्शिता पुख्ता करने का तरीका भी करार दिया गया.
इतना आसान नहीं
लेकिन व्यावहारिक समस्याएं पहले चरण से ही शुरू हो रही हैं. हर छात्र अपनी वरीयता क्रम में तीन कॉलेजों का उल्लेख करता है और मजे की बात यह है कि उन्हें केवल एक के बजाए तीनों में प्रवेश मिल रहा है. इससे यह व्यवस्था कुछ और जटिल हो जाती है. छात्र अक्सर उनके बताए क्रम के अनुसार प्रवेश की पुष्टि नहीं करते. शिक्षाविदों का कहना है कि ऐसा इसलिए होता है क्योंकि फॉर्म भरते समय उन्हें अक्सर पता ही नहीं होता कि सीरियल नंबर उनकी वरीयता के क्रम को दर्शाते हैं.
ग्रामीण छात्रों के लिए तो विकल्प चुनना और ज्यादा जटिल होता है क्योंकि राज्यव्यापी विकल्पों के बारे में उन्हें कोई खास जानकारी नहीं होती. साथ ही, लेबलिंग प्रोटोकॉल उनकी दिक्कतें और बढ़ा देता है. गुजरात विश्वविद्यालय के सिंडीकेट सदस्य रहे कांग्रेस नेता और शिक्षा कार्यकर्ता मनीष दोषी कहते हैं, ''यह एक संचार का मसला है. सरकार ने यह समझने की जहमत नहीं उठाई कि छात्र अखबारों में विज्ञापन पढ़कर सब कुछ नहीं समझ सकते. ये वे बच्चे हैं जिन्हें ऑफलाइन परामर्श और मार्गदर्शन की आवश्यकता है.''
बहरहाल, इससे ऑनलाइन प्रक्रिया का मूल उद्देश्य ही विफल हो गया है, जिसके तहत राज्य के दूरदराज के इलाकों में रहने वाले छात्रों की शहर के अच्छे कॉलेजों तक पहुंच में आने वाली दिक्कतें दूर की जानी थीं. समुचित इंटरनेट सुविधा की अनुपलब्धता ने पहले ही इसे एक बड़ी समस्या बना दिया था. व्यावहारिक विवरण और उचित परामर्श के अभाव ने इस सबको और भी जटिल बना दिया. यूं भी कह सकते हैं कि डिजिटल दुनिया ने एक अलग तरह की दूरी पैदा कर दी.
एक बड़ी खामी यह भी है कि अगर कोई छात्र मेरिट लिस्ट में आता है और उसे इसकी सूचना मिल जाती है तो अगले कार्य दिवस के अंत तक दाखिले की पुष्टि के लिए उसे आवंटित कॉलेज के साथ एक ओटीपी साझा करना होता है, और इसके लिए उसे खुद कॉलेज जाकर संपर्क करना होगा. कोई भी गड़बड़ी होने पर आवंटन अवधि समाप्त हो जाती है. फिर छात्र को दूसरी मेरिट लिस्ट का इंतजार करना पड़ता है. एक प्रिंसिपल के मुताबिक, ''हर मेरिट लिस्ट के बाद सैकड़ों बाहरी छात्र प्रवेश कार्यालय पहुंचते हैं लेकिन जैसे ही शाम के पांच बजते हैं, पोर्टल पंजीकरण बंद कर देता है. छात्र और कॉलेज दोनों ही दाखिले की प्रक्रिया पूरी करने के लिए तत्पर होते हैं लेकिन तकनीक के आगे दोनों के हाथ में कुछ भी नहीं होता.''
तकनीकी खामियां
इस प्रणाली की निष्पक्षता पर भी सवाल उठ रहे हैं, खासकर कम ग्रेड वाले छात्रों को दाखिला मिलने और ऊंची ग्रेड वाले छात्रों के इंतजार ही करते रह जाने के कारण. यह तथ्य इसलिए संदेह को और भी ज्यादा बढ़ाता है क्योंकि किन कॉलेजों ने किन छात्रों के दाखिले की पुष्टि की है, इसका डेटा सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध नहीं. गुजरात विश्वविद्यालय की कुलपति डॉ. नीरजा गुप्ता बताती हैं कि उन्हें अपने विश्वविद्यालय से इसका डेटा भी नहीं मिल पा रहा है कि संबद्ध कॉलेजों में कितनी सीटें खाली हैं.
डॉ. गुप्ता के शब्दों में, ''प्रवेश प्रक्रिया में समय ही सब कुछ है. आधिकारिक तकनीकी टीम का कहीं अता-पता ही नहीं रहता.'' प्रक्रिया को अपनाने से पूर्व संभावित दिक्कतों के बारे में जानने के लिए उन्होंने ट्रायल रन भी नहीं किया. वे सिफारिश करती हैं कि यह प्रक्रिया एक नोडल कॉलेज को सौंप दी जाए जो प्रवेश प्रक्रिया की बारीकियां समझता हो.
मनीष दोषी बताते हैं, दिक्कतों के बावजूद शिक्षा विभाग कॉलेजों को प्रक्रिया ऑफलाइन पूरी करने की अनुमति देने से इनकार कर रहा है. उनके मुताबिक, ''फिलहाल तो इसका कोई समाधान निकलता नहीं दिख रहा.'' एक प्रिंसिपल को यह अराजकता अगले सेमेस्टर तक जारी रहने का अंदेशा है क्योंकि छात्र अपने पसंदीदा विकल्पों के लिए ऑफलाइन आवेदन करना शुरू कर देंगे.
खास बातें
> ऑनलाइन एडमिशन को आसान बनाने के लिए लाया गया जीसीएएस राज्य में अफरा-तफरी मचा रहा.
> 22 राउंड के बाद भी 56 फीसदी सीटें ही भरी जा सकीं. तीन राउंड और हुए पर कोई फर्क नहीं पड़ा.
> जीसीएएस के नाकाम होने के सबूतों के बावजूद योजना को रोकने का फैसला नहीं किया गया.