- हरिवंश (राज्यसभा के उप-सभापति)
अपने युवा दिनों में शिबू सोरेन को पहले जाना-समझा उनके जमीनी संघर्षों से. आपातकाल (1975) की पृष्ठभूमि का दौर था. तब वे धनबाद के पास टुंडी में रहते थे. वहां उनकी समानांतर सरकार थी. 'अबुआ राज’ यानी अपना राज. इस आंदोलन की गूंज थी.
उनके चारों ओर स्थानीय लोगों का घेरा रहता. तीर-धनुषधारियों का. उनसे मिलना मुश्किल था. व्यवस्था उन पर सख्त कार्रवाई चाहती थी. खबर थी कि दिल्ली का शीर्ष नेतृत्व इसकी इजाजत दे चुका था.
कोई अधिकारी शिबू सोरेन के पास जाने में हिचकता था. उन दिनों ईमानदार और गरीबों के प्रति प्रतिबद्ध, चर्चित आइएएस अधिकारी के.बी. सक्सेना धनबाद के उपायुक्त बनाकर भेजे गए.
धनबाद डीसी बनने के बाद एक दारोगा के सहयोग से वे शिबू सोरेन के पास पहुंचे. जाकर गले मिले. सोरेन भी गले मिले. देर तक दोनों के बीच बातचीत हुई. लौटकर सक्सेना ने रिपोर्ट लिखी: शिबू सोरेन का मकसद अच्छा है. काम भी. उन्हें समर्पण कराने की योजना बनी. अब्दुल गफूर उन दिनों बिहार के मुख्यमंत्री थे. अचानक मुख्यमंत्री बदल गए और धनबाद के डीसी भी. मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र हुए और धनबाद के डीसी बने लक्ष्मण शुक्ल.
के.बी. सक्सेना की रिपोर्ट से केंद्र को लगा, शिबू सोरेन भविष्य के आदिवासी नेता हैं. आदिवासी उनके साथ हैं. गिरक्रतारी का इरादा बदला. उनके समर्पण की तैयारी हुई. डीसी लक्ष्मण शुक्ल ने शिबू सोरेन से संपर्क किया और कहा, मुख्यमंत्री खुद आपसे बात करेंगे. शिबू सोरेन ने समर्पण किया. मुख्यमंत्री से उनकी बात हुई. सारे मुकदमे हटाने का आश्वासन मिला.
बाद में जगन्नाथ मिश्र ने उन्हें इंदिरा गांधी से मिलवाया. इस पूरे प्रसंग में अहम कड़ी रहे उस वन्न्त के छोटानागपुर (आज का झारखंड) के बड़े युवा कांग्रेसी नेता और विधायक ज्ञानरंजन. बाद में वे कांग्रेस के राज्यसभा सांसद बने. इंदिरा गांधी, संजय गांधी के दरबार में उनका दखल था. ज्ञानरंजन के पिता आजादी की लड़ाई के लोकप्रिय गांधीवादी शिक्षक नेता थे. उनके पिता से शिबू सोरेन के अध्यापक पिता के संबंध थे. ज्ञानरंजन और शिबू सोरेन काफी करीबी थे.
इसी तरह एक गैर-आदिवासी झगड़ू पंडित थे. शिबू सोरेन के साथ साए की तरह रहने वाले. उनका एक नाम कृषि पंडित भी था. आत्मसमर्पण के बाद सोरेन को जेल भेजने की तैयारी हुई. झगड़ू पंडित ने कहा, उन्हें भी सोरेन के साथ जेल भेजा जाए. धनबाद डीसी ने कहा, आपको कैसे भेजें?
आप पर कोई मुकदमा नहीं है. झगड़ू पंडित ने कहा, तो हम किसी पुलिस अधिकारी को पीट देते हैं. केस बनाकर भेज दीजिए. पुलिसवालों के लिए तो सबसे आसान है केस बनाना. अंत में झगड़ू पंडित को भी शिबू सोरेन के साथ जेल भेजा गया. यह सब जाना और सुना था.
उनका नाम शिबू सोरेन था. पर लोकमानस उन्हें दिशोम गुरु या गुरुजी के उपनाम से संबोधित करता रहा. यह लोक उपाधि आमजनों ने दी थी. दिशोम संथाली शब्द है. आशय है, देश या समुदाय. उनके अपने लोग उन्हें देश या अपने समुदाय का गुरु मानते थे.
बाहरी दुनिया में शिबू सोरेन की पहचान झारखंड मुक्ति मोर्चा के संस्थापक, लोकसभा और राज्यसभा मिलाकर कुल बारह बार सांसद बनने, तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री होने के रूप में है. पर यह पहचान आइसबर्ग की तरह है. पानी में तैरते बर्फ के उस हिस्से भर, जो बाहर है पर अधिकांश हिस्सा अंदर है.
उनकी मूल पहचान उनके शुरुआती संघर्ष में है. वही पूंजी, उनकी लोकप्रियता का मूलधन रही है. शुरू से करिश्माई व्यक्तित्व में उसी जमीनी लड़ाई की लौ रही. जल-जंगल-जमीन को जीवन मानने वाली अनसुनी आवाजों को स्वर देने से उन्हें लोक ऊर्जा मिली. सामाजिक सुधार का अभियान चलाने वाले जमीनी नायकत्व के मूल में इस जमीनी संघर्ष की आंच थी.
झारखंड में पत्रकारिता के दौरान शिबू सोरेन से निजी रूप से हुई मुलाकातें स्मृति में जीवंत हैं. बातचीत में, जीवन में आदिवासी समाज की सहजता, सरलता और साफगोई. पर पहली मुलाकात की स्मृति हमेशा रहती है. उस मुलाकात में उन्होंने अपनी वेदना बताई थी. पीड़ा थी कि मीडिया में आदिवासी संघर्ष-मुद्दों को न जगह मिलती है, न महत्व.
न सही परिप्रेक्ष्य. झारखंड आंदोलन अलग राज्य के लिए चल रहा था. उसी दौर में 'दिकु’ (बाहरी) भगाओ का नारा भी जोर पकड़ रहा था. दिसंबर 1987 में मैं उन्हीं से बातचीत और आंदोलन को देखने के लिए झारखंड (तब अविभाजित बिहार का हिस्सा) पहुंचा. उन दिनों कोलकाता (रविवार पत्रिका, आनंद बाजार समूह) में काम करता था.
शिबू सोरेन तब गांव-गांव घूम रहे थे. एक गांव में मुलाकात हुई. अनेक विषयों पर बात हुई. वे केंद्र सरकार से दुखी थे. अलग राज्य देने के प्रति केंद्र सरकार उदासीन थी. वे बोले कि केंद्र झारखंड के आंदोलन को महत्वहीन मान रहा है. उसी मुलाकात में पूछा था कि 'दिकु’ शब्द का आशय क्या है? आपके ही नाम को केंद्र में रखकर 'दिकु भगाओ अभियान’ चल रहा है?
'दिकु’ किसे मानें? शिबू सोरेन ने हंसते हुए कहा, हर शब्द का अर्थ साफ है. हमें वही समझना चाहिए, जो उसका सीधा, सरल आशय है. 'दिकु’ का आशय है, जो दिक-दिक करे यानी दिक्कत पैदा करे. आम लोगों के लिए मुसीबत. आदिवासियों को दिक्कत देने या परेशान करने वाले सिर्फ गैर-आदिवासी या गैर-झारखंडी ही नहीं, यहां के लोग भी हैं. और आदिवासियों के हितैषी या झारखंड आंदोलन के समर्थक सिर्फ आदिवासी या झारखंडी ही नहीं, गैर-आदिवासी और गैर-झारखंडी भी हैं.
सिर्फ एक शब्द का आशय स्पष्टता से उन्होंने समझाया. तब पाया कि सार्वजनिक जीवन में अपने लोगों से उनका संवाद हमेशा एक गुरु की तरह रहा. हर बात का मर्म साफ-साफ. इसलिए भी वे दिशोम गुरु कहे गए.
मरांग गोमके (महान नेता) जयपाल सिंह मुंडा के बाद स्थानीय जनमानस में वे उसी तरह रचे-बसे. अपने पिता की हत्या के बाद सामाजिक-सार्वजनिक जीवन में सक्रिय हुए. तब उनकी उम्र महज 12-13 साल थी. किशोर उम्र. इस वय में स्वाभाविक तौर पर आक्रोश और गुस्सा परवान पर रहा होगा. बदले की भावना भी. इस कच्ची उम्र में ही शिबू सोरेन ने निजी पीड़ा को बदले की भावना से नहीं जोड़ा.
व्यक्ति की बजाए प्रवृत्ति या महाजनी संस्कृति से लड़ना तय किया. सूदखोरों, जमींदारों, शोषकों के खिलाफ उनका अभियान चला. उन्हीं ताकतों ने उनके पिता की हत्या की थी. उन्होंने व्यक्तिगत विद्रोह और आक्रोश को समूह की पीड़ा से और जमीनी मुद्दों से आंदोलन को जोड़ा. शोषकों के खिलाफ 'धनकटनी आंदोलन’ उनके ही संघर्ष का एक अध्याय है.
इसी से उपजा उनका वह व्यक्तित्व, जिसे करिश्माई कहा गया. यह करते हुए भी आंदोलन को हिंसक नहीं होने दिया. वे गांव-गांव घूमते. सूदखोरों, जमींदारों के खिलाफ लोगों को गोलबंद करते. पर इसके पहले अपने ही लोगों को जागरूक करते. शराब छोड़ने को कहते. शिक्षा से जुड़ने का आवाहन करते. यह समझाते कि जमींदार या शोषक हमारे आंदोलन से अपनी प्रवृत्ति बदल देंगे. ये प्रवृत्तियां खत्म हो जाएंगी. पर समाज की प्रवृत्ति नहीं बदली, हंड़िया (देसी दारू, शराब) से दूर नहीं हुए, शिक्षा से नहीं जुड़े तो भविष्य में कोई लाभ नहीं मिलेगा. यह गहन अंधकार छंटकर, वह उजाला नहीं आएगा, जिसके लिए हम लड़ रहे हैं.
बहस इस पर भी चलती थी कि शिबू सोरेन का आंदोलन गांधीवादी था या हिंसक? इस मुल्क में घोषित तौर पर गांधीवादी होने या न होने पर भी अनेक ऐसे नायक हुए, जिन्होंने गांधी की राह को ही अपनाया. चंपारण में अंग्रेज निलहों के खिलाफ आंदोलन की अगुआई करने पहुंचे गांधी. सबसे पहले लोगों को एकजुट किया, चंपारण में लोगों को जगाना शुरू किया, स्कूल खुलवाए, शिक्षा के साथ ही स्वास्थ्य और सफाई के प्रति जागरूक किया. शिबू सोरेन के आरंभिक कामों को, तौर-तरीकों को देखकर लगेगा कि वे उसी धारा के अनुयायी थे.
शिबू सोरेन का यह आरंभिक काम, उनके जीते-जी ही उनके नाम से बड़ा हो चुका था. सत्ता की राजनीति में आए. शीर्ष पदों पर पहुंचे. उनकी राजनैतिक यात्रा में उन पर कई बड़े गंभीर आरोप लगे. दो बार अहम पद छोड़ने पड़े. लोकसभा चुनाव भी हारे. पर उनका वह पुराना करिश्माई काम, जमीनी संघर्ष और साफ संवाद लोकमानस में बस चुका था. आरंभिक संघर्ष की वह पूंजी राजनैतिक जीवन में लगे गंभीर आरोपों पर भारी रही. लोकमानस में.
शुरुआती चुनावी राजनीति में वे सबसे पहले मुखिया का चुनाव हारे. फिर विधायकी का लड़े, हारे. पर संघर्ष नहीं छोड़ा. उनका धैर्य-संयम नहीं हारा. न ही तब, जब वे अलग झारखंड आंदोलन से जुड़े. तब की केंद्र सरकार से अलग झारखंड बनाने के नाम पर निराशा हाथ लगती रही लेकिन शिबू सोरेन निराश नहीं हुए. यही धैर्य और आत्मविश्वास उनकी शिखर यात्रा की बुनियाद में रहे.
मुल्क में घोषित तौर पर गांधीवादी होने, न होने पर भी अनेक ऐसे नायक हुए जिन्होंने गांधी की राह को अपनाया. शिबू सोरेन के आरंभिक कामों को, तौर-तरीकों को देखकर लगेगा कि वे उसी धारा के अनुयायी थे. यह आरंभिक काम जीते जी उनके नाम से बड़ा हो चुका था.