
सीतामढ़ी जिले के बिशनपुरी गोनाही गांव की प्रियंका, नीतेश और संजीत तथा श्रीरामपुर गांव के हरिशंकर, मिंटू और चंद्रकांत के पास आजकल एक ही काम है.
वे रोज दिन में करीब दस बजे फोन लेकर बैठ जाते हैं, फिर दो से तीन घंटे अपने जिलाधिकारी और बिहार सरकार की नल-जल योजना से जुड़े विभिन्न अधिकारियों को फोन लगाते रहते हैं.
जिनसे बात हो गई, उन अधिकारियों से वे अपने इलाके में जलापूर्ति व्यवस्था को ठीक कराने का अनुरोध करते हैं. प्रियंका बताती हैं, ''हमारे गांव में सात-आठ साल पहले नल-जल योजना की शुरुआत हुई थी. टंकी लगी, पाइप लाइन बिछाई गई. तब लोगों को लगता था, इस योजना का क्या लाभ? घर-घर में हैंडपंप लगा था, 60-70 फुट की गहराई पर खूब पानी मिलता था. बारिश भी अच्छी होती थी. बाढ़ का इलाका है तो वाटर लेवल भी ठीक रहता है.
मगर दो-तीन साल से गड़बड़ियां शुरू होने लगीं, पिछले साल हैंडपंप का लेयर गिरने लगा. इस साल तो गांव के 80 फीसद से ज्यादा हैंडपंप सूख गए. ऐसे में सबको नल-जल योजना की याद आई. फिर पता चला कि पड़े-पड़े सारा सिस्टम खराब हो गया है, अब हम इसको ठीक कराने में लगे हैं.’’ उनकी मां हैंडपंप चलाकर दिखाती हैं, और करीब सौ बार चलाने पर एक बाल्टी पानी भरता है. उनकी चाची राजकली देवी के घर में दो-दो हैंडपंप हैं, और दोनों सूखे पड़े हैं.
उनके ही गांव के संजीत, जिनकी मां वार्ड सदस्य हैं, कहते हैं, ''नल-जल योजना के सिस्टम को हम लोगों ने चेक कराया तो पता चला कि किसी का स्टार्टर खराब है तो किसी का स्टैबिलाइजर. कहीं मोटर जला हुआ है तो कहीं सड़क निर्माण कार्य के कारण पाइप लाइनें फट गई हैं. मेरे वार्ड में ज्यादातर लोगों के नलों की टोटियां ही गायब हो गई थीं.’’ इन लोगों ने मिलकर पहले वार्ड तीन की व्यवस्था को ठीक कराया, फिर दूसरे वार्ड की व्यवस्था को ठीक कराने में जुटे हैं.
उधर, इसी गांव के वार्ड पांच में जल संकट से हाहाकार मचा है. वहां गांव के एक शिक्षक कमर ए आलम के घर में लगे हैंडपंप पर पानी भरने के लिए एक दर्जन से ज्यादा महिलाएं कतार में लगी नजर आती हैं. दोपहर के बारह बजे हैं, मगर वहां भीड़ कम नहीं होती. हाथ में इंडिया टुडे की माइक देखते ही महिलाएं फूट पड़ती हैं. वे कहती हैं, ''आप लोग किसी तरह हमारे लिए पानी की व्यवस्था कराइए. एक महीने से पानी के लिए छिछिया रहे हैं. दिन में दस बार यहां आते हैं.
सुबह खाना बनाने के लिए तो दिन में नहाने-धोने के लिए, फिर बरतन धोना, कपड़े धोना, पीने का पानी जुटाना, शौच के लिए पानी ले जाना. दिन का आधा टाइम पानी ढोने में बीत रहा है. इस भीषण गर्मी में सबका नहाना-धोना बंद है. प्यास के मारे बच्चे छिछियाते रहते हैं.’’
एक महिला नजरुन्निसा कहती हैं, ''एक बार हम बच्चों को लेकर नहाने तालाब की ओर चले गए. वहां बच्चा डूबने लगा, किसी तरह उसको बचाए. अब तालाब जाने से भी तौबा कर लिए हैं.’’ गांव में ही लाह की चूड़ियां बनाने वाली मोमिना खातून कहती हैं, ''रात में दो बजे भी प्यास लगे या शौच आए तो दौड़कर कमर ए आलम के हैंडपंप पर जाना पड़ता है, जो मेरे घर से आधा किमी दूर है.’’
दूसरी ओर आलम बताते हैं कि 250 घरों की इस बस्ती में इस साल सिर्फ तीन-चार हैंडपंप ही चालू हैं. उनमें एक उनका है. वे कहते हैं, ''मैंने गांव के लिए अपना दरवाजा खोल दिया है. मगर यह भी कब तक चलेगा, कहना मुश्किल है. इसका लेयर सूख गया तो इन लोगों का क्या होगा, सोचकर दिल परेशान होता है. हमारे नल-जल वाली टंकी का स्टैबिलाइजर जला हुआ है. सरकार को इसे जल्दी से ठीक कराना चाहिए.’’
यह कहानी सिर्फ बिशनपुरी गोनाही गांव की नहीं है. खासकर सीतामढ़ी जिले के ज्यादातर इलाके और अमूमन हिमालय की तराई में बसे बिहार तथा नेपाल के ज्यादातर क्षेत्रों में कमोबेश यही स्थिति है. नदियों, तालाबों और चौरों की वजह से हाल तक यह क्षेत्र जल की प्रचुरता वाला इलाका समझा जाता था.
सीतामढ़ी की मृत हो चुकी नदी लखनदेई को पुनर्जीवन देने के अभियान के अगुआ रामशरण अग्रवाल कहते हैं, ''यह इलाका हिमालय से उतरने वाली नदियों के पानी से तर रहता था, इसलिए तराई कहलाता था. मगर पिछले तीन-चार साल से यह पूरा इलाका गंभीर जल संकट का शिकार हो रहा है. मई-जून से ही हैंडपंप सूखने लगते हैं और बारिश नहीं होने के कारण यह संकट जुलाई-अगस्त तक बरकरार रहता है.’’
इस साल चंपारण के दोनों जिलों और सीतामढ़ी, शिवहर, दरभंगा, मधुबनी, मुजफ्फरपुर आदि जिलों से लगातार जल संकट और हैंडपंप के सूखने की खबरें आ रही हैं. जिन इलाकों में लोग नल-जल योजना के नलों से पानी लेने की जरूरत नहीं समझते थे, वहां गांवों में टैंकर घूमने लगे हैं.
रक्सौल शहर में मकान-मालिकों ने अपने किराएदारों को कम पानी इस्तेमाल करने की हिदायत देने के पोस्टर चिपकाने शुरू कर दिए हैं. मधुबनी जिले में सौ से ज्यादा स्कूलों के हैंडपंप सूखने के कारण बच्चों की पढ़ाई बाधित हो रही है. सबसे बुरा हाल सीतामढ़ी और पूर्वी चंपारण जिले का है, जहां 23 जुलाई तक सामान्य से क्रमश: 81 और 77 फीसद कम बारिश हुई (देखें बॉक्स).
पूर्वी चंपारण के चंदनबारा गांव के अकरम जफीर कहते हैं, ''हमारे जिले में रक्सौल से लेकर घोड़ासहन और ढाका तक हर जगह एक जैसा हाल है. गांवों के 90 फीसद हैंडपंप सूख गए हैं. कम लेवल वाले कुछ हैंडपंपों में पानी आ भी रहा है तो वह पीने के लायक नहीं है. सरकार जो टैंकर भेज भी रही है, वह पर्याप्त नहीं है. एक टैंकर पूरे गांव के लिए आता है, उसमें मारा-मारी लगी रहती है. इस साल तो हालात विकराल हैं.’’
ऐसा ही एक टैंकर सीतामढ़ी जिले के परवाहा गांव में दोपहर के वक्त दिखा. बिहार सरकार के लोक स्वास्थ्य अभियंत्रण विभाग (पीएचईडी) की तरफ से भेजे गए इस टैंकर के सामने बरतनों की कतार नजर आती है. इस इलाके में लोगों ने बीते एक महीने में जल संकट की वजह से तीन बार चक्का जाम किया. गांव के सभी हैंडपंप सूख गए थे और नल-जल योजना की पाइप लाइन क्षतिग्रस्त होने से पानी नहीं आता था. अब टैंकर आने से थोड़ी राहत है, पर लोगों की परेशानी घटी नहीं है.

वहां पानी भरने पहुंची औरतें कहती हैं. ''दिन में एक बार ही टैंकर आता है. एक व्यक्ति को दो बाल्टी पानी मिलता है, इससे क्या होगा. इससे थोड़ा काम चलता है, फिर बाल्टी लेकर दिन भर यहां-वहां भटकते हैं. टोले में सिर्फ एक घर में हैंडपंप चल रहा है, वह भी उस पर ताला लगाकर रखता है.’’ टैंकर से पानी बांटने वाला स्टाफ कहता है, ''7,000 लीटर की टंकी है, हम कितना बांट सकते हैं. वैसे, एक घर में दस बाल्टी पानी चाहिए.’’ वहां से आगे बढ़ने पर भी जगह-जगह महिलाएं और बच्चे पानी भरने के बरतन के साथ खड़े मिलते हैं.
हालांकि इस जल संकट के दौर में एक जगह पानी बहता नजर आता है. वह जगह है सीतामढ़ी के परिहार का दुबे टोला. महादलितों की उस बस्ती में कम से कम दो जगह लगातार पानी बहता दिखता है. एक जगह नाली में, जहां नल-जल योजना का मोटा पाइप फट गया है और पानी लगातार नाली में गिरता है. लोग नाली में ही बाल्टी रखकर पूरे दिन पानी भरते हैं. दूसरा, नल-जल योजना की टंकी के नीचे.
टंकी साल भर से फटी है और लगातार पानी गिरता रहता है. वहां के विकास मित्र रामप्रवेश मांझी बताते हैं, ''225 परिवारों के इस महादलित टोले में एक भी हैंडपंप चालू नहीं है. ऐसे में लोग नहाने धोने टंकी के नीचे आते हैं और पीने का पानी नाली में बाल्टी रखकर भरते हैं.’’ वहां खड़ी बुजुर्ग फुलझाड़ू देवी कहती हैं, ''इसी का सहारा है बाबू, ई नै होता तो हम सब दांत चियार दिए होते.’’
पानी का संकट सिर्फ घरों के लिए ही नहीं है, इससे खेती-किसानी भी बुरी तरह प्रभावित हो रही है. यह खरीफ का मौसम है और इस पूरे इलाके में लोग धान की खेती करते आए हैं, जिसमें पानी की अत्यधिक जरूरत होती है. मगर इस साल रोपनी के समय में जब बारिश नहीं हुई तो लोगों ने पंपसेट से खेतों में पानी भरकर किसी तरह रोपाई कर ली. मगर अब वे सोच रहे हैं कि आगे क्या होगा? आगे अगर पानी नहीं बरसा तो वे कितनी दफा पंपसेट से सिंचाई करेंगे?
दुबे टोला के पास खेतों में दसई साह मिलते हैं. खेतों की मिट्टी सूखी है, जगह-जगह दरारें पड़ने लगी हैं, धान के पौधे पीले पड़ रहे हैं और उनके बीच दसई खुरपी से घास छील रहे हैं. वे कहते हैं, ''पंपसेट से पानी पटाकर सभी लोगों ने धान रोप तो लिया है, अब धान पानी मांग रहा है. पानी के अभाव में सूख रहा है. हमलोग भी टाल रहे हैं, इस उम्मीद में कि कल पानी बरस जाय तो पटवन (सिंचाई) का पैसा बच जाएगा. नहीं बरसेगा तो फिर पैसा खर्च कर पानी पटवाएंगे.’’
इस तरह से कितनी बार पानी पटाएंगे? इस सवाल पर दसई कहते हैं, ''देखते हैं जितना हो सकेगा. हो सकेगा तो पटाएंगे, नहीं तो छोड़ देंगे. धान नहीं बचेगा तो क्या करेंगे? मर थोड़े ही जाएंगे?’’ यह बोलते-बोलते वे उदास हो जाते हैं. मगर वहीं हरिनारायण साह जैसे किसान भी हैं, जो कहते हैं, ''जितनी बार लगेगा पानी पटाएंगे. छोड़ थोड़े देंगे.’’ इस इलाके में पंपसेट से सिंचाई का रेट एक हजार रुपए बीघा है.
मगर क्या पंपसेट स्थायी समाधान है कि जब चाहें इसके दम से पानी खोद कर निकाल लें? श्रीरामपुर गांव में लक्ष्मण के पास दो पंपसेट हुआ करते थे, उनमें से एक ठप्प पड़ा है क्योंकि वहां जलस्तर कम हो चुका है. उनके एक पंपसेट पर आसपास के किसान टूट पड़े हैं. सिंचाई कराने के लिए लाइन लगी रहती है. वे कहते हैं, ''यह भी कब साथ छोड़ दे, कहना मुश्किल है.’’
उधर बिशनपुरी गोनाही गांव के राजमिस्त्री अब्दुल हमीद अलग ही राग छेड़ देते हैं. वे कहते हैं, ''सबकी जड़ पंपसेट है. हम 75 साल के हो गए. कभी अपने गांव में पानी का दिक्कत नहीं देखे. जब से किसान लोग पंपसेट लेकर आया है, तब से वाटर लेबल के नीचे जाने का हल्ला हो रहा है. सबकी जड़ यही पंपसेट है.’’
तराई के इलाके में पानी की एक-एक बूंद के लिए तरस रहे लोगों की व्यथा का आखिर समाधान क्या है?
ग्राम चेतना संगठन के जरिए अपने गांव के सर्वांगीण विकास के अभियान में जुटे श्रीरामपुर गांव के आलोक चंद्र प्रकाश इस संकट की आहट को 2023 से महसूस करते आए हैं. उन्होंने 2023 में ही अपने साथियों की मदद से पूरे गांव में पानी की उपलब्धता और बढ़ते संकट का सर्वेक्षण किया था. आलोक कहते हैं, ''उस साल अप्रैल में ही गांव के ज्यादातर हैंडपंप सूखने लगे थे. जून के आखिर में हमारे गांव में पहली दफा पानी का टैंकर आया. संकट बढ़ा तो लोगों का ध्यान नल-जल योजना के नलों की तरफ गया. लोग परेशान होने लगे. फिर हमने गांव के लोगों के साथ मिलकर पहली दफा गांव का वाटर ऑडिट कराया.’’
आलोक की संस्था की ओर से कराए गए वाटर ऑडिट में पता चला कि 325 घरों के इस छोटे से गांव श्रीरामपुर में उस वक्त 263 हैंडपंप थे. उनमें 171 पूरी तरह सूख चुके थे और 92 काम तो कर रहे थे मगर उनके जरिए पानी भरने में काफी दिक्कतें आ रही थीं. 283 घरों तक नल-जल योजना का कनेक्शन पहुंचा था, मगर उनमें 174 घरों में ही छिट-पुट तरीके से पानी पहुंच पा रहा था. गांव में 42 जगहों पर पाइपलाइन क्षतिग्रस्त थी और पानी बहता रहता था. कुल 17 बोरवेल थे, जिनमें ज्यादातर बंद पड़े थे. वहीं मछली पालन के लिए खोदे गए तालाबों को जल संकट के दौरान लोग डीप बोरवेल चलाकर भरते थे.
उस साल उन्होंने वार्ड सभा बुलाकर लोगों के सामने इस आंकड़े को रखा. लोग सजग हुए. सबसे पहले पीएचईडी के अधिकारियों को कसा गया. नल-जल योजना की क्षतिग्रस्त पाइपलाइनों को ठीक किया गया, कनेक्शन बढ़ाए गए. फिर गांव के पुराने कुओं की तलाश की गई, जिन्हें साफ करवाकर उन्हें ग्राउंड वाटर रिचार्ज के लिए इस्तेमाल किए जाने की बात तय हुई. और भी कई योजनाएं बनीं.
आलोक कहते हैं, ''मगर 2024 में बारिश हो गई तो लोग इन बातों को भूल गए. फिर 2025 आ गया. अब संकट 2023 के मुकाबले काफी विकराल है. अभी गांव में मुश्किल से तीन-चार हैंडपंप ही चालू होंगे. सक्षम-संपन्न लोग सबमर्सिबल बोरिंग लगवाने लगे हैं, गांव में तीन-चार लग भी गए हैं. नल-जल योजना भी पूरी दुरुस्त नहीं है, ऐसे में जहां पानी आ रहा, लोग वहां पहुंचकर पानी ला रहे हैं. महिलाएं और बच्चियों का ज्यादातर टाइम इसी काम में लग रहा है. लड़कियां स्कूल और ट्यूशन में लेट हो रही हैं. गांव में ऐसा पहली बार हो रहा है.’’
आलोक का कहना है, ''हम नए सिरे से लोगों को समझाने में जुटे हैं कि रेनवाटर हार्वेस्टिंग के जरिए ग्राउंड वाटर रिचार्ज करना ही इस संकट का स्थायी समाधान है. इसके लिए हम लगातार वार्ड सभा बुलाने की कोशिश कर रहे हैं.’’
मगर क्या यही इकलौता समाधान है? रामशरण अग्रवाल इस बात से बहुत सहमत नजर नहीं आते. वे कहते हैं, ''यह संकट सिर्फ एक इलाके या एक जिले का नहीं, पूरे तराई इलाके का है. हमसे ज्यादा परेशान नेपाल में तराई के लोग हैं. यह साझा संकट है, इसलिए समाधान भी साझा ही होगा.’’ नेपाल में पर्यावरण के मसले पर लगातार लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार चंद्रकिशोर भी इस बात से सहमत नजर आते हैं. वे कहते हैं, ''नेपाल का मधेश इलाका कभी नदियों के मायके के रूप में जाना जाता था.
हमने जल संकट की बात दूर-दूर से ही सुनी थी, अब हम जल संकट को प्रत्यक्ष रूप से देख रहे हैं. यह संकट न सिर्फ खेती को प्रभावित कर रहा है, बल्कि पीने के पानी का भी संकट पिछले दो वर्ष से साफ नजर आ रहा है. इसकी वजह कहीं नदियों पर बन रहे तटबंध और हिमालय के पूरे क्षेत्र में लगातार बढ़ रही विकास की गतिविधियां तो नहीं हैं.’’
वहीं, इस इलाके में जलवायु परिवर्तन की प्रवृत्तियों का अध्ययन और आकलन करने वाले जानकार शशिधर कहते हैं, ''हमने आकलन किया था कि इस पूरे इलाके में तापमान 2040 तक 1.4 से 1.8 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है. इससे पानी की मांग बढ़ेगी, मिट्टी की ऊपरी परत सख्त होगी और पानी का जमीन में रिसाव घटता जाएगा. जाहिर है, इससे भूमिगत जल की क्षमता प्रभावित होगी.’’
शशिधर का कहना है कि इसके साथ-साथ उत्तरी बिहार के अलग-अलग जिलों में बारिश में 10 से 40 फीसद तक गिरावट आएगी. वे बताते हैं, ''बारिश का पैटर्न भी बदलेगा, अब रिमझिम की जगह तेज बारिश होगी, इससे बाढ़ तो आएगी मगर वह पानी भूजल की क्षमता को नहीं बढ़ाएगा, सारा पानी बहकर निकल जाएगा. यह सब अब होता नजर रहा है.
मॉनसून में भी उत्तर बिहार जल संकट का सामना कर रहा है. यह समस्या अगले दो-तीन साल में और बढ़ने वाली है.’’ इसका समाधान क्या है, यह पूछने पर वे कहते हैं, ''आसान-सा समाधान है. जल का संयमित इस्तेमाल करें और भूजल रिसाव के लायक फ्लोर बनाएं.’’
मगर अग्रवाल इस पूरे संकट को अलग नजरिए से देखते हैं और अलग समाधान बताते हैं. वे कहते हैं, ''इस इलाके की छोटी नदियों को समुद्र की पुत्री कहा गया है, हिमालय पुत्री नहीं कहा गया. क्यों? क्योंकि ये नदियां समुद्र से आने वाली बारिश से अपना जीवन पाती हैं और इन नदियों ने इस इलाके को अब तक जल संपन्न बनाए रखा है. कभी सूखा भी पड़ा तो दिक्कत नहीं हुई क्योंकि हमारे इलाके में तालाब भी बड़ी संख्या में थे, वे ऐसे संकटों से हमें उबार लेते थे. मगर हमने जब प्रकृति के साथ नूराकुश्ती खेलनी शुरू की तो यह सब भूल गए. तभी यह संकट आया है.’’
वे समाधान सुझाते हैं कि अगर इस इलाके में फिर से जल चाहिए तो छोटी नदियों के किनारे तालाब बनाकर जल संरक्षण करना होगा. वे कहते हैं कि यह क्षेत्र तालाबों का रहा है. उनके मुताबिक, ''जल संकट की स्थिति सीमा के इस पार भी है, नेपाल में भी है.
इसलिए नेपाल में भी प्रयास करने होंगे, वहां वृक्षारोपण के जरिए नदी के क्षरण को रोकना होगा. इससे वाटर रिचार्ज बेहतर होगा. इसके अलावा, दोनों देशों में विकास के नाम पर जो पक्कीकरण हो रहा है, उसे भी रोकना होगा. वह भी वाटर रिचार्ज की दिशा में बाधा खड़ी करता है.’’ जाहिर है, जल संकट से जूझते तराई इलाके को बेहद ठोस उपायों और व्यापक कार्रवाई की जरूरत है.