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हिंदू धर्म क्यों छोड़ना चाहता है झारखंड का यह OBC समुदाय?

जनगणना से पहले झारखंड में कुड़मी समुदाय ने खुद को आदिवासी श्रेणी में रखे जाने की मांग शुरू कर दी है, लेकिन विशेषज्ञ मजबूत तर्कों के साथ उनके दावे नकार रहे हैं

धनबाद के पास कुड़मी समुदाय के लोग जिहुड़ पर्व मनाते हुए.
अपडेटेड 21 अगस्त , 2025

राजधानी रांची से 140 किलोमीटर दूर धनबाद जिले के निचितपुर गांव के संजय महतो की मां शोभनी देवी का 10 जुलाई को देहांत हो गया. श्राद्धकर्म के लिए उन्होंने अपनी जाति के पाहन यानी धार्मिक अनुष्ठान कराने वाले बीरू महतो कड़ुआर को बुलाया.

इससे पहले 2016 में दादा की मृत्यु के बाद पूर्व की परंपराओं के अनुसार ब्राह्मण को बुलाकर श्राद्धकर्म करवाया था. बीरू के दावों के मुताबिक, केवल झारखंड में उनके जैसे 3,000 से ज्यादा 'पाहन' प्रशिक्षण लेकर अपने समाज में धार्मिक कार्य करा रहे हैं.

गांव के मुखिया महादेव कड़ुआर के घर में बने तुलसी चौरा पर लगी भगवान की तस्वीरों को हटा दिया गया है. इसी गांव की पारो महताइन, सुनीता महताइन, आरती महताइन जैसी सैकड़ों महिलाओं ने छठ, मंदिर में पूजा आदि को छोड़ दिया है. ये महिलाएं पहले अपने नाम के आगे देवी इस्तेमाल करती थीं, अब महताइन लिखती हैं. दरअसल, झारखंड में ओबीसी कैटेगरी में शामिल कुड़मी समुदाय के लोग खुद को हिंदू धर्म से अलग कर रहे हैं. वे खुद को आदिवासी मान रहे हैं.

ऐसा केवल धनबाद के एक गांव में नहीं चल रहा, बल्कि रांची, रामगढ़, धनबाद, बोकारो, सरायकेला-खरसांवा, गिरिडीह, चतरा, कोडरमा, गोड्डा जैसे जिलों में रह रहे कुड़मी जाति के कुल 81 गोत्र के लोग हिंदू धर्म के रीति-रिवाज छोड़ रहे हैं. इसके लिए गांव-गांव में अभियान चलाया जा रहा है. समुदाय के लोग घरों से हिंदू देवी-देवताओं की तस्वीर, झंडे आदि हटा रहे हैं. किसी के मरने के बाद होने वाले कर्मकांड में पूर्व में अपनाई गई हिंदू पद्धति यानी श्राद्ध-कर्म को छोड़ रहे हैं. इस समुदाय के लोगों की संख्या अच्छी-खासी है. 2011 की जनगणना के मुताबिक, प्रदेश की आबादी 3.3 करोड़ है. अनुमान है कि इसमें लगभग 16 फीसद कुड़मी जाति के लोग हैं. फिलहाल इन्हें राज्य में ओबीसी का दर्जा मिला हुआ है.

निचितपुर गांव के रामप्रसाद महतो कडुआर का मानना है कि उनके समुदाय का जिक्र किसी भी हिंदू धर्मग्रंथ में नहीं है. आजादी से पहले 1931 में हुई जनगणना में इस समुदाय को आदिम जनजाति कैटेगरी में रखा गया था. लेकिन 1951 की जनगणना में इन्हें किसी कैटेगरी में नहीं रखा गया. रामप्रसाद कहते हैं, ''हम जनजाति में शामिल होने के लिए अभियान चला रहे हैं.''

राजू महतो केटियार विनोद बिहारी महतो हाइस्कूल में इतिहास और नागरिक शास्त्र पढ़ाते हैं. उनके मुताबिक, ''इससे हमें असली धार्मिक पहचान तो मिलेगी ही, एसटी को मिलने वाले आरक्षण का लाभ भी समाज को मिलेगा.'' राज्य में आदिवासियों के लिए 28 फीसद और ओबीसी के लिए 14 फीसद आरक्षण है. वे कहते हैं, ''हम बारह मास, तेरह परब मनाने वाले लोग हैं. सांस्कृतिक, सामजिक तौर पर प्रकृति पूजक हैं इसलिए गांव-गांव में जुड़वाही (जनसभा) कर लोगों को जड़ों की तरफ लौटा रहे हैं.''

धनबाद की कुरुंबा पंचायत समिति के सदस्य कुलदीप कुमार का कहना है कि झारखंड का कुड़मी समुदाय सालों से केंद्र सरकार से खुद को एसटी का दर्जा देने की मांग कर रहा है. लेकिन इसे स्वीकार नहीं किया जा रहा. देश में जनगणना कार्यक्रम की घोषणा को ध्यान में रखकर यह मुहिम चलाई जा रही है. बता दें कि देशभर के कुल 233 समुदाय केंद्र सरकार से खुद को एसटी का दर्जा देने की मांग कर रहे हैं. इसमें सबसे आगे ओडिशा है जहां 169 जातियों को एसटी में शामिल करने की मांग हो रही है.

आदिवासी कुड़मी समाज के केंद्रीय महासिचव सुनील कुलियार कुड़मियों के दावों के संवैधानिक पक्ष की ओर इशारा करते हैं. उनके शब्दों में, ''सन् 1911 और 1921 की जनगणना में आदिवासियों के लिए एबोरिजनल शब्द का इस्तेमाल किया जाता था. कुड़मी इसमें शामिल थे. 1931 में जनगणना के समय एबोरिजनल शब्द को हटाकर प्रिमिटिव ट्राइब शब्द लिखा गया. इसमें भी कुड़मियों को रखा गया था.'' वे कहते हैं, ''1951 की जनगणना हुई तो इसमें हमें बाहर नहीं किया गया, बल्कि छोड़ दिया गया. 5 नवंबर, 1955 के सीएनटी ऐक्ट-1908 से एबोरिजनल शब्द हटाकर अनुसूचित जनजाति शब्द लाया गया और यहां हमें इस जनजाति से बाहर कर दिया गया.''

क्या आदिवासी बर्दाश्त करेंगे?
झारखंड यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष और इतिहास के प्रोफेसर डॉ. जगदीश लोहरा कहते हैं, ''महतो समाज के लोग खुद को शिवाजी का वंशज बताते आ रहे हैं. उनको अचानक क्यों लग रहा है कि वे आदिवासी हैं? आदिवासियों से मिलती संस्कृति के आधार पर ही क्या किसी समुदाय को आदिवासी मान लेना चाहिए?''

मानवाधिकार कार्यकर्ता ग्लैडसन डुंगडुंग का मानना है कि यह आदिवासियों की आर्थिक और राजनैतिक हिस्सेदारी में सेंधमारी का प्रयास है. वे कहते हैं, ''इसका लिटमस टेस्ट हो चुका है. कुछ मुसलमानों और महतो समुदाय के लोगों ने आदिवासी महिलाओं से शादी की, पत्नी को पंचायत चुनाव लड़वाया और जीत गए. यही नहीं, पेसा ऐक्ट लागू हुआ तो आदिवासियों को राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक तौर पर ज्यादा अधिकार मिलेगा. महतो उससे बाहर नहीं रहना चाहते. महतो समुदाय आर्थिक तौर पर कहीं ज्यादा संपन्न है. एसटी का दर्जा मिलते ही वे आदिवासियों की जमीन कानूनी तौर पर खरीद सकेंगे. हालांकि अभी गैर-कानूनी तरीके से राज्यभर में गैर-आदिवासी ऐसा कर रहे हैं.''

निचितपुर गांव में ममता सहित कई लोगों ने तुलसी चौरा से तुलसी और देवताओं के प्रतीक चिन्ह हटा दिए हैं

वे कुछ डीएनए आधारित रिपोर्टों का हवाला देते हैं मसलन 'दि जिनोमिक फॉर्मेशन ऑफ साउथ ऐंड सेंट्रल एशिया, ऐन एनशिएंट हड़प्पा जेनोम लैक्स एनसेस्टरी फ्रॉम स्टेपी पस्टोरलिस्टस' और '50,000 ईयर्स ऑफ एवॉल्यूशनरी हिस्ट्री ऑफ इंडिया: इनसाइट्स फ्रॉम- 2700 होल जेनोम सीक्वेंसेज'. इनके आधार पर वे कहते हैं, ''कुड़मी महतो जाति शुद्ध रूप से कृषक जाति है न कि आदिवासी समुदाय. इनके अंदर 'हंटरर्स ऐंड गैदरर्स' यानी शिकारी और संग्रहकर्ता का कोई लक्षण नहीं पाया जाता. इनकी भाषा कुरमाली भी इंडो-आर्यन भाषा समूह की है जबकि झारखंड के आदिवासियों की भाषाएं अस्ट्रोएशियाटिक या द्रविड़ियन भाषा समूह से हैं. स्पष्ट है कि कुड़मी आदिवासी नहीं हैं.''

विश्व हिंदू परिषद के प्रदेश अध्यक्ष चंद्रकांत रायपत पूजा-पाठ छोड़ने को एक फौरी घटनाक्रम मानते हैं. वे कहते हैं, ''महतो हों या आदिवासी समुदाय के लोग, हम उन्हें हिंदू धर्म से अलग मानते ही नहीं. वे हमारे ही हैं, इसमें कोई शंका नहीं. जहां तक बात सरना धर्मकोड की है, वह राजनैतिक मुद्दा है.'' बता दें, राज्य के आदिवासी अपने लिए अलग धर्म (सरना धर्मकोड) की मांग कर रहे हैं. इसके लिए हेमंत सोरेन सरकार ने बिल पास कर केंद्र के पास अनुरोध भेजा है.

प्रयोग आदिवासियों से क्यों?
आदिवासियों का धर्मांतरण कई धर्मों में हो रहा है. वे अपने लिए अलग धर्मकोड की मांग कर रहे हैं. आदिवासियों का एक धड़ा कहता है कि जो आदिवासी ईसाई बन गए हैं, उनसे एसटी का दर्जा छीना जाए. आरएसएस का मानना है कि सभी आदिवासी हिंदू हैं. आखिर इतने योग-प्रयोग आदिवासियों के साथ ही क्यों? 

प्रसिद्ध समाजशास्त्री और यूपीए-टू के समय राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य रहे प्रोफेसर वर्जीनियस खाखा कहते हैं, ''औपनिवेशिक और उससे भी पहले के समय में जो आदिवासी स्टेट के संपर्क में आए वे उनसे जुड़ने लगे. खुद को उनकी तरह ढालने लगे, ताकि उन्हें जंगली या आदिवासी न कहा जाए. उनका हिंदूकरण होने लगा. आजादी के बाद इनको उसी आधार पर हिंदू माना गया और ओबीसी का दर्जा दिया गया. हो सकता है, अब उन्हें लग रहा हो कि हिंदूकरण होने के बाद उन्हें कोई खास फायदा मिला नहीं.'' वे यह भी जोड़ते हैं, ''पर सवाल है कि वे शेड्यूल कास्ट (अनुसूचित जाति) क्यों नहीं बनना चाहते? ट्राइब ही क्यों बनना चाहते हैं? शेड्यूल कास्ट में छुआछूत का दाग है, ट्राइबल में यह सब नहीं होता. या हो सकता है ये शेड्यूल कास्ट से ज्यादा कंपीट नहीं कर पाएंगे. ट्राइबल धर्म के आधार पर नहीं हैं, भाषा और कस्टम के आधार पर हैं.''

समाजशास्त्री वर्जीनियस खाखा ने इस मामले पर कहा, "सवाल यह है कि वे शेड्यूल कास्ट (अनुसूचित जाति) क्यों नहीं बनना चाहते? अनुसूचित जनजाति ही क्यों बनना चाहते हैं? अनुसूचित जाति में छुआछूत का स्टिगमा है, ट्राइबल में यह सब नहीं होता."

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