
पश्चिम बंगाल के साथ-साथ बांग्लादेश और नेपाल की सीमा से सटा बिहार का किशनगंज जिला भी राज्य के बाकी हिस्सों की तरह इन दिनों मतदाता विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआइआर) अभियान में जोर-शोर से जुटा हुआ है. मगर इस गहमागहमी के बीच सीमांचल के इस इलाके की सियासी फिजा में एक और मुद्दा उमड़ रहा है. वह है कथित बांग्लादेशी घुसपैठ का.
यहां के भाजपा के पूर्व जिलाध्यक्ष अभिनव मोदी बांग्लादेशी घुसपैठियों के खिलाफ लंबे समय से अभियान चला रहे हैं. किशनगंज में कारोबारियों की एक कॉलोनी में वे मिलते ही इसको लेकर फूट पड़ते हैं, ''सीमांचल में जो बांग्लादेशी घुसपैठ है, उसका मामला पेपर वेरीफिकेशन से तो सुलझेगा नहीं क्योंकि इन घुसपैठियों ने लंबे समय से कागज जुटाने का ही काम किया है.’’
उनकी मानें तो, ''यहां का बच्चा-बच्चा जानता है कि बांग्लादेशी घुसपैठिया कौन है. वे अपनी भाषा, वेशभूषा और घर बनाने के तरीके से ही पहचान में आ जाते हैं. उन्होंने अपने समुदाय का नाम शेरशाहबादी रख लिया है और इसी नाम से उन्हें ईबीसी आरक्षण भी मिला है, जाति प्रमाणपत्र भी बनता है. यहां जो खुद को शेरशाहबादी कहते हैं, वे सौ फीसद बांग्लादेशी घुसपैठिए हैं.’’
मगर भाजपा के ही एक अन्य नेता और कोचाधामन विधानसभा से पार्टी के टिकट पर दो बार चुनाव लड़ चुके अब्दुर रहमान की राय बिल्कुल अलग है. रहमान कहते हैं, ''किसी ने 40-50 साल पहले घुसपैठ कर ली हो तो अलग बात है मगर जब से हमने होश संभाला है, हमें पता नहीं इस इलाके में कोई घुसपैठ हुई है.’’ वे खुद शेरशाहबादी बिरादरी से हैं और किशनगंज जिले में शेरशाहबादी संगठन के सचिव भी हैं.
उनके मुताबिक, ''घुसपैठ यहां कोई समस्या नहीं है. हमारी पार्टी भाजपा के जो लोग ऐसा कहते हैं, वे सचाई से दूर हैं या फिर सियासी फायदे के लिए इस मुद्दे को उठाते हैं. यहां के झूठ से हो सकता है पार्टी को देश के दूसरे इलाकों में फायदा होता हो, इसलिए हम लोग चुप रह जाते हैं. मगर हमारा मानना है कि किसी को घुसपैठिया या बांग्लादेशी कहकर देश की तरक्की को न रोका जाए. हम लोग शेरशाहबादी हैं, इसी देश के रहने वाले हैं.’’

इन दिनों बिहार में जारी मतदाता पुनरीक्षण अभियान के दौरान चर्चा में आए बांग्लादेशी घुसपैठ के अंतर्द्वंद्व को सीमांचल में सत्ताधारी भाजपा के ही इन दो नेताओं की टिप्पणियों से बखूबी समझा जा सकता है. भाजपा बार-बार कह रही कि पुनरीक्षण अभियान का विरोध करने वाले लोग बांग्लादेशी घुसपैठियों को वोटर बनाए रखने के पक्षधर हैं. ऐसे में बिहार में बांग्लादेशी घुसपैठ का गढ़ कहे जाने वाले सीमांचल में इंडिया टुडे ने मौके पर जाकर इसकी पड़ताल की.
देश और राज्य के अन्य इलाकों में जहां बांग्लादेशी घुसपैठिया एक अस्पष्ट चेहरा है, सीमांचल में घुसते ही इसकी पहचान साफ बताई जाने लगती है. घुसपैठ की बात पर विश्वास करने वालों के लिए घुसपैठियों का एक ही मतलब है: शेरशाहबादी समुदाय. इन्हें भटिया, बधिया और मलदहिया जैसे नामों से भी पुकारा जाता है. मगर शेरशाहबादी समुदाय के लोग उन संबोधनों को अपमानजनक मानते हैं.
इसी वजह से अपने दौर के विधायक मुबारक हुसैन जैसे नेता की अगुआई में 1983 में इस बिरादरी के लोगों ने खुद को शेरशाह सूरी का सिपाही बताते हुए अपना नाम शेरशाहबादी रखा और इसी नाम से एक संगठन भी बनाया. इन लोगों ने संघर्ष करके अपने समुदाय को 1999 में अति पिछड़ों की सूची में भी दर्ज कराया. समुदाय के लोगों ने आर्थिक, शैक्षणिक और राजनैतिक तरक्की भी की है. मगर ये अपने नाम से बांग्लादेशी घुसपैठिया होने का ठप्पा मिटा नहीं पा रहे.
रहमान बताते हैं, ''2014 में जब मुझे पहली बार भाजपा से विधानसभा चुनाव का टिकट मिला तो उसके दावेदार एक मुसलमान नेता ने ही यह हल्ला मचाना शुरू कर दिया कि बांग्लादेशी घुसपैठिए को टिकट दे दिया. वह बात मेरे दिल पर लगी. तब मैं इसकी सचाई पता करने खुद बांग्लादेश के राजशाही जिले में गया, जहां हमारी बिरादरी के लोग रहते हैं. वहां पता चला कि बांग्लादेश में इस बिरादरी को मलदहिया यानी हमारे देश के मालदा से आया हुआ बताते हैं. हमारे पुरखे भी मालदा के कुमीदपुर से किशनगंज आए थे.’’
रहमान ही नहीं, सीमांचल में जितने भी शेरशाहबादी हैं, वे खुद को मालदा-मुर्शिदाबाद का ही मूल बाशिंदा बताते हैं. उनके विरोधी इस तर्क पर भरोसा नहीं करते. किशनगंज में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े एक बड़े नेता कहते हैं, ''दरअसल मालदा-मुर्शिदाबाद इनका गढ़ रहा है. इन्हें भारत लाने वाले ठेकेदार वहीं सक्रिय हैं, वहीं से इनका आधार वगैरह बनता है.’’
राज्य में 2023 में कराई गई जाति आधारित गणना के मुताबिक, शेरशाहबादी समुदाय की कुल आबादी 13 लाख से थोड़ी ज्यादा है. इसे राज्य की कुल आबादी का 0.99 फीसद बताया गया है. राज्य में इसकी सबसे बड़ी आबादी कटिहार जिले के अमदाबाद, मनिहारी, प्राणपुर और बरारी प्रखंडों में है. इसके बाद किशनगंज जिले के किशनगंज, ठाकुरगंज और दिघलबैंक प्रखंडों में ये सघन रूप से बसे हैं. इनकी आबादी पूर्णिया, अररिया और सुपौल जिले में छिटपुट है, तो कुछ लोग बेहतर मौके की तलाश में दूसरे जिलों में भी बस गए हैं.
वैसे, किशनगंज का जिला प्रशासन इस मसले को लेकर बहुत चिंतित नजर नहीं आता. इंडिया टुडे से बातचीत में इसके डीएम विशाल राज कहते हैं, ''विदेशी वोटरों की पहचान की प्रक्रिया में अभी काफी समय है. अभी बीएलओ स्तर पर काम चल रहा है. वोटरों से फॉर्म लिया जा रहा है.

सारे फॉर्म आ जाएं तो उनकी स्क्रुटनी होगी. फिर उन वोटरों को सही दस्तावेज जमा करने का मौका दिया जाएगा. उसके बाद की प्रक्रियाओं में अवैध विदेशी वोटरों की पहचान होगी.’’ उनका यह बयान हाल में मीडिया में प्रसारित उन खबरों से उलट है, जिसमें कहा गया था कि मतदाता पुनरीक्षण अभियान के दौरान बड़ी संख्या में बांग्लादेशी, नेपाली और म्यांमार के अवैध मतदाता मिले हैं.
इससे पहले 2021 में पटना हाइकोर्ट ने बिहार सरकार से सीमावर्ती जिलों में अवैध प्रवासियों की पहचान करने का निर्देश दिया था. किशनगंज के तत्कालीन डीएम आदित्य प्रकाश ने अपने अधिकारियों के नाम से इस बाबत आदेश जारी किया. किशनगंज डीएम विशाल राज इस मसले से अनभिज्ञता जाहिर करते हुए कहते हैं, ''ऐसे आदेश अक्सर आते हैं, अभी तो मतदाता पुनरीक्षण का अभियान चल रहा है, वह भी इसी प्रक्रिया का हिस्सा है.’’
मगर आलोचकों का मानना है कि प्रशासन कभी इस मसले को लेकर गंभीर नहीं हुआ. अभिनव कहते हैं, ''अगर प्रशासन सक्रिय रहता तो ऐसी नौबत न आती. 1986 से ही हम लोग इसके खिलाफ अभियान चला रहे हैं. तब दिवंगत सुशील कुमार मोदी और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के तत्कालीन नेताओं की अगुआई में इस इलाके का सर्वे कराया गया था.
यहां कुल 46,000 बांग्लादेशी घुसपैठिए मिले थे. तब कार्रवाई करना आसान था. फिर तस्लीमुद्दीन और मुन्ना मुश्ताक जैसे नेता इन्हें संरक्षण देने लगे. इन्हें आरक्षण की श्रेणी में लाया गया. अब तो वे काफी मजबूत हो गए हैं.’’ वैसे, वे यह भी कहते हैं, ''बांग्लादेश की सीमा पर फेंसिंग के बाद से घुसपैठ थोड़ी नियंत्रित हुई है.’’
एबीवीपी ने इस इलाके में 2009 तक बांग्लादेशी घुसपैठ के खिलाफ जोरदार अभियान चलाया. फिर वह ठंडा पड़ने लगा. अभिनव के मुताबिक, ''एक वक्त तो ऐसी स्थिति आई कि हमारी पार्टी ने सोचा कि क्यों न शेरशाहबादियों को ही अपने साथ लाकर देखा जाए. इसी कोशिश में अब्दुर रहमान जैसे नेताओं को टिकट दिया गया. वह योजना बहुत सफल नहीं हुई. ये न भाजपा के साथ आने थे, न आए.’’
किशनगंज शहर से बांग्लादेश की सीमा महज 22 किमी दूर है. वैसे, वह सीमाई इलाका बंगाल में पड़ता है और उत्तरी दीनाजपुर जिले का हिस्सा है. मगर जानकारों का दावा है कि यहां बांग्लादेशी घुसपैठिए उसी रास्ते से आते रहे हैं. इसे देखने के लिए कोकराधा सीमा पहुंचने पर पता चला कि बाड़ लगी हुई थी और वहां मौजूद बीएसएफ के जवान के सामने चार-पांच किसान बैठे थे.
कोकराधा इलाके के उन किसानों की जमीन बाड़ के उस पार और नो मेंस लैंड के पहले है. जवान बताते हैं कि बाड़ और नो मेंस लैंड के बीच कहीं 200 तो कहीं 500 मीटर तक का फर्क है. वहां जिनके खेत हैं उन्हें आधार और वोटर आइडी जैसे पहचान पत्र लेकर दिन के वक्त खेती करने की मंजूरी दी जाती है. शाम को वे लौट जाते हैं. बाड़ के उस पार बस्तियां भी हैं, जहां लोग रहते हैं. उन्हें बीएसएफ के पहरे में रहना और आना-जाना पड़ता है.
सीमा से आधा किमी दूर कोकराधा बाजार में चाय की एक दुकान पर मिले कुछ लोगों ने बताया कि 1993 में इस इलाके में बाड़ लगनी शुरू हुई. लगने के बाद चोरी-डकैती बंद हो गई. ग्वालिन गांव के मोहम्मद इसहाक बताते हैं, ''पहले बांग्लादेश से रात में खूब चोर आते थे और गोरू (मवेशी) लेकर चले जाते थे.’’
बाड़ लगाने में मजदूरी कर चुके 70 वर्षीय सुल्तान आलम बताते हैं, ''हमने तो वह जमाना भी देखा है जब बांग्लादेश नहीं बना था.
उधर पाकिस्तान था. तब बॉर्डर पर रोक-टोक बिल्कुल नहीं थी. फिर 1971 में बांग्लादेश युद्ध शुरू हुआ, मार-काट मची. घायल और परेशान लोग इधर आते. उसमें हिंदू भी होते, मुसलमान भी. हम लोग रातभर रखते और फिर कहते कि आगे चले जाओ. आगे मतलब किशनगंज की ओर. लोगों के आने का सिलसिला चालू रहा, जब तक तारबंदी (फेंसिंग) न हो गई.’’
उधर से आने वाले लोग क्या शेरशाहबादी थे? इस पर सुल्तान कहते हैं, ''शेरशाहबादी तो हम लोग भी हैं. दोनों तरफ के लोग एक ही बिरादरी के हैं. बस नदी के इस पार और उस पार का फर्क है. सबका असली ठिकाना तो एक ही है. मालदा-मुर्शिदाबाद वहीं है. हम लोग इधर आए, वे लोग राजशाही चले गए. पहले जो आते थे, उसमें भी शेरशाहबादी होंगे. अब तो कोई नहीं आता.’’ मगर अभिनव की राय में, ''अब उन लोगों ने नया रास्ता चुन लिया है. वे अब नेपाल के रास्ते आते हैं. वे नेपाल में भी बस्तियां बनाने लगे हैं.’’
वैसे, मतदाता पुनरीक्षण अभियान को लेकर शेरशाहबादी बिरादरी थोड़ी निश्चिंत नजर आती है. ठाकुरगंज प्रखंड के खड़गा पंचायत में मिले पूर्व पंचायत समिति सदस्य और शेरशाहबादी मोहम्मद अशराफुल हक कहते हैं, ''हमारे यहां ज्यादातर लोगों ने पेपर जमा कर दिया है.
जिनके पास कागजात नहीं थे उनका नए सिरे से आवास प्रमाणपत्र और वंशावली बनवाकर जमा कराया गया. कुछ गरीब लोग बच गए हैं.’’ चुरली पंचायत की उप मुखिया के पति मोहम्मद यासीन कहते हैं, ''बीएलओ बिना कागजात के भी आवेदन ले रहा था. पर हमने बिरादरी में कह दिया कि बिना कागज के आवेदन नहीं देना है. आगे दिक्कत हो सकती है. सभी लोग दस्तावेज लगाकर ही फॉर्म जमा कर रहे हैं.’’
इसकी झलक चुरली पंचायत के डांगी बाड़ी गांव में मिलती है, जहां मतदाता पुनरीक्षण का काम कर रहे बीएलओ रंजीत दास कहते हैं, ''हमारे इलाके के लगभग सभी हिंदुओं ने फॉर्म जमा कर दिया, मगर शेरशाहबादी फॉर्म जमा नहीं कर रहे. वे कह रहे हैं, कागज बनेगा तभी जमा करेंगे. ज्यादातर लोगों ने आवास प्रमाण पत्र के लिए आवेदन दे रखा है.’’
किशनगंज में लोगों ने बड़ी संख्या में आवास प्रमाणपत्र की अर्जी दे रखी है. बीते दिनों यहां के डीएम ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि सिर्फ छह दिनों में 1.27 लाख ऐसे आवेदन आए. उन्होंने नया आदेश जारी करते हुए कहा कि अब स्थल निरीक्षण के बाद ही आवास प्रमाणपत्र बनेगा. इतने आवेदनों पर डिप्टी सीएम सम्राट चौधरी कहते हैं, ''यह आंकड़ा साफ संकेत है कि किशनगंज में घुसपैठिए मौजूद हैं.’’
मगर रहमान कहते हैं, ''हमारा काम अपने दस्तावेजों को दुरुस्त रखना है. मुसलमानों को मोदी सरकार का एहसानमंद होना चाहिए कि उसने हमें दस्तावेज दुरुस्त रखने के लिए जागरूक कर दिया.’’ उनका इशारा एनआरसी की आशंकाओं की ओर है. बालूबाड़ी गांव के मोहम्मद शाहिद कहते हैं, ''मीडिया में खबरें आ रही हैं कि शेरशाहबादी लोग गलत आधार कार्ड बनवा रहे हैं. अगर मेरे गांव में एक भी आधार कार्ड गलत निकल गया तो हम आरोप लगाने वाले की गुलामी करने के लिए तैयार हैं. यहां न कोई घुसपैठिया है, न कोई गलत आधार.’’
इस बीच सशस्त्र सीमा बल (एस.एस.बी.) ने 16 जुलाई को जारी एक आंकड़े में बताया है कि पिछले साल भर में नेपाल से बिहार की सीमा में घुसपैठ करते हुए 14 विदेशी नागरिक पकड़े गए. इनमें आठ चीनी, तीन बांग्लादेशी और 1-1 कनाडा, यूक्रेन और सेनेगल के थे.
किशनगंज के मारवाड़ी कॉलेज के प्रोफेसर सजल प्रसाद इसमें एक और पहलू जोड़ते हैं. उनका कहना है कि यह सुरजापुरी परगना का इलाका है और सुरजापुरी बोलने वाले यहां के असली बाशिंदे हैं. मगर यहां बांग्ला बोलने वाले भी हैं, जिनमें हिंदू-मुसलमान दोनों हैं. उनकी राय में, ''घुसपैठ यहां आज का नहीं तीन दशक से ज्यादा पुराना विवाद है. शेरशाहबादियों का दूसरा पक्ष यह है कि वे मेहनतकश हैं, उन्होंने यहां की खेती को तीन फसली बनाया.
मजदूर के रूप में भी उन्हें अहमियत दी जाती है. उन्होंने अपना एक मुकाम बना लिया है. सरकार ने उन्हें आरक्षण का लाभ दिया. भाजपा ने तो उनके एक नेता को प्रत्याशी तक बनाया. ऐसे में तो यही लगता है कि उनकी सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक स्वीकार्यता लगातार बढ़ रही है. फिर भी उनको लेकर विवाद है तो सरकार ही इसकी जांच कराकर कोई फैसला ले सकती है.’’ जाहिर है, चुनावी दस्तक के साथ इसको लेकर राज्य का पारा गरम रहने का अंदेशा है.
किशनगंज के डीएम विशाल राज बताते हैं कि विदेशी वोटरों की पहचान की प्रक्रिया में अभी काफी समय है. वोटरों से सारे फॉर्म आ जाने पर स्क्रुटनी होगी. उसके बाद ही अवैध विदेशी वोटरों की पहचान होगी.