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बिहार: विधानसभा चुनाव से पहले क्यों शुरू हुई नागरिकता साबित करने की अग्निपरीक्षा?

बिहार में विधानसभा चुनावों से महज 4-5 महीने पहले चुनाव आयोग ने हड़बड़ी में वोटरों की जांच-पड़ताल के लिए अभियान शुरू कर दिया है, जिसको लेकर विवाद हो रहा है.

Special report: Bihar
5 जुलाई को भोजपुर के संदेश में वोटरों से फॉर्म लेता बीएलओ

छह जुलाई की सुबह 8.30 बजे का वक्त. वैसे तो यह रविवार की अलसाई-सी सुबह होनी चाहिए थी, वह वक्त जब ग्रामीण बिहार केतलियों की खदबदाहट और सुबह के कामों की हलचल से जाग उठता है. मगर पटना जिले के ग्रामीण इलाके में बसे दानापुर के बलदेव हाइस्कूल के कॉन्फ्रेंस रूम में माहौल गहमागहमी और उत्सुकता से भरा और सतर्क है.

करीब 50 मतदाता अंदर और उतने ही बाहर अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं, जिनमें बड़ी संख्या में ग्रामीण पृष्ठभूमि की साधारण और संकोची महिलाएं हैं. सभी आधार कार्ड और कुछ अपने पति के मतदाता पहचान पत्र मुट्ठियों में लिए कतार में खड़ी हैं. उनके चेहरों पर ऊहापोह और चौकन्नी उम्मीद के मिले-जुले भाव हैं.

एक गोलमेज के इर्द-गिर्द पांच बूथ लेवल अफसर (बीएलओ) कम से कम एक सहायक के साथ फॉर्मों की सावधानी से जांच, दस्तावेजों की पड़ताल और मतदाता सूचियों से मिलान कर रहे हैं. दो सुपरवाइजर घूम-घूमकर नजर रख रहे हैं. बीएलओ काम दोपहर 12.30 बजे तक खत्म करते ही फिर सड़क पर निकल पड़ेंगे और पटना जिले के गांवों में घर-घर जाकर सत्यापन करेंगे.

मोटे-मोटे रजिस्टर और फॉर्म से लैस ऐसे करीब 1,00,000 बीएलओ एक असाधारण मिशन पर निकले हैं—25 जून से महज 31 दिनों के भीतर बिहार के 7.9 करोड़ मतदाताओं में से हरेक की नागरिकता साबित करने वाले दस्तावेजों का सत्यापन करना. एक दिन पहले चुनाव आयोग (ईसीआइ) ने वह अभियान शुरू किया जिसे उसने मतदाता सूचियों का विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआइआर) कहा. इससे देखते ही देखते राजनैतिक तूफान खड़ा हो गया जो जल्द ही देश की लोकतांत्रिक मशीनरी को अपनी चपेट में ले सकता है.

चुनाव आयोग ने संवैधानिक शक्ति से अपने फैसले का बचाव किया. मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) ज्ञानेश कुमार ने अनुच्छेद 326 का हवाला दिया, जिसके तहत सिर्फ 18 वर्ष से ऊपर के भारतीय नागरिक ही मतदान कर सकते है, और दोषमुक्त मतदाता सूचियां के रखरखाव से जुड़े आयोग के कर्तव्य की याद दिलाता है. उन्होंने जोर देकर कहा कि समय राजनीति की बजाय जरूरत से प्रेरित था.

इससे पहले के चार महीनों में चुनाव आयोग ने देश भर में राजनैतिक दलों के 28,000 प्रतिनिधियों के साथ करीब 5,000 बैठकें की थीं. कुमार ने कहा, ''मतदाता सूचियों की मौजूदा स्थिति से किसी न किसी कारणवश कोई भी संतुष्ट नहीं था.  चुनाव आयोग की 24 जून की अधिसूचना ने इसके औचित्य भी बताए—तेज शहरीकरण, बड़े पैमाने पर होने वाला माइग्रेशन, युवा नागरिकों का मतदान के योग्य होना, मौतों की सूचना न मिलना, और बेहद अहम यह कि ''अवैध विदेशी प्रवासियों’’ के नाम शामिल होना.

एसआइआर को समझने के लिए देश की मतदाता सूची के रखरखाव की जटिल प्रणाली को समझना जरूरी है. 1960 के मतदाता पंजीकरण नियमों में तीन प्राथमिक तरीके बताए गए हैं—गहन पुनरीक्षण, संक्षिप्त पुनरीक्षण और आंशिक गहन पुनरीक्षण. चौथे प्रकार—विशेष संक्षिप्त पुनरीक्षण—में राज्य के भीतर विशेष समस्या वाले इलाकों पर ध्यान दिया जाता है (देखें: मतदाता सूची की साफ-सफाई).

बिहार क्यों है अलग

यह पहली बार नहीं है जब चुनाव आयोग ने राज्य भर की मतदाता सूचियों के ''गहन’’ पुनरीक्षण का आदेश दिया है. 1952 से 2004 के बीच ऐसे कम से कम नौ पुनरीक्षण किए गए, जिनमें से कई में इसी तरह घर-घर जाकर मतदाता सूचियों का सत्यापन किया गया और कुछ मामलों में तो बिल्कुल ''नए सिरे से’’ मतदाता सूचियां तैयार की गईं.

लेकिन बिहार की यह कवायद अपने मिले-जुले स्वरूप और बेहद छोटी अवधि के चलते अलग है. इसके अलावा चुनाव आयोग ने किसी राज्य में विधानसभा चुनाव से महज चार-पांच महीने पहले पूर्ण गहन पुनरीक्षण का आदेश शायद ही कभी दिया है.

पूर्व सीईसी एस.वाइ. कुरैशी कहते हैं, ''मतदाता सूचियों को अपडेट करना जरूरी है लेकिन बिहार सरीखे बाढ़ की संभावना से घिरे और बड़े पैमाने पर माइग्रेशन वाले राज्य में चुनाव से महज चार महीने पहले ऐसा करना मुसीबतों को दावत देना है. मुद्दा वैधता नहीं है. मुद्दा इसके व्यावहारिक और वांछनीय होने और इससे जुड़ी सियासी कवायद का है.’’

मतदाता सूची नए सिरे से बनाने के खिलाफ 9 जुलाई को पटना के विरोध मार्च में राहुल गांधी, तेजस्वी यादव व अन्य.

बिहार में पिछला गहन पुनरीक्षण 2002-03 में हुआ था, जो 20 राज्यों में चरणबद्ध तरीके से चलाए गए देशव्यापी अभियान का हिस्सा था. उस वक्त गणना का दौर 15 जुलाई से 14 अगस्त 2002 तक 31 दिनों चला था—ठीक इस साल की तरह—और पुनरीक्षण का काम अक्तूबर 2005 में हुए बिहार के विधानसभा चुनाव से तीन साल पहले पूरा किया गया, जिससे सुधार, अपील और मतदाता सूचियों की जानकारी हासिल करने के लिए काफी वक्त मिल गया था.

यही नहीं, 2002-03 में पुनरीक्षण का काम बिल्कुल शुरू से किया गया था, लेकिन मौजूदा कवायद अलग-अलग समूहों के लिए अलग-अलग दस्तावेजों की जरूरतों का सृजन करके नामांकन की तारीख के आधार पर मतदाताओं के बीच फर्क करती है. 2003 की मतदाता सूची में जिन लोगों के नाम हैं, जो करीब 4.96 करोड़ लोग हैं, उन्हें केवल ऑनलाइन उपलब्ध करवा दी गई उस पुरानी सूची के ब्यौरों के साथ फॉर्म जमा करवाना है.

लेकिन बाकी 2.93 करोड़ लोगों को कहीं ज्यादा कड़ी जरूरतों का पालन करना है. 2003 की मतदाता सूची से नदारद 40 वर्ष से ऊपर के मतदाताओं को अपनी नागरिकता, पहचान और आवास के दस्तावेजी प्रमाण पेश करना होगा. 1 जुलाई, 1987 और 2 दिसंबर, 2004 के बीच जन्मे लोगों को अपने जन्म की तारीख और जगह के सबूत के अलावा अपने माता-पिता में से एक के ऐसे ही दस्तावेज देने होंगे. दिसंबर 2004 के बाद जन्मे लोगों को अपने और माता-पिता दोनों के सबूत देने की जरूरत है.

चुनाव आयोग ने 11 स्वीकार्य दस्तावेज बताए हैं (देखें: सबूत जो मांगे गए हैं), जिनमें आधार कार्ड, पैन कार्ड और ड्राइविंग लाइसेंस को शामिल नहीं किया गया है, जिसकी वजह अधिकारियों ने यह बताई कि इनमें कोई भी नागरिकता साबित नहीं करता.

आलोचक बताते हैं कि इन 11 में से पांच दस्तावेज पर आवेदक के जन्म की तारीख और जगह का कोई जिक्र नहीं है, जो दोनों ही मतदाता सूची में शामिल किए जाने के लिए अनिवार्य हैं. इस मानदंड को पूरा करने वाले दो दस्तावेज—एनआरसी और परिवार पंजिका—बिहार में बनाए और रखे नहीं जाते.

सबूत और पूर्वाग्रह

अभी वोटर बनने के लिए किसी को फॉर्म 6 भरना पड़ता है, जिसमें नागरिकता का सबूत देने की दरकार नहीं है. इसके बदले उम्र और पता-ठिकाने के स्व-सत्यापित दस्तावेज जमा करने होते हैं. उम्र के लिए उपयुक्त प्राधिकरण का जन्म प्रमाण-पत्र, आधार कार्ड, पैन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, मान्यता प्राप्त बोर्ड से कक्षा 10 या 12 का अंक-पत्र, या पासपोर्ट या जन्म तिथि का कोई अन्य कागज देना पड़ता है.

पते के लिए अपने  या मां-बाप या पति-पत्नी या वयस्क बच्चे (अगर उसी पते पर पहले से वोटर हो) के दस्तावेज देने होते हैं. इसमें बिजली-पानी-गैस के बिल (कम से कम साल भर पुराने), आधार कार्ड, बैंक या डाकघर का पासबुक, पासपोर्ट, जमीन के कागजात या किराए या खरीद के करारनामे वगैरह लगते हैं.

इनमें किसी दस्तावेज में नागरिकता की बात नहीं हैं, इसलिए भाजपा नेता दलील देते रहे हैं कि इस प्रक्रिया का दुरुपयोग संभव है. पूर्व केंद्रीय मंत्री तथा पटना से भाजपा सांसद रविशंकर प्रसाद पूछते हैं, ''क्या यह सही नहीं है कि कई बार रोहिंग्या या दूसरे लोग गैर-कानूनी ढंग से वोटर बन जाते हैं? अगर काम पूरी ईमानदारी से हो रहा है तो आपत्ति क्या है?’’

विपक्षी पार्टियों ने इस कवायद को राजनीति से प्रेरित बताते हुए इसकी तीखी आलोचना की और भाजपा की अगुआई वाली केंद्र सरकार पर हेराफेरी का आरोप लगाया. लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने 9 जुलाई को पटना में इंडिया ब्लॉक के नेताओं के साथ इस कदम के खिलाफ मार्च की अगुआई की.

उनके बीच एक अहम आशंका यह है कि भाजपा की संगठन शक्ति और संसाधनों के बल पर उसके समर्थक, जो अक्सर ऊंची जातियों के और शहरी होते हैं, एसआइआर की पेचीदा दस्तावेजी जरूरतों को कहीं ज्यादा अच्छे तरीके से पूरा कर सकेंगे, और इस तरह अपने मतदाता आधार को अपने प्रतिद्वद्वियों के मुकाबले शायद कहीं ज्यादा असरदार ढंग से बनाए रख सकेंगे.

इसके विपरीत, राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और कांग्रेस सरीखी पार्टियों को, जो बहुत ज्यादा ग्रामीण और हाशिये के लोगों के भरोसे हैं, अपने उन मतदाताओं का समर्थन जुटाने में चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है जिनमें जागरूकता का अभाव हो या जरूरी दस्तावेज सुलभ न हों.

फिर, इसके बाद शायद अगस्त में पश्चिम बंगाल और दिल्ली में भी ऐसी ही कवायद करने की घोषणा ने पक्षपाती मंशा की इस धारणा को और पुख्ता कर दिया. विपक्षी नेताओं का कहना है कि यह कदम भाजपा के लंबे वन्न्त से चले आ रहे अवैध घुसपैठ के नैरेटिव से मेल खाता है. उन्हें शक है कि बिहार में मतदाता सूचियों की सफाई सोची-समझी कोशिश है ताकि इसके बल पर बंगाल में भी, जिसे जीतने के लिए भाजपा खूब हाथ-पैर मारती रही है, ऐसी कवायद दोहराने का वैध आधार तैयार किया जा सके.

राजद सांसद मनोज झा ने तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा, एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) और ऐक्टिविस्ट योगेंद्र यादव के साथ सुप्रीम कोर्ट का रुख किया. उनकी याचिकाओं में भयावह तस्वीर पेश की गई—एसआइआर उन 3 करोड़ गरीब और हाशिए के मतदाताओं को मताधिकार से वंचित कर देगा जिनके पास मांगे गए दस्तावेज नहीं हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने 10 जुलाई को चुनाव आयोग को एसआइआर जारी रखने को तो कहा मगर आधार, वोटर पहचान-पत्र और राशन कार्ड को शुमार करने को कहा.

बिहार के नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने ऐसे आंकड़ों का तांता लगा दिया जिनसे पता चलता है कि बताए गए 11 दस्तावेजों में सिर्फ तीन ही कमोबेश आम हैं—जन्म, मैट्रिक और जाति प्रमाणपत्र. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि 1965 और 1985 के बीच जन्मे लोगों के पास अक्सर औपचारिक जन्म प्रमाणपत्र नहीं हैं, जो अब 40 से 60 वर्ष के बीच की उम्र में हैं.

स्कूली दस्तावेज भी इतने ही दुर्लभ हैं और इस समूह के महज 10 से 13 फीसद लोगों ने माध्यमिक स्कूल की पढ़ाई पूरी की. भारत मानव विकास सर्वेक्षण (2011-12) यह भी बताता है कि हाशिए की जातियों के करीब 20 फीसद लोगों और ओबीसी के 25 फीसद लोगों के पास वैध जाति प्रमाणपत्र हैं.

भारत जोड़ो अभियान से जुड़े शोधकर्ता राहुल शास्त्री के डेटा विश्लेषण से पता चलता है कि 18 से 40 वर्ष के बीच की उम्र के बिहारियों के बहुत ही छोटे-से हिस्से के पास पासपोर्ट, जन्म प्रमाणपत्र, जाति प्रमाणपत्र या सरकारी नौकरी के पहचान पत्र सरीखे दस्तावेज हैं. मैट्रिक प्रमाणपत्र नागरिकता के वास्तविक प्रमाण के तौर पर उभरा है.

ऐसे में यह व्यवस्था उन लोगों को सजा देती है जो मैट्रिक पास नहीं हैं और जिनमें खासकर गरीब, महिलाएं और ऐतिहासिक रूप से हाशिए के समूह हैं. चुनाव आयोग ने पिछले लोकसभा चुनाव के बाद बिहार में ज्ञान, दृष्टिकोण और व्यवहार—अंतरेखा सर्वे 2024 किया था, जो सभी 243 विधानसभा क्षेत्रों में फैले 41,913 नमूनों पर आधारित था. इस सर्वे से पता चला कि 33 फीसद लोग निरक्षर थे.

आलोचक अचानक एसआइआर की जरूरत पर भी सवाल उठाते हैं क्योंकि जून, 2024 और जनवरी, 2025 के बीच राज्य के चुनाव तंत्र ने मतदाता सूचियों के विशेष संक्षिप्त पुनरीक्षण का काम पूरा कर लिया था.

यह चुनाव आयोग के इस दावे के खिलाफ जाता है कि बिहार का मौजूदा चुनावी डेटाबेस इतनी बुरी हालत में है कि उसे पूरी तरह ठीक करने की जरूरत है. पूर्व सीईसी ओ.पी. रावत कहते हैं, ''संक्षिप्त पुनरीक्षण कानूनी जरूरतों के पूरी तरह अनुरूप होता. इसके बजाय चुनाव आयोग ने गहन पुनरीक्षण का आदेश दे दिया, जिसमें मतदाताओं को अपनी नागरिकता साबित करनी है, जो मौजूदा विवाद की जड़ है.’’

पिछले दरवाजे से एनआरसी?

यह प्रक्रिया एनआरसी के मुद्दे की वजह बन रही है. ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआइएमआइएम) प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने चुनाव आयोग पर ''बिहार में पिछले दरवाजे से एनआरसी लागू करने’’ का आरोप लगाया है. दूसरी तरफ, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस प्रक्रिया को ''एनआरसी से भी ज्यादा घातक’’ बताते हुए चेताया है कि इससे ग्रामीण मतदाताओं के नाम हटा दिए जाएंगे और उनकी जगह भाजपा समर्थक राज्यों के लोगों के नाम शामिल हो जाएंगे.

ऐसी आशंकाओं की वजह यह है कि आयोग बिहार के मतदाताओं की नागरिकता की जांच करता लग रहा है. चुनाव अधिकारियों को साफ निर्देश दिए गए हैं कि अगर किसी मतदाता पर शक हो तो उसे नागरिकता कानून, 1955 के तहत अधिकारियों को सौंप दें. ये नियम नागरिकता संशोधन कानून (सीएए), 2003 से जुड़े हैं, जिसे संवैधानिक रूप से सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है.

सीएए, 2003 पर विवाद हैं क्योंकि उसमें उन लोगों को ''अवैध प्रवासी’’ के तौर पर परिभाषित किया गया, जिनके पास दस्तावेज नहीं हैं और इसमें सीमा पार से आए शरणार्थी भी हैं. उनके बच्चों को जन्मसिद्ध नागरिकता के अधिकार से वंचित कर दिया और एनआरसी बनाने का प्रस्ताव रखा.

इस कानून के अमल में आने से पहले 2003 में निर्धारित नागरिकता संबंधी नियमों में संदिग्ध नागरिकों की पहचान और बाहर करने की प्रक्रिया बताई गई थी. नियमों में बाद में कोई बदलाव नहीं किया गया, जिससे कानूनी वैधता पर सवाल उठ रहे हैं.

कानूनी अस्पष्टता और रजिस्ट्रार जनरल की तरफ से एनआरसी का कोई आधिकारिक आदेश न होने के बावजूद एसआइआर के तहत अधिकारी एनआरसी की तरह ही घर-घर जाकर जांच कर रहे हैं और पुख्ता दस्तावेज मांग रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ताओं ने दलील दी कि एसआइआर संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन है.

उसमें स्थापित चुनावी नियम-कायदों के विपरीत नागरिकता साबित करने का दायित्व मतदाताओं पर डाला जा रहा है. हालांकि, पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपालस्वामी का तर्क है कि चुनाव भारतीय नागरिकों के लिए हैं, विदेशियों के लिए नहीं. उचित प्रक्रियाओं और विश्वसनीय दस्तावेजों के जरिए मतदाता पात्रता की जांच करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए.

प्रवासी एक बड़ा मुद्दा

प्रवासी मजदूरों को लेकर भी बड़ी चिंता है. हो सकता है कि उनके पास जरूरी कागजात न हों या फिर बहुत संभव है कि उन्हें समय पर ऑनलाइन अपलोड करने का तरीका न पता हो. 2022 के बिहार जाति सर्वेक्षण के मुताबिक, करीब 54 लाख लोग यानी राज्य की आबादी का करीब 4.1 फीसद बिहार से बाहर रहता है. जन सुराज पार्टी के प्रशांत किशोर ने निर्वाचन आयोग पर आरोप लगाया कि प्रवासी मजदूरों को हटाकर वह एनडीए की मदद कर रहा है. उनका कहना है कि प्रवासी मजदूर चुनाव में भाजपा-जदयू गठबंधन के लिए खतरा हैं.

सरकारी अधिकारियों का दावा है कि राज्य की सीमाओं से बाहर रहने और काम करने वाले लोगों का नाम मतदाता सूची से न हटे, इसके लिए वैकल्पिक उपाय किए गए हैं. ब्लॉक विकास अधिकारी चंदन कुमार कहते हैं, ''अगर कोई प्रवासी मजदूर डिजिटल फॉर्म नहीं भर सकता तो उसके परिवार का कोई सदस्य यहां उसका फॉर्म भर सकता है. फिर व्हाट्सऐप के जरिए हम वह फॉर्म उसके पास भेजते हैं. उसे फॉर्म का प्रिंट लेकर और उस पर हस्ताक्षर करके हमारे पास भेजना होगा. उसके पास इंटरनेट या स्मार्टफोन भी नहीं है तो पंचायत सचिव को पहचान प्रमाणित करने का अधिकार है.’’

एक जमीनी पड़ताल में पाया गया कि राज्य के अधिकारियों ने न केवल प्रवासी मजदूरों बल्कि ऐसे मतदाताओं की मदद के लिए भी व्यावहारिक समाधान निकाला है जिनके पास उपयुक्त दस्तावेज नहीं हैं. मसलन, आधार कार्ड चुनाव आयोग के आधिकारिक दस्तावेज में शामिल नहीं है लेकिन इसे प्रमाणपत्र के बजाय एक सेतु के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है.

भोजपुर के चिलौस पंचायत अंतर्गत नसरथपुर गांव में बीएलओ कौतुक कुमार हमें एक कच्ची सड़क से बंटी कुमार के घर ले जाते हैं, जो मैट्रिक पास नहीं हैं और ठेकेदार हैं. उनका आधार विवरण जाति प्रमाणपत्र के लिए पहले ही जमा किया जा चुका है. कुछ ही दूर रहने वाले किसान रमेश कुमार का भी आधार कार्ड पंचायत कार्यालय की तरफ से उनके आवासीय प्रमाणपत्र आवेदन का आधार बना है. पटना के एक अधिकारी कहते हैं, ''आधार या राशन कार्ड स्वीकार नहीं किया जा रहा है लेकिन पंचायत में सात दिनों में प्रमाणपत्र जारी किए जा रहे हैं.’’

बढ़ती आलोचना से चुनाव आयोग ने स्पष्ट किया है कि अनिवार्य दस्तावेजों के बिना भी मतदाता सत्यापन किया जा सकता है. निर्वाचन पंजीकरण अधिकारियों (ईआरओ) को मतदाता की पात्रता तय करने के लिए पूछताछ या प्रमाण के वैकल्पिक दस्तावेजों पर भरोसा करने की इजाजत दी गई है. दानापुर की उप-संभागीय मजिस्ट्रेट दिव्या शक्ति ने बलदेव हाइस्कूल में लोगों की चिंताएं दूर करने के लिए कहा, ''आपके पास सभी जरूरी दस्तावेज नहीं हैं तो भी चिंता न करिए.

आप फॉर्म भरें. आपकी पहचान और नागरिकता सत्यापित करने के लिए हमारे पास कई तरीके हैं.’’ आलोचकों का तर्क है कि फैसला स्थानीय अधिकारियों के विवेकाधिकार पर छोड़ने से इसके दुरुपयोग और संभावित पक्षपात का रास्ता खुल जाता है.

वैसे अभूतपूर्व सत्यापन प्रक्रिया बिहार के 7.9 करोड़ मतदाताओं के लिए चल रही है लेकिन इसके निहितार्थ आगे तक फैले हैं. यह पूरे देश में चुनावी राजनीति को नया रूप दे सकती है, जहां लाखों लोगों के पास अपनी जन्मभूमि से जुड़े होने का प्रमाण देने वाले कोई दस्तावेज मौजूद नहीं हैं.

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