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महाराष्ट्र: 1.2 लाख की चप्पल पर शुरू हुआ विवाद; क्यों बैकफुट पर आया इतालवी ब्रांड 'प्रादा'?

दुनियाभर में 1.2 लाख की चप्पल पर शुरू हुए आलोचनाओं के चलते 'प्रादा' को बैकफुट पर आना पड़ा, लेकिन महाराष्ट्र के कारीगरों का क्या होगा?

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22 जून को प्रादा की चप्पल पहने मॉडल
अपडेटेड 1 अगस्त , 2025

प्रादा और कोल्हापुरी! दोनों के बीच भला क्या तुलना? लेकिन इस इतालवी ब्रांड के पास किसी 'साधारण-सी चीज’ को हाइ एंड फैशन में बदल देने का असाधारण हुनर है. और इस बार तो उसने एकदम हद ही कर दी.

जून के आखिर में मिलान फैशन वीक के दौरान मॉडल कोल्हापुरी चप्पल पहनकर कैटवॉक करते दिखे. दुख इस बात का है कि प्रादा यह बताना भूल गया है कि उसने इसकी प्रेरणा दूर की तीसरी दुनिया से ली है.

उसने इनकी कीमत करीब 1.2 लाख रुपए रखी जबकि भारत में आप इसके सौवें हिस्से से भी कम में ऐसी चप्पल खरीद सकते हैं. 'सांस्कृतिक चोरी’ को लेकर वैश्विक स्तर पर तीखी प्रतिक्रिया के बाद आखिर प्रादा को बैकफुट पर आना पड़ा. पूरे विवाद ने एक बार फिर महाराष्ट्र के उन कारीगरों को सुर्खियों में ला दिया जो सदियों से न केवल सुंदर डिजाइन की चप्पलें बना रहे हैं, बल्कि विरासत को भी आगे बढ़ा रहे हैं.

महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले के करवीर, शिरोल, कागल और हाटकनंगले के कारीगर हथौड़े और सूए की मदद से हस्तनिर्मित चमड़े की ये चप्पलें बनाते हैं, जिनमें प्राकृतिक रंगों का प्रयोग होता है.

कोल्हापुरी की उत्पत्ति की कहानी जातिवादी सुधार से जुड़ी है. इसमें 12वीं सदी के लिंगायत कवि-दार्शनिक बसवन्ना से लेकर 20वीं सदी के अंत में कोल्हापुर के शाहू महाराज तक का खासा योगदान रहा है, जिन्होंने इसके उत्पादन में शामिल दलित समुदायों के उत्थान में मदद के लिए 29 चमड़ा केंद्र स्थापित किए.

प्रादा तो सीन में बहुत बाद में आया. सस्ते स्थानीय संस्करण पहले ही इसके लिए खतरा बन रहे थे. 2019 में महाराष्ट्र और कर्नाटक के चार-चार जिलों (कोल्हापुर, सांगली, सोलापुर और सतारा; बेलगाम, धारवाड़, बागलकोट और बीजापुर) को कोल्हापुरी ब्रांड के लिए भौगोलिक संकेतक (जीआइ) टैग दिया गया. कोल्हापुरी चप्पलें बनाने वाले चौथी पीढ़ी के कारीगर सचिन सतपुते कहते हैं कि कर्नाटक के अथानी या यूपी के आगरा जैसी जगहों पर बने सस्ते संस्करण कोल्हापुर के 20,000 से ज्यादा पारंपरिक कारीगरों के लिए खतरा पैदा करते हैं.

उनके मुताबिक, ''गुणवत्ता में बहुत ज्यादा अंतर है. नकली कोल्हापुरी चप्पलें कृत्रिम चमड़े या भेड़-बकरी की खाल से बनती हैं इसलिए जल्द खराब होती हैं. इससे ब्रांड का नाम बिगड़ता है और मांग पर प्रतिकूल असर पड़ता है.’’ असली कोल्हापुरी में भैंस या बैल की खाल का इस्तेमाल होता है, जो मजबूत रहती है. मशीन से बनी चप्पलों में कार्डबोर्ड का इस्तेमाल एक और चुनौती है. सचिन के मुताबिक, ''वे एक दिन में 10 से 15 जोड़ी चप्पलें बना सकते हैं. लेकिन हम हाथ से डिजाइन और सिलाई करते हैं, इसलिए एक जोड़ी बनाने में तीन दिन तक लग जाते हैं.

सवाल है कि क्या प्रादा फ्रांसीसी शैम्पेन के साथ ऐसा कर सकता था? यह असंभव है. 2023 में फ्रांसीसी पुलिस ने शैम्पेन के रूप में गलत तरीके से लेबल की गई स्पार्कलिंग वाइन की 35,000 बोतलें नष्ट कर दी थीं. केऐंडएस पार्टनर्स में भागीदार पेटेंट विशेषज्ञ आशीष कांत सिंह कहते हैं कि 'प्रेरित’ या 'नकल’ होने जैसे शब्दों का इस्तेमाल करके भी इससे बचा नहीं जा सकता.         

— सोनल खेत्रपाल (इनपुट)

 

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