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बिहार: क्या BJP प्रदेश अध्यक्ष जायसवाल ने 'MGM मेडिकल कॉलेज' पर किया अवैध कब्जा?

बिहार भाजपा अध्यक्ष दिलीप जायसवाल पर सिखों के एमजीएम मेडिकल कॉलेज पर कब्जा करने और वहां राजनेताओं के बच्चों को एडमिशन देकर राजनीति चमकाने का आरोप लगा है

Special report: MGM Medical College
किशनगंज स्थित माता गुजरी मेमोरियल मेडिकल कॉलेज
अपडेटेड 4 अगस्त , 2025

सिख अल्पसंख्यकों के सबसे पुराने मेडिकल कॉलेजों में शुमार माता गुजरी मेमोरियल (एमजीएम) मेडिकल कॉलेज एक बार फिर विवाद में है. इस बार जन सुराज पार्टी के संस्थापक प्रशांत किशोर ने बिहार भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. दिलीप कुमार जायसवाल पर आरोप लगाया है कि उन्होंने संस्थापक सरदार करतार सिंह को हटाकर इस कॉलेज पर कब्जा जमा लिया है.

इस मुद्दे पर अब तक मौन रहे जायसवाल ने आरोपों का जवाब इंडिया टुडे को दिया है. लेकिन पहले विवाद. जायसवाल पर इस तरह के आरोप क्यों लग रहे हैं? इस मेडिकल कॉलेज की कहानी क्या है?

इस विवाद की शुरुआत 18 जून को हुई. जायसवाल ने आरोप लगाया कि जन सुराज पार्टी 'बिहार बीजेपी’ के नाम से सोशल मीडिया पेज बनाकर उस पर अपने संस्थापक प्रशांत किशोर का प्रचार कर रही है. बिहार भाजपा ने साइबर सेल में इसकी लिखित शिकायत भी की. आरोप से तिलमिलाए प्रशांत किशोर ने उनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया.

उन्होंने कहा, ''ये जिस कॉलेज पर कब्जा करके बैठे हैं, वह बिहार में सिख माइनॉरिटी का इकलौता मेडिकल कॉलेज है. जायसवाल उस कॉलेज में कभी क्लर्क हुआ करते थे. उस कॉलेज को बनाने वाले करतार सिंह की संदिग्ध अवस्था में मृत्यु हुई है. आज वे कॉलेज पर कब्जा करके बैठे हैं. पहले वे बताएं, उन्होंने उस कॉलेज पर कैसे कब्जा किया? पिछले 25-30 साल में उस कॉलेज से बिहार के कितने नेताओं के बच्चों ने मेडिकल की डिग्री हासिल की है?’’

उन्होंने आगे कहा, इस दौरान ''बिहार में जिस किसी की सरकार रही है, इन्होंने सबसे रिश्ता बनाकर रखा है. बिहार में अलग-अलग राजनैतिक दलों के नेताओं के 50 से ज्यादा बच्चों ने वहां से मेडिकल की डिग्री हासिल की. जायसवाल की पूरी राजनीति इसी से बनी है. हम बहुत जल्द इस मसले पर प्रेस कॉन्फ्रेंस करने वाले हैं.’’ खबर है कि वे 6 जुलाई, 2025 को सरदार करतार सिंह के परिजनों के साथ इस मुद्दे पर प्रेस कॉन्फ्रेंस करेंगे.

कहानी एमजीएम मेडिकल कॉलेज की

हिंदी के जाने-माने लेखक फणीश्वरनाथ रेणु के आखिरी रिपोर्ताजों में से एक 'पटना जल प्रलय’ का यह एक टुकड़ा पढ़ें जरा: ''अभी टेलीफोन लाइन ठीक रहती तो कहीं से जाकर अपने पुराने मित्र सरदार चंद्रमौलेश्वर सिंह को बधाई दे आता. वे पटना साहिब गुरुद्वारा प्रबंधन कमिटी के जनरल सेक्रेटरी हैं. पंजाबी सिख नहीं, पूर्णिया के सिख हैं. इसलिए इतना मनोहर नाम है.

हां, हमारे जिले में पंद्रह-बीस टोलों के ऐसे-ऐसे बड़े गांव हैं, जहां पहुंचकर किसी को भ्रम हो सकता है कि वह हरियाणा अथवा पंजाब के किसी गांव में आ गया है. गुरु तेगबहादुर ने असम जाते वक्त यहां गंगा पार कर डेरा डाला था और यहां के लोगों के बीच सत्संग करके धर्मप्रचार किया था. पांच धर्मप्रचारकों को वे वहां छोड़कर गए थे.

उन्हीं में से एक के वंशज हमारे मित्र चंद्रमौलेश्वर उचला गांव (वर्तमान में कटिहार जिला) के निवासी हैं.’’ रेणु ने इसे 1975 में पटना में आई भीषण बाढ़ के दौरान लिखा था. तब पटना साहिब गुरुद्वारा प्रबंधन कमेटी के जनरल सेक्रेटरी उनके मित्र चंद्रमौलेश्वर सिंह, जिनका आधिकारिक नाम मौलेश्वर सिंह है, ने सिखों की टोलियों को पूरे पटना में राहत वितरण के लिए भेजा था.

वही मौलेश्वर सिंह दो बार बिहार विधान परिषद के सदस्य बने और 22 मई, 1990 को उन्होंने एक ट्रस्ट का पंजीकरण कराया जिसका मकसद देश भर के सिख अल्पसंख्यकों के लिए एक मेडिकल कॉलेज की शुरुआत करना था. इसका नाम उन्होंने सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह की माता गुजरी देवी के नाम पर रखा. वे करीब चार साल पटना में रही थीं और यहीं गुरु गोविंद सिंह का जन्म हुआ था.

पहले इस कॉलेज का कैंप ऑफिस पटना के रुकनपुरा मोहल्ले में एक किराए के मकान में खुला. योजना बनी कि इसे मौलेश्वर सिंह अपने गृह जिले पूर्णिया में खोलेंगे. इसी मकसद से उन्होंने वहां के एक बड़े जमींदार परिवार पी.सी. लाल को इस ट्रस्ट का सदस्य बनाया.

उनके अलावा इस ट्रस्ट के शुरुआती 11 सदस्यों में चार गैर सिख थे, इनमें पूर्णिया से माकपा के च‌र्चित विधायक अजित सरकार और एक अन्य ज्ञानेश्वर यादव सदस्य बनाए गए थे. उन्होंने सिखों के इस ट्रस्ट का अध्यक्ष बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री भागवत झा आजाद के साले अमरेंद्र कुमार को बनाया, जिन्हें बच्चा झा के नाम से जाना जाता था. आजाद साल भर पहले तक बिहार के मुख्यमंत्री थे और उस वक्त भी राज्य की राजनीति में उनका अच्छा प्रभाव था.

बच्चा झा के सहारे जायसवाल की एंट्री

जन सुराज नेता किशोर कुमार मुन्ना बताते हैं कि जायसवाल इन्हीं बच्चा झा के घरेलू सहयोगी थे और इन्हीं के जरिए उनकी एंट्री मेडिकल कॉलेज में हुई. इसकी पुष्टि मौलेश्वर सिंह के छोटे पुत्र गुरुदयाल सिंह भी करते हैं. तय हुआ था कि मेडिकल कॉलेज पूर्णिया में खुलेगा मगर वहां बहुत बेहतर संभावना नहीं दिखी.

इस बीच किशनगंज के एक अस्पताल 'लायन्स सेवा केंद्र’ के संचालकों ने मौलेश्वर सिंह से संपर्क किया कि वे उनके परिसर को लीज पर लेकर कॉलेज शुरू कर सकते हैं. इस तरह 26 मार्च, 1991 को इन दोनों संस्थाओं के बीच समझौता हुआ और एक संयुक्त ट्रस्ट बना. माता गुजरी मेमोरियल मेडिकल कॉलेज ऐंड लायन्स सेवा केंद्र हॉस्पिटल ट्रस्ट.

समें 27 सदस्य रखे गए; 22 माता गुजरी मेमोरियल मेडिकल कॉलेज ट्रस्ट के और पांच लायंस सेवा केंद्र हॉस्पिटल के. तय हुआ कि दोनों ट्रस्टों के सदस्य अलग-अलग रहेंगे, बस काम एक साथ करेंगे. अगर किसी ट्रस्ट के किसी ट्रस्टी की जगह खाली होती है तो उसे उसी ट्रस्ट के लोग भरेंगे. मौलेश्वर सिंह के बड़े पुत्र सरदार करतार सिंह शुरुआत से ही ट्रस्ट के सचिव थे और मौलेश्वर सिंह संस्थापक और एग्जीक्यूटर. ट्रस्ट के नए स्वरूप में उनके छोटे बेटे गुरुदयाल सिंह समेत उनके परिवार के कई सदस्यों को शामिल किया गया, जिनमें उनके कुछ बहनोई थे.

बच्चा झा गए पर दिलीप बने रहे

इस बीच कुछ अज्ञात वजहों से बच्चा झा को ट्रस्ट के अध्यक्ष पद से हटा दिया गया. उनकी जगह सपा के पूर्व सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री बलवंत सिंह रामूवालिया अध्यक्ष बने. तय हुआ कि माता गुजरी ट्रस्ट में 18 सिख और चार गैर सिख रहेंगे और इनमें तखत हरमंदिर साहब, पटना के अध्यक्ष पदेन सदस्य हुआ करेंगे.

इस समझौते के तहत लायन्स क्लब के पांच सदस्यों को संयुक्त ट्रस्ट में जगह देने के साथ-साथ मेडिकल कॉलेज में उन्हें पांच सीटें भी दी गईं और उनका अस्पताल एक हजार रुपए सालाना किराए पर 99 साल के लिए लीज पर लिया गया. ये तमाम जानकारियां दोनों ट्रस्ट डीड और इस कॉलेज से जुड़े मुकदमों के कागजात में है और ये कागजात इंडिया टुडे के पास हैं.

बच्चा झा तो ट्रस्ट से हट गए पर उनके करीबी जायसवाल मेडिकल कॉलेज में बने रहे. गुरुदयाल सिंह बताते हैं कि तब उनकी नजदीकी ट्रस्ट के सचिव सरदार करतार सिंह से हो गई थी. वे उनके खास हो गए. सिंह के मुताबिक, एमजीएम मेडिकल कॉलेज के पहले प्रोजेक्ट ऑफिसर किशनगंज के पूर्व राजद सांसद तस्लीमउद्दीन के पीए पोलो झा हुआ करते थे. उनके हटने के बाद जायसवाल को प्रोजेक्ट ऑफिसर बनाया गया और फिर वे जल्द चीफ एडमिनिस्ट्रेटर बन गए. जनवरी, 1991 में पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के हाथों कॉलेज का उद्घाटन हुआ और पढ़ाई भी शुरू हो गई.

इसी मेडिकल कॉलेज के 1996 बैच के छात्र और अब सीनियर डॉक्टर नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ''कॉलेज शुरू तो हो गया था पर मान्यता नहीं मिली थी. ऐसे में पहले तीन बैच के बाद छात्र काफी उग्र हो गए थे. आंदोलन हुआ और फिर कॉलेज में नया एडमिशन लिया जाना बंद हो गया. चौथे यानी मेरे बैच का नामांकन 1996 में हुआ, जब कॉलेज को भूपेंद्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा से एफिलिएशन मिला.

उस वक्त जायसवाल प्रोजेक्ट अफसर थे. उन्हें हम पीओ सर कहते थे. करतार सिंह कुछ कर नहीं पाते थे, एक तरह के कॉलेज की सारी जिम्मेदारी दिलीप जी ही उठाते थे. एडमिशन से लेकर मान्यता तक के लिए जूझते.’’ करतार सिंह के परिचित रहे किशोर कुमार मुन्ना का दावा है, ''इस कॉलेज को मान्यता दिलवाने में भी गलत तरीके का इस्तेमाल किया गया. भाजपा के बड़े नेता राधा मोहन सिंह के बेटे को कॉलेज में एडमिशन दिलाया गया.

हालांकि बाद के दिनों में इस बच्चे को परेशान भी काफी किया गया. जान-बूझकर कई-कई बार फेल किया गया.’’ 1996 बैच के छात्र बताते हैं, ''उस वक्त सिर्फ यूनिव‌‌र्सिटी की मान्यता मिली थी, मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया की नहीं. इसलिए कॉलेज में आंदोलन होते थे. एक छात्र ने निराश होकर खुदकुशी कर ली थी.’’ वे इस बात की पुष्टि करते हैं कि राधा मोहन सिंह के पुत्र और भतीजे दोनों कॉलेज में थे. इनके अलावा सांसद पप्पू यादव की बहन, साधु यादव की एक करीबी रिश्तेदार और अजित सरकार की बेटी भी इस कॉलेज में पढ़ती थी. 

झगड़ा उत्तराधिकार का, विदाई करतार की

इस बीच 13 जून, 1996 को संस्थापक मौलेश्वर सिंह का निधन हो गया और परिवार में उत्तराधिकार का झगड़ा शुरू हो गया. मौलेश्वर सिंह ने ट्रस्ट में नियम बनाया था कि वे वसीयत के जरिए उत्तराधिकारी खुद तय करेंगे, न तय कर पाए तो पत्नी प्रतिमा कौर और बड़ा बेटा करतार इसके उत्तराधिकारी और आजीवन सदस्य होंगे.

उनकी मृत्यु के बाद ट्रस्ट की बैठक में मौलेश्वर सिंह के दो वसीयतनामे पेश हुए. एक के जरिए गुरुदयाल सिंह ने खुद को उत्तराधिकारी बताया और दूसरे के जरिए करतार सिंह ने अपनी पत्नी अमरजीत कौर को उत्तराधिकारी. ऐसे में तय हुआ कि प्रतिमा कौर और करतार सिंह आजीवन सदस्य होंगे.

अमरजीत कौर को भी सदस्य बनाया गया मगर 1999 में करतार सिंह की पहल पर उनके छोटे भाई गुरुदयाल को ट्रस्ट से हटा दिया गया. फिर उनके बहनोइयों को हटाया गया. गुरुदयाल का आरोप है कि इन तमाम साजिशों में दिलीप उनके भाई के साथी और सलाहकार थे. हालांकि साल भर बाद 30 सितंबर, 2000 को करतार सिंह को भी ट्रस्ट से हटा दिया गया, वह भी कॉलेज के चीफ एडमिनिस्ट्रेटर दिलीप कुमार जायसवाल की पहल पर.

दस्तावेजों के मुताबिक, जायसवाल ने 30 सितंबर को ट्रस्ट की बैठक बुलाई. उसमें ट्रस्ट के सचिव और आजीवन सदस्य सरदार करतार सिंह पर वित्तीय अनियमितता और छात्रों की शिकायतें, स्टाफ के साथ बुरा व्यवहार आदि के आरोप लगाए गए. कहा गया कि वे अपने कई मुकदमों के कारण लगातार गायब रहते हैं, जिससे कॉलेज के कामकाज में काफी दिक्कतें होती हैं.

इन आरोपों के मद्देनजर करतार सिंह को सचिव पद से हटा दिया गया और लायंस सेवा केंद्र ट्रस्ट के सदस्य जुगल किशोर तोषणीवाल सचिव बने. बाद में अदालत को बताया गया कि 8 मार्च, 2002 को करतार सिंह ने ट्रस्ट से इस्तीफा दे दिया. इस तरह मौलेश्वर सिंह के परिवार के आखिरी पुरुष सदस्य की भी ट्रस्ट से विदाई हो गई. दो महिला सदस्य प्रतिमा कौर और अमरजीत कौर ने ट्रस्ट की बैठकों में जाना बंद कर दिया.

2013 में माता गुजरी विश्वविद्यालय बना

आरोप है कि रामूवालिया और तोषणीवाल की मदद से जायसवाल ने इस मेडिकल कॉलेज पर कब्जा कर लिया. इस वक्त वे इसके निदेशक हैं. रामूवालिया और तोषणीवाल अभी भी ट्रस्ट के क्रमश: अध्यक्ष और सचिव हैं. इस बीच 2013 में माता गुजरी विश्वविद्यालय की स्थापना हो गई और मेडिकल कॉलेज के अलावा परिसर में चार और शैक्षणिक संस्थान खुल गए हैं, जो नर्सिंग और पैरामेडिकल की पढ़ाई करवाते हैं. कॉलेज के प्रॉस्पेक्टस और माता गुजरी विश्वविद्यालय की 2023-24 की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक, उनकी पत्नी इंदू जायसवाल अब ट्रस्टी हैं और उनके पुत्र इच्छित भारत यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार. 

सरदार करतार सिंह को सचिव पद से हटाने पर पूरा परिवार एकजुट होने लगा. प्रतिमा कौर ने मुकदमा कर करतार सिंह को हटाने और तोषणीवाल को अध्यक्ष बनाने को अवैध और ट्रस्ट के नियमों के खिलाफ बताया. आजीवन सदस्य को हटाया नहीं जा सकता, उसका पद मृत्यु या इस्तीफे के बाद ही खाली हो सकता है जबकि करतार सिंह ने न सचिव पद से इस्तीफा दिया, न उनकी मृत्यु हुई थी.

दूसरे, लायंस सेवा केंद्र ट्रस्ट के सदस्य को माता गुजरी ट्रस्ट का सचिव नहीं बनाया जा सकता क्योंकि दोनों अलग ट्रस्ट हैं. तीसरे, चीफ एडमिनिस्ट्रेटर जायसवाल का मीटिंग बुलाना ही अवैध है क्योंकि वे उस वक्त ट्रस्ट के सदस्य नहीं थे. गुरुदयाल सिंह कहते हैं, ''इस तरह गलत तरीके का इस्तेमाल करके दिलीप कुमार जायसवाल ने हमारे पारिवारिक ट्रस्ट और मेरे पिता के शुरू किए मेडिकल कॉलेज पर कब्जा कर लिया है.

उन्होंने इसके जरिए अरबों की अवैध संपत्ति भी बनाई और इसका इस्तेमाल अपनी राजनीति चमकाने में भी किया. पूरे मामले की जांच ईडी से कराई जानी चाहिए.’’ वे यह भी जोड़ते हैं, ''मेरे भाई करतार सिंह को भी इन्होंने कई झूठे मुकदमे में फंसाया और जेल भिजवा दिया. जेल में ही मेरा भाई बीमार पड़ा, फिर लकवे का शिकार हुआ. इसके भय से उनका पूरा परिवार अमृतसर शिफ्ट हो गया, जहां 2023 में मेरे भाई की मौत हो गई.

उस वक्त एक अखबार ने खबर छापी थी कि करतार सिंह ने दिलीप जायसवाल के बहनोई काली प्रसाद को किसी अपराध के लिए दंडित किया था. काली प्रसाद भी उस वक्त कॉलेज के कर्मचारी थे. इसी का जायसवाल ने भाई से बदला लिया.’’ किशोर कुमार मुन्ना बताते हैं, ''जब करतार सिंह मुकदमों से परेशान रहते थे, तभी उनसे मेरी मुलाकात हुई थी.

उन्हें देखकर लगता था कि वे आत्महत्या कर लेंगे. एक तो कॉलेज की मान्यता का सवाल था, जिसको लेकर छात्र उग्र रहते थे. दूसरा उनके अपने लोग ही विश्वासघाती हो गए. उन पर तकरीबन एक दर्जन झूठे केस करवाए और झूठी गवाही गुजरवाई गई. ये तमाम केस जायसवाल और तोषणीवाल ने मिलकर करवाया. उन्हें जेल जाना पड़ा.’’ 

सिखों का कितना रह गया है यह कॉलेज

कहा यह भी जाता है कि इस सिख अल्पसंख्यक संस्थान पर अब सिखों का कोई अधिकार नहीं रह गया है. रामूवालिया 83 साल के हो चुके हैं और अब कनाडा में रहते हैं. तोषणीवाल गैर सिख हैं और कॉलेज पर पूरी तरह जायसवाल का नियंत्रण है. कई सिख दबे स्वर में यह बात कहते हैं मगर सामने आकर आरोप नहीं लगाना चाहते.

ट्रस्ट डीड के मुताबिक, तखत हरमंदिर साहब के अध्यक्ष को ट्रस्ट का पदेन सदस्य होना था, ताकि वे सिख हितों की रक्षा कर सकें. मगर तखत हरमंदिर साहब गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के मौजूदा अध्यक्ष जगजीत सिंह सोढ़ी ऐसे किसी प्रावधान की जानकारी होने से इनकार करते हैं: ''न वहां से कभी बुलाया गया, न मैं कभी गया. वहां सिख छात्रों का कितना कोटा है, यह भी मुझे नहीं मालूम. इतना पता है कि पंजाब से आकर कई सिख छात्र वहां पढ़ते हैं.’’

इन तमाम आरोपों के बारे में पक्ष जानने के लिए संपर्क करने पर बिहार भाजपा के मौजूदा अध्यक्ष दिलीप कुमार जायसवाल पहले तो इस मसले पर टिप्पणी करने से इनकार कर देते हैं. फिर कहते हैं, ''एक तो प्रशांत किशोर जी ने शब्द की मर्यादा को लांघने का प्रयास किया है. हम भारतीय जनता पार्टी के लोग शब्द की मर्यादा को नहीं लांघते. मैं कभी भी उस कॉलेज में क्लर्क नहीं था, मैं शुरू से ही प्रोजेक्ट अफसर था. वहां पर प्रशासक था और आज भी हूं.

सरदार करतार सिंह जी की संदिग्ध मौत नहीं हुई है. ये हास्यास्पद बातें हैं और इस तरह की गलत बातों के लिए भगवान से माफी मांगनी चाहिए. तीसरी बात, नेताओं के बच्चे हों या किसी और के, हमारे यहां कोई भी छात्र आकर डिग्री ले सकता है. वे अपनी मेरिट के आधार पर आएंगे. छात्रों में हम यह नहीं देखते कि कौन जज का बेटा है, कौन पदाधिकारी का, कौन नेता का और कौन गरीब का. एडमीशन में मेडिकल कॉलेज का कोई रोल नहीं, यह नीट से होता है.’’ 

वे आगे जोड़ते हैं, ''मैंने तीनों आरोपों का जवाब दे दिया, हालांकि मैं नहीं चाहता था कि फालतू बातों का जवाब दूं. चौथी बात यह कि उस ट्रस्ट में दो-तिहाई सिख अल्पसंख्यक होते हैं और एक-तिहाई गैर सिख. 27 में 18 सिख और नौ गैर सिख. जो लोग हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट सभी जगहों से हार चुके हैं, वैसे लोग उनके पास जाकर जानकारी देते हैं. इन फालतू बातों का जवाब देना नहीं चाहता था, मगर आपने सवाल किया तो मैं पहली बार कैमरे पर जवाब दे रहा हूं.’’

ट्रस्ट के मौजूदा सदस्यों की सूची कहां है? इस पर वे साफ कह देते हैं कि ''इसका जवाब वे अदालत को देंगे.’’ इसके आगे के आरोपों पर वे बात करने से मना कर देते हैं.

माता गुजरी मेमोरियल: विवादों की टाइमलाइन

● 22 मई, 1990: ट्रस्ट पंजीकृत हुआ तो भागवत झा आजाद के साले अमरेंद्र कुमार उर्फ बच्चा झा अध्यक्ष बनाए गए जो हिंदू थे.

● 26 मार्च, 1991: लायंस सेवा केंद्र ट्रस्ट, किशनगंज से समझौता. अमरेंद्र ट्रस्ट से हटे, पूर्व केंद्रीय मंत्री बलवंत सिंह रामूवालिया को अध्यक्ष बनाया. परिवार के कई सदस्यों की ट्रस्ट में एंट्री.

● 1993-1995: मान्यता न मिलने के कारण एडमिशन नहीं लिया गया. 1996 में बी.एन. मंडल यूनिवर्सिटी से मान्यता. 

● 1996-1997: संस्थापक मौलेश्वर सिंह की मृत्यु के बाद ट्रस्ट पर कब्जे को लेकर परिवार में विवाद. छोटे बेटे गुरुदयाल और बहनोइयों को ट्रस्ट से हटाया.

● 30 सितंबर, 2000: कई मुकदमों और आरोपों से घिरे सचिव और आजीवन सदस्य सरदार करतार सिंह को सचिव पद से हटा कर लायंस सेवा केंद्र के सदस्य जुगल किशोर तोषणीवाल को सचिव बनाया. संस्थापक परिवार का इस ट्रस्ट और कॉलेज से कब्जा लगभग खत्म.

● 8 मार्च, 2002: सरदार करतार सिंह का ट्रस्ट से कथित इस्तीफा. इसके बाद वे जेल गए और छूटने के बाद पक्षाघात के शिकार. उनका परिवार अमृतसर में शिफ्ट हो गया.

● 2023: सरदार करतार सिंह की अमृतसर में ही मृत्यु.

● जून, 2025: प्रशांत किशोर के आरोपों के बाद एक बार फिर यह मामला गरमाया.

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