दरअसल, यह महज चौड़ा सीमावर्ती इलाका भर नहीं है, बल्कि नक्सली गतिविधियों का केंद्र भी रहा है. ओडिशा लंबे समय तक वामपंथी उग्रवाद की सक्रिय गतिविधियों का केंद्र रहा है, खासकर गरीबी से जकड़ा अंदरूनी इलाका, जो पूर्वी-मध्य भारत का आदिवासी बहुल हिस्सा है.
माओवादी गतिविधियों से जुड़े हाल के घटनाक्रम पर नजर डालें तो आप वाम उग्रवाद के खिलाफ जंग के बदलते नक्शे को लाइव-ट्रैक भी कर सकते हैं. ताजा घटना 13 जून को हुई, जब भोर होने से पहले ही जंगलों में गोलियों की तड़तड़ाहट गूंज उठी. यह सब मलकानगिरि जिले में हुआ.
विशेष पुलिस दल ने एक खुफिया सूचना के आधार पर कार्रवाई करते हुए मैथिली पुलिस स्टेशन के अंतर्गत सरगीगुडा गांव के पास एक सशस्त्र माओवादी गुट को घेर लिया. मुठभेड़ के दौरान कई नक्सली भागने में सफल रहे, मगर उसके दो वरिष्ठ कार्यकर्ताओं केसा कवासी और राकेश उर्फ सानू कुंजम को पकड़ लिया गया.
दोनों प्रतिबंधित भाकपा (माओवादी) के 'एरिया कमेटी सदस्य' हैं तथा छत्तीसगढ़ के बस्तर और बीजापुर जिलों के रहने वाले हैं. आंध्र प्रदेश-ओडिशा सीमा क्षेत्र में लंबे समय से सक्रिय इन दोनों नक्सलियों पर चार-चार लाख रुपए का इनाम था. पखवाड़े भर पहले कोरापुट जिले में ऐसे ही एक अन्य अभियान में कुंजम हिडमा को पकड़ा गया था. वह भी इसी रैंक का एक माओवादी है और छत्तीसगढ़ का रहने वाला है.
ये न तो छिटपुट घटनाएं और न ही अचानक हुई हैं. दरअसल, यह एक व्यापक अभियान के जरिए माओवादियों पर शिकंजा कसने के ओडिशा पुलिस और केंद्रीय अर्धसैनिक बलों की कोशिशों का नतीजा है. हाल के महीनों में पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ में नक्सल विरोधी अभियान तेज होने के बाद कई माओवादियों ने ओडिशा के जंगलों में शरण लेना ज्यादा मुफीद समझा. और ताजा अभियान उन्हें फिर से संगठित होने से पहले रोकने की कवायद का हिस्सा है. कोशिश यह है कि ओडिशा के सुदूर इलाकों में अभी भी सक्रिय माओवादियों के नेटवर्क पर काबू पाया जाए और भगोड़े नक्सलियों के लिए किसी भी सामरिक शरणस्थली को पूरी तरह बंद किया जाए.
कुछ ही दिन पहले पश्चिम में संबलपुर जिले के चारमल जंगलों में सीमा पार संदिग्ध माओवादी आंदोलन के खिलाफ एक अभियान चलाया गया. अधिकारियों ने इसे किसी ऐसे क्षेत्र में अपना वर्चस्व स्थापित करने का पूर्वाभ्यास करार दिया, जहां माओवादियों की संख्या वैसे तो नगण्य है लेकिन उनके प्रवेश की आशंका बनी हुई हो. सुरक्षा समीकरण तेजी से बदल रहे हैं—माओवादी तेजी से रक्षात्मक रुख अपनाने लगे हैं, छोटे-छोटे समूहों में बंट रहे हैं और सीधे हमले शुरू करने के बजाए ठिकाने लगातार बदल रहे हैं.
फिर भी खतरा बरकरार है. मई के अंत में 30-40 सशस्त्र माओवादियों के एक समूह ने उत्तर-पश्चिमी सीमा पर सुंदरगढ़ जिले में विस्फोटकों से लदे एक ट्रक को अगवा कर लिया. इटमा स्थित एक लाइसेंस प्राप्त गोदाम से खदान स्थल की ओर जा रहे इस वाहन पर बांको के पास कब्जा किया गया और झारखंड के सारंडा क्षेत्र के जंगलों की ओर ले जाया गया. इन चुराए गए विस्फोटकों का एक हिस्सा नक्सलियों और ओडिशा-झारखंड के संयुक्त बलों के बीच गोलीबारी के बाद बरामद किया गया. लाइसेंसधारी विस्फोटक डीलर श्रवण अग्रवाल और उसके ड्राइवर की गिरफ्तारी से साजिश की परतें और गहरा गईं. अग्रवाल ने जिलेटिन छड़ें और डिटोनेटर से भरे दो अतिरिक्त ट्रकों की बात छिपाकर शुरू में जांचकर्ताओं को गुमराह किया.
बहरहाल, सुर्खियों के पीछे एक और जटिल तस्वीर छिपी है. पुलिस अभियानों में माओवादी गढ़ों को ध्वस्त करने में सफलता मिली है, खासकर कंधमाल और बौध में. मगर 2024 के शुरू में कोरापुट और बरगढ़ सहित कई क्षेत्रों को 'वामपंथी उग्रवाद प्रभावित' के तौर पर वर्गीकृत करने का केंद्र सरकार का फैसला दर्शाता है कि जंग अभी खत्म नहीं हुई है. इस तरह जो क्षेत्र पहले नक्सल 'मुक्त' माने गए थे उन्हें फिर से प्रभावित क्षेत्रों के तौर पर देखा जा रहा. जैसा कि ओडिशा के डीजीपी योगेश बहादुर खुरानिया ने हाल ही में कहा, लक्ष्य मार्च 2026 तक वामपंथी उग्रवाद के पूर्ण सफाए का है. मगर ताजा गतिविधियों पर सबकी निगाहें टिकी हैं. जंगल भले घट रहे हों, इनके बीच पनपने वाले असंतोष की जड़ें गहरी बनी हुई हैं.