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बिहार: नीतीश सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद क्यों घट रही बेटियों की आबादी?

एक ताजा सरकारी रिपोर्ट में बिहार का लिंगानुपात देश में सबसे नीचे पहुंच गया है. आधी आबादी को विशेष प्रोत्साहन देने वाले राज्य के प्रयासों पर आखिर कौन पानी फेर रहा है?

Special Report-lingaanupat
मुजफ्फरपुर के मड़वन ब्लॉक में मीटिंग करती किशोरियां
अपडेटेड 23 जुलाई , 2025

अपनी इस बेटी की जान लेने की कोशिश खुद की थी मैंने. डॉक्टर से मांगकर दो पत्ते की पूरी दवाइयां खा लीं मगर यह मरी नहीं. तब डॉक्टर हाथ जोड़कर सामने खड़ा हो गया, बोला, आ जाने दीजिए इस बच्ची को. आज वही मेरी सबसे काबिल बच्ची है और मेरा नाम रौशन कर रही है.’’

मुजफ्फरपुर में किशोरियों की एक कार्यशाला में अपनी बेटी के साथ आई वह महिला बमुश्किल अपने को रोने से रोक पा रही थी. वह बेटे और बेटियों के बीच भेदभाव और बेटियों को गर्भ में मार देने की कोशिशों की चर्चा में शामिल थी. वहां मौजूद कई महिलाएं अपने सच्चे अनुभव सुना रही थीं.

पानापुर गांव की आशा कुमारी का दर्द था: ''मुझे दो बेटियां हुईं. सास और पति चाहते थे कि अब लड़की न हो. तीसरी बार गर्भवती होने पर अल्ट्रासाउंड कराने का दबाव बनाया पर हम अड़ गए, 'जो होगा सो होगा.’ मेरी चचेरी देवरानी के चार बेटियां हैं, उसे भी लोग ताने देते हैं.’’ वे आगे कहती हैं, ''जब से हमारे इलाके में अल्ट्रासाउंड का चलन बढ़ा है, पहली संतान बेटी होने पर लोग जांच कराकर देख लेना चाहते हैं कि अगली संतान भी लड़की तो नहीं. हुई तो गर्भ गिरवा देते हैं. आजकल छोटे-छोटे इलाकों में भी अल्ट्रासाउंड सेंटर खुल गए हैं. 2,000-2,500 में जांच हो जाती है.’’ वे ऐसे कई किस्से बताती हैं, जिनमें महिलाओं ने अल्ट्रासाउंड जांच में बेटी का पता चलने पर गर्भ गिरवा दिया.

कार्यशाला में आई किशोरियां भी कड़वे अनुभव सुनाती हैं. चिकनौटा गांव की सोनाली के चाचा की तीन बेटियां हैं. उन्होंने घर बनाया तो पड़ोसी कहने लगे, 'बेटा नहीं है तो घर काहे बना रहे?’ शाहपुरा की अनुराधा बताती हैं कि उनके गांव में जांच में बेटी का पता चलने पर महिलाएं दवा खाकर बच्चा मार देती हैं.

वहां मौजूद सामाजिक कार्यकर्ता रंभा इन दिनों आइसक्रीम की पेटियों की तरह गली-कूचे में मौजूद पोर्टेबल अल्ट्रासाउंड मशीनों के बारे में बताती हैं, जिनके लिए सेंटर खोलने की भी जरूरत नहीं है. ''इन्हें रोकने को बने पीसी-पीएनडीटी ऐक्ट का पालन सिर्फ कागज पर होता है.’’

यह कहानी है बिहार के उस मुजफ्फरपुर जिले की जो राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वे (एनएफएचएस-5) में जो नवजात शिशुओं के लिंगानुपात के मामले में 1,000: 685 के साथ देश में सबसे पीछे खड़ा था. इंडिया टुडे ने तीन साल पहले मुजफ्फरपुर में गिर रहे लिंगानुपात पर एक विस्तृत स्टोरी में वहां के अल्ट्रासाउंड सेंटरों में अवैध लिंग परीक्षण को लेकर सवाल उठाए थे (गर्भ में गुम एक तिहाई बेटियां, 26 अक्तूबर, 2022). तब पूरे राज्य में व्यापक छापेमारी करते हुए 119 अल्ट्रासाउंड केंद्रों को सील किया गया था. पर उसके बाद कोई बड़ी कार्रवाई नहीं हुई. नतीजा: आज पूरे बिहार का लिंगानुपात देश में सबसे निचले स्तर पर चला गया है.

जून, 2025 में भारत के रजिस्ट्रार जनरल ने सिविल रजिस्ट्रेशन सिस्टम (सीआरएस) 2022 के आंकड़ों के आधार पर एक रिपोर्ट जारी की है. इसके मुताबिक, बिहार में जन्म का निबंधन कराने वाले प्रति हजार लड़कों के मुकाबले लड़कियां सिर्फ 891 हैं, यानी देश में सबसे कम. आगे के वर्षों में ये आंकड़े और भी नीचे आ गए.

सीआरएस वेबसाइट के मुताबिक, 2023 में बिहार में यह अनुपात 847 और 2024 में 841 पर पहुंच गया. यही नहीं, बिहार सरकार के हॉस्पिटल मैनेजमेंट इन्फॉर्मेशन सिस्टम के 2023-24 के आंकड़े भी इस दौरान कई जिलों का लिंगानुपात गिरने की ओर इशारा करते हैं. खासकर भोजपुर, सारण और वैशाली जैसे जिलों में आंकड़ा 800 के आस-पास जा पहुंचा है. राज्य के 38 में से 13 जिलों का ही सेक्स रेशियो 900 या उससे ज्यादा है.

आंकड़े परेशान करने वाले हैं. पिछले सवा सौ साल के उपलब्ध आंकड़ों में पहली दफा बिहार का लिंगानुपात 900 के नीचे गया है और देश में सबसे निचले पायदान पर है. 1961 तक बिहार का लिंगानुपात अमूमन 1,000 से ऊपर रहता था, यानी लड़कियां ज्यादा. फिर यह गिरना शुरू हुआ. वैसे 2011 की जनगणना के आंकड़ों में भी यह 916 से नीचे नहीं था.

ऐसे हालात के बावजूद बिहार के सरकारी महकमे, खासकर इस मसले के जिम्मेदार स्वास्थ्य विभाग और महिला विकास निगम में बहुत चिंता का माहौल नहीं.

इन आंकड़ों के सामने आने के बाद राज्य के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय से कई प्रयासों के बावजूद बात न हो सकी. वे अपने गृह क्षेत्र सीवान में होने वाली पीएम नरेंद्र मोदी की सभा की तैयारियों में व्यस्त बताए गए. स्वास्थ्य विभाग और राज्य स्वास्थ्य समिति का कोई अधिकारी भी जवाब देने को तैयार नहीं था.

समिति के कार्यकारी निदेशक सुहर्ष भगत, स्वास्थ्य सचिव और बिहार के मुख्यमंत्री कार्यालय को मेल से भेजे सवालों के भी जवाब अब तक नहीं मिल सके. महिला और बाल विकास निगम की प्रबंध निदेशक बंदना प्रेयसी ने इस बारे में कुछ ऐसा स्पष्टीकरण दिया, ''लिंगानुपात कई तरह के होते हैं: एक जनगणना वाला, एक सीआरएस का, जिसका आप जिक्र कर रहे हैं, और एक एचएमआइएस का.

एक एनएफएचएस का भी है. इसमें फर्क समझना होगा. हर आंकड़े की अपनी सीमाएं होती हैं. यह भी देखना होगा कि सीआरएस की प्रक्रिया क्या है. असल आंकड़ों के लिए जनगणना का इंतजार करना होगा.’’ पर ये आंकड़े कितने चिंताजनक हैं? ''सीआरएस के आंकड़े संवेदनशील हैं, बेशक. हम उसकी समीक्षा भी कर रहे हैं.’’

उनकी बातों में भी एक निश्चिंतता और इन आंकड़ों को लेकर उदासीनता झलकती है. बिहार में बालिकाओं के अधिकार और लिंगानुपात के मसले पर काम करने वाले लोग बताते हैं कि यही उदासीनता सबसे बड़ी वजह है, जिसके कारण राज्य का लिंगानुपात तेजी से घट रहा है.

बिहार में 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना से पांच विभाग जुड़े हैं. इनमें स्वास्थ्य विभाग, शिक्षा विभाग, महिला एवं बाल विकास निगम, पंचायती राज विभाग और जीविका तथा कौशल विकास मिशन हैं. जहां तक लिंगानुपात सुधारने की जिम्मेदारी है, वह मुख्य रूप से स्वास्थ्य विभाग और महिला एवं बाल विकास निगम की है.

बिहार में अरसे से किशोरियों के साथ काम कर रहीं सामाजिक कार्यकर्ता शाहीना परवीन लिंगानुपात के मसले का सियासी पहलू रेखांकित करती हैं. ''हमने इसे सामाजिक कुरीति के खाते में डाल दिया है, जबकि यह राजनैतिक मसला है. राजनैतिक इच्छाशक्ति के बूते ही बिहार बाल विवाह को कम करने में सफल रहा. इस मसले में सरकार ने वैसी इच्छाशक्ति नहीं दिखाई. न पीसी-पीएनडीटी ऐक्ट को लागू करने में और न भ्रूणहत्या के खिलाफ जागरूकता फैलाने में.’’

मुख्यमंत्री कन्या उत्थान योजना के तहत कन्या के जन्म पर 3,000 रुपए दिए जा रहे हैं मगर परवीन की मानें तो ''इतने से समाज लड़कियों के साथ भेदभाव बंद नहीं करेगा. बिहार में बाल विवाह के साथ दहेज प्रथा के खिलाफ भी कैंपेन शुरू हुआ था, मगर न उसमें कोई ढंग का काम हुआ, न वह सफल हो पाया. हाल के वर्षों में लड़कियों के साथ जिस तरह अपराध बढ़ा है, उनकी सुरक्षा का मसला भी बड़ा हो गया है.’’

मुद्दा यह है कि जिस स्वास्थ्य विभाग पर पीसी-पीएनडीटी ऐक्ट के जरिए गर्भस्थ शिशु की लिंग जांच रोकने का जिम्मा है और जिस महिला एवं बाल विकास निगम पर इस संबंध में जागरूकता फैलाने की जिम्मेदारी है, वे आखिर क्या कर रहे हैं? खासकर बिहार के ग्रामीण इलाकों में अवैध रूप से जगह-जगह अल्ट्रासाउंड सेंटर कैसे चल रहे हैं? इसकी थाह लेने को राज्य के कुछ ऐसे इलाकों की यात्रा की गई.

तलाश थी मुजफ्फरपुर के बंदरा प्रखंड मुख्यालय में उस अल्ट्रासाउंड केंद्र की, जिसे स्वास्थ्य महकमे ने 2023 में सील कर दिया था. छोटा-सा कस्बा. पूरा छान डालने के बावजूद कोई सुराग न मिला. आखिर में चौराहे पर बैठे एक तंबाकू दुकानदार से पूछने पर उसने कहा, ''चलिए ले चलते हैं.’’

वह चौराहे से चंद कदम की दूरी पर एक मार्केट कॉम्प्लेक्स के अंदर की एक दुकान के पास ले गया. दो कमरे वाली उस शॉप में अल्ट्रासाउंड होने की एक ही पहचान थी, लाल रंग की यह लिखावट: ''यहां लिंग परीक्षण की जांच नहीं की जाती. यह एक दंडनीय अपराध है.’’ एक कमरा खाली पड़ा था और दूसरे में वह दुकानदार हमें मरीज समझकर जिसके अंदर ले गया था, एक गंवई युवक एक मरीज के पेट पर अल्ट्रासाउंड का हैंडल घुमा रहा था और सामने के मॉनिटर पर चित्र उभर रहे थे.

''आप डॉक्टर हैं?’’ यह पूछने पर उसका जवाब था, ''नहीं. मैं टेक्नीशियन हूं.’’ डॉक्टर आते हैं यहां, या आप ही अल्ट्रासाउंड करते हैं? ''हम स्टाफ हैं. जो कहा जाता है, करते हैं.’’ मतलब डॉक्टर नहीं आते? कोई जवाब नहीं. आपने पढ़ाई कहां से की?

''मुजफ्फरपुर से.’’ क्या पढ़ाई की? कोई जवाब नहीं. क्या आप अल्ट्रासाउंड करने से पहले मरीजों से फॉर्म भराते हैं? ''अभी फॉर्म खत्म हो गया है.’’ यह सेंटर तो सील हो गया था, फिर कब खुला? ''हाल में. पहले पेपर नहीं थे, अब पेपर तैयार करवाकर फिर से अप्लाइ किए तो खुला.’’ आप हर महीने रिपोर्ट भेजते हैं कि कितने अल्ट्रासाउंड किए और क्या-क्या किया? ''ओनर बता सकते हैं.’’

यह बातचीत इशारा है कि बिहार के ग्रामीण इलाके में अल्ट्रासाउंड सेंटर किस तरह से काम करते हैं. मई, 2023 में पूरे राज्य में अल्ट्रासाउंड सेंटरों पर छापेमारी के दौरान इस छोटी-सी जगह बंदरा में इसी तरह चल रहे चार अल्ट्रासाउंड सेंटर और तीन नर्सिंग होम सील किए गए थे. बंदरा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के प्रभारी चिकित्सक डॉ. नौशाद आलम बताते हैं, ''इनमें से दो खुल गए हैं क्योंकि उन्होंने अर्हता पूरी कर ली है.’’

मुजफ्फरपुर के सिविल सर्जन ऑफिस में पीसी-पीएनडीटी ऐक्ट से जुड़ा काम देखने वाले स्टाफ हिमांशु बताते हैं, ''इस वक्त मुजफ्फरपुर जिले में कुल 292 अल्ट्रासाउंड सेंटर रजिस्टर्ड हैं. इनमें से 184 ही चल रहे हैं और 150 नियमित मासिक प्रतिवेदन भेजते हैं.’’ 2023 में जिले में 45 अल्ट्रासाउंड सेंटर सील किए गए थे, उनमें से कितने खुल गए? वे इसकी जानकारी नहीं देते.

इन आंकड़ों से गुजरने के बाद यह जरूर लगता है कि पिछली कड़ाइयों के चलते मुजफ्फरपुर जिले की स्थिति थोड़ी बेहतर हुई है. 2022 में जिले में मौजूद 262 अल्ट्रासाउंड सेंटरों में से सिर्फ 73 मासिक प्रतिवेदन भेजते थे. हालांकि हर तीन महीने पर हर अल्ट्रासाउंड सेंटर की जांच का सिस्टम तब भी काम नहीं करता था, अब भी नहीं करता.

इसके बावजूद स्थिति सुधरी है और इसका असर आंकड़ों में भी दिखता है. एनएचएफएस-5 के आंकड़ों के मुताबिक, 2022 में मुजफ्फरपुर जिले का जन्म दर का लिंगानुपात 685 चला गया था. एचएमआइएस के आंकड़ों के मुताबिक, अभी यह 881 है. इस बीच मुजफ्फरपुर से सटे वैशाली और सारण जिलों का लिंगानुपात तेजी से गिरकर क्रमश: 803 और 806 पर पहुंच गया है. इस वक्त सबसे खराब लिंगानुपात भोजपुर जिले का है, जो 801 है.

वैशाली जिले के लिंगानुपात का गड़बड़ाना इसलिए भी चिंताजनक है, क्योंकि एनएफएचएस-5 में यह 1118 था. महज तीन वर्षों में यहां का लिंगानुपात तीन सौ अंक से अधिक गिर गया. मगर वहां के स्वास्थ्य महकमे में कोई फिक्रमंदी नहीं. सिविल सर्जन डॉ. श्यामनंदन प्रसाद कहते हैं, ''इस पर हम क्या बताएं? आप ही बताइए. क्या हम कह दें कि अल्ट्रासाउंड सेंटरों की गड़बड़ी से ऐसा हो रहा है?’’ उनके स्टाफ के ब्रजेश बताते हैं कि जिले में 101 अल्ट्रासाउंड सेंटर पंजीकृत हैं और इनमें से 85 चल रहे हैं. पिछले तीन वर्षों में सिर्फ दो अल्ट्रासाउंड सेंटरों के खिलाफ कार्रवाई हुई है.

अल्ट्रासाउंड सेंटरों की निगरानी का पूरा सिस्टम इसी तरह काम कर रहा है. मामले को ठीक से समझने के लिए राज्य स्वास्थ्य समिति के कार्यकारी निदेशक सुहर्ष भगत से कुछ सवाल पूछे गए थे जिनके अब तक जवाब नहीं मिले हैं. सवाल कुछ यूं हैं: पूरे बिहार में कितने अल्ट्रासाउंड सेंटर पंजीकृत हैं? इनमें से कितने नियमित मासिक रिपोर्ट जमा कराते हैं? क्या हर तीन महीने पर इनकी जांच होती है?

पीसी-पीएनडीटी ऐक्ट के तहत गठित राज्य स्तरीय समिति और जिला स्तरीय समितियों में क्या मानक के अनुसार सदस्य हैं? पिछले दो साल में लिंग परीक्षण और अवैध अल्ट्रासाउंड सेंटरों की कितनी शिकायतें मिली हैं? कितनों पर कार्रवाई हुई? कितने सेंटर सील किए गए और कितनों को सजा मिली? क्या जिला स्तर की समितियों, न्यायिक प्रक्रिया से जुड़े लोगों, पुलिस विभाग, क्लिनिक मालिकों आदि की ट्रेनिंग हुई है? पीसी-पीएनडीटी ऐक्ट को लेकर जजों की कमिटी गठित हुई है?

कम लिंगानुपात वाले जिलों के लिए कोई खास योजना बनी है? आजकल प्रचलित पोर्टेबल अल्ट्रासाउंड मशीनों को रोकने के लिए क्या कोई योजना बनी है? मौखिक और लिखित रूप से सवाल पूछने के 11 दिन बाद भी समिति की तरफ से कोई जवाब नहीं मिला. इस बीच कम से कम चार बार राज्य स्वास्थ्य समिति के दफ्तर और समिति के कार्यकारी निदेशक तथा पीसी-पीएनडीटी ऐक्ट से जुड़े कर्मियों से मिलकर जबाव तलाशने की कोशिश की गई. मगर जानकारी नहीं दी गई.

आखिर में शाहीना परवीन पूरे मामले को एक संदर्भ देती हैं, ''सबसे बड़ी जरूरत है समाज में लड़कियों के महत्व को स्थापित करना. उसे बराबरी का दर्जा देना. उस अनुरूप सोच बदली तो अल्ट्रासाउंड सेंटरों पर कड़ाई और नियमित निगरानी की व्यवस्था बन जाएगी.’’

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