एक ऐसे समय में जब अतीत को लेकर उपजे विवाद कभी भी इतना गंभीर रूप ले सकते हैं कि उससे उड़ी धूल में पूरी सभ्यताएं दफन हो जाएं तो प्राचीन तमिल स्थल कीजड़ी एक बार फिर टकराव का केंद्र बिंदु बनकर उभर रहा है.
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) ने इस स्थल की खुदाई के प्रमुख पुरातत्वविद् से जनवरी 2023 की अपनी अंतिम रिपोर्ट संशोधित करने को कहा है. आशय यह है कि इस स्थल को साक्ष्यों के आधार पर 6वीं-8वीं शताब्दी ईसा पूर्व का मानने की जगह बाद के कालक्रम का बताया जाए.
इस निर्देश ने ऐतिहासिक शोध में सियासी दखल के आरोपों को लेकर नया बखेड़ा खड़ा कर दिया. साइट की 'पोस्ट-डेटिंग' यानी बाद के कालक्रम का बताने से उस खोज का सारा उत्साह खत्म हो जाएगा, जिसके आधार पर तमिलनाडु की सभ्यता को संगम युग से तीन शताब्दी पुराना माना जा रहा था.
शुरुआत में इस स्थल की खुदाई का नेतृत्व करने वाले पुरातत्वविद् के. अमरनाथ रामकृष्ण ने एएसआइ की मांग को ठुकरा दिया. वे अपनी 982 पन्ने की रिपोर्ट पर कायम हैं. उनका कहना है कि ये निष्कर्ष स्ट्रेटीग्राफी और एक्सेलेरेटर मास स्पेक्ट्रोमीट्री जैसी विधियों पर आधारित थे. रेडियोकार्बन डेटिंग की इस अत्याधुनिक विधि में पुरातनता को लेकर ±40 वर्ष की सटीकता पाई जाती है.
समय पर विवाद क्यों?
हालांकि, कीजड़ी की पुरातनता की पुष्टि के लिए अभी विद्वानों की पूर्ण सहमति का इंतजार है. खासकर यह पता लगाया जाना है कि पुरातनता के प्रमुख साक्ष्य यानी प्रारंभिक तमिल शिलालेखों वाले बर्तन के टुकड़े कार्बन-डेटेड चारकोल परतों के साथ पूरी तरह मेल खाते हैं.
साथ ही, क्या इसकी सिरेमिक शैली प्राचीन तमिलनाडु के मिट्टी के बर्तनों के कालक्रम के अनुरूप है. लेकिन एएसआइ का मई 2025 का पत्र केवल पुष्टि की बात पर जोर नहीं देता. बल्कि इसमें ''आवश्यक सुधारों'' की जरूरत बताई गई है और इस पर जोर दिया गया है कि सबसे पुरानी परत 300 वर्ष ईसा पूर्व से पहले की नहीं होनी चाहिए. रामकृष्ण अकेले ऐसे व्यक्ति नहीं हैं जो एएसआइ के ऐसे ''सुनियोजित निष्कर्षों'' को पूर्वाग्रह भरी नजर से देखे जाने का नतीजा मानते हैं.
दक्षिण में ऐसे काफी लोग हैं जो इसे एक व्यापक पैटर्न का हिस्सा मानते हैं, जिसमें ''विज्ञान विचारधारा का मोहताज है और प्रमुख ऐतिहासिक आभ्यानों को अपनी सुविधा के लिहाज से आगे बढ़ाने के लिए पुरातात्विक साक्ष्यों को दरकिनार कर दिया जाता है.''
वैगई नदी के किनारे बसी कीजड़ी में 2,600 साल से पुरानी एक साक्षर शहरी तमिल सभ्यता के संकेत मिलते हैं. अगरम और कोंथागै जैसी आसपास की जगहें इस विचार को पुष्ट करती हैं, और कुछ निष्कर्षों में तो सिंधु लिपि के साथ प्रारंभिक तमिल-ब्राह्मी का संभावित संबंध भी दिखता है.
लेकिन इसमें सबसे बड़ी परेशानी यह है कि यह केंद्र के पुरातनता के वैदिक-केंद्रित दृष्टिकोण को चुनौती देता है. इसलिए, एएसआइ के संदेश को शुद्ध अकादमिक जांच के बजाए कीजड़ी के जरिए सही तस्वीर सामने आने से रोकने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है.
अगर पूरी तरह से सचाई सामने लाई जाए तो यह सभ्यता वैदिक/संस्कृत कालक्रम की सर्वोच्चता नष्ट कर सकती है और दक्षिण में एक समानांतर सभ्यता होने की पुष्टि कर सकती है, जिसकी अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति थी. इसे हड़प्पा के साथ जोड़ना इस तथ्य को और पुष्ट कर सकता है.
कीजड़ी के निष्कर्षों ने जैसे ही राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ध्यान आकृष्ट करना शुरू किया, तभी 2017 में रामकृष्ण को अचानक तमिलनाडु से असम स्थानांतरित कर दिया गया. इसके साथ ही एएसआइ के नेतृत्व में जारी खुदाई का काम धीमा हो गया. इसके बाद कोई अहम सुराग मिलने की भी कोई घोषणा नहीं की गई. जवाब में राज्य पुरातत्व विभाग ने कीजड़ी के सर्वे का काम अपने हाथ में ले लिया, और 7,500 से ज्यादा कलाकृतियों का पता लगाया, जो रामकृष्ण के निष्कर्षों को पुष्ट करने के लिए पर्याप्त थीं. लेकिन नई दिल्ली को न इन्हें मानना था और न ही उसने माना.
कीजड़ी पर विस्तार से लिखने वाले माकपा सांसद और लेखक एस. वेंकटेशन कहते हैं, ''एएसआइ कभी कीजड़ी की सचाई स्वीकारने को उत्सुक नहीं रहा. वैसे भाजपा पौराणिक कथाओं को इतिहास से ज्यादा महत्व देती है लेकिन यह हमारे पुष्ट अतीत को मिटाने के लिए भी उतनी ही मेहनत करती है.''
भाजपा नेता तमिलिसाई सुंदरराजन ने जवाब दिया कि केंद्र ने शुरुआती खुदाई को वित्त पोषित किया था. इस पर वेंकटेशन का सवाल है, ''आपने फंडिंग क्यों रोकी? आपने पैसा देना इसलिए बंद किया क्योंकि जो कुछ मिला वह उस इतिहास को गड्ड-मड्ड कर रहा है, जो आप बताना चाहते हैं.''
खास बातें
> एएसआइ का कहना है कि कीजड़ी को 300 वर्ष ईसा पूर्व से ज्यादा पुराना नहीं बताना चाहिए.
> खुदाई का नेतृत्व करने वाले प्रमुख शोधकर्ता अपने निष्कर्ष पर अडिग हैं: यह पुरातत्व स्थल 6वीं-8वीं सदी ईसा पूर्व का है.